रचना की महानता से ही आलोचना महान होती है
सामाजिक सत्य कविता से खोज निकालने की चीज़ है, ऊपर से आरोपित करने की नहीं।
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यदि प्रकृति ने मध्ययुगीन बंधनों से मानव को मुक्त किया तो मानव ने भी बदले में प्रकृति को मुक्त किया।
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कविता राजनीतिक और सामाजिक घटनाओं का अविकल अनुवाद नहीं है।
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विविध राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक घटनाएँ मानव-व्यक्ति के मन पर जो सम्मिलित प्रभाव डालती हैं, कविता उसकी भावात्मक प्रतिक्रिया है।
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साहित्य मानव के संपूर्ण व्यक्तित्व की वाणी है, अविभक्त जीवन इकाई का प्रतिबिंब है।
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विजेता जाति प्राय: विजित जाति को दबाने के लिए उसमें से सभी प्रकार की शक्तियों का अपहरण करने का प्रयत्न करती है।
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संवेदना कल्पना को जागृत करती है और कल्पना संवेदना में वृद्धि करती है।
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उपमाएँ तो सभी कवियों ने दीं, लेकिन ‘उपमा कालिदासस्य’ ही कहा गया और कालिदास की यह क्षमता सामान्य नहीं है।
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विशेषता तो वहाँ होती है, जहाँ मौलिकता होती है और मौलिकता वहाँ आती है, जहाँ व्यक्ति-विशेष को साहस के साथ प्रयोग करने की छूट होती है।
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आलोचना के इतिहास के बारे में जितनी पुस्तकें लिखी गई हैं, वे अपूर्ण-अधूरी ही नहीं हैं, बल्कि उनकी जो मूल दृष्टि है, वह अभावों का दुर्दांत उदाहरण है।
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आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के पहले आलोचक थे। उनके पहले समीक्षक हुआ करते थे, जो पुस्तकों की समीक्षा या टिप्पणियाँ लिखते थे।
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आलोचना का एक बहुत बड़ा काम है—परंपरा की रक्षा।
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आलोचक सही अर्थों में वह है जिसके पास लोचन है। वह लोचन किसी दृष्टि से और साहित्य से ही प्राप्त होता है, रचना से प्राप्त होता है—किसी दर्शन से प्राप्त हो, संभव नहीं है।
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रचना की महानता से ही आलोचना महान होती है।
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शास्त्र में प्रसंगवश आलोचना होती है, जबकि आलोचना में सिद्धांत-चर्चा प्रसंगवश की जाती है।
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आलोचना एक रचनात्मक कर्म है, यह दोयम दर्जे का काम नहीं है। यदि आप में सर्जनात्मकता नहीं है तो आप आलोचना नहीं कर सकते।
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परंपरा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रक्रिया है।
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यह बहुत भारी विडंबना है कि किसी आलोचक से उसकी रचना-प्रक्रिया के बारे में पूछा जाए। वह दूसरों की रचना-प्रक्रिया के बारे में बताता है।
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आलोचकों में वह आदमी बहुत गुस्ताख़ समझा जाता है जो किसी कृति के मूल्यांकन की बात करे।
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यदि साहित्य को आप अनुभव की वस्तु मानेंगे तो उसका अनिवार्य नतीजा होगा कि आलोचना उपभोक्ता के लिए सहायक वस्तु होगी, उस आलोचना का अपना कोई अस्तित्व नहीं होगा।
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आलोचक का काम है प्राचीन कृतियों को प्रासंगिक बनाए।
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आलोचना का कार्य अतीत की रक्षा के साथ-साथ यह भी है कि वह समकालीनता में हो, अर्थात् वह समकालीन रचनाओं को जाँचे-परखे, मूल्य-निर्णय दे।
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आलोचना की मुख्य चुनौती समकालीन रचनाएँ ही होती हैं।
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किसी कृति की अंतर्वस्तु का विश्लेषण नहीं करना चाहिए, बल्कि अंतर्वस्तु के रूप का विश्लेषण करना चाहिए।
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साहित्यकार की स्वतंत्रता अन्य आदमियों की स्वतंत्रता से थोड़ी भिन्न होती है।
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समकालीन आलोचना का कोई एक पक्ष नहीं है।
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रस का मतलब है समरसता।
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कहानी का यह दुर्भाग्य है कि वह मनोरंजन के रूप में पढ़ी जाती है और शिल्प के रूप में आलोचित होती है।
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यदि साहित्य का लक्ष्य मनुष्य है तो मनुष्य के समान साहित्य भी स्थिर नहीं, बल्कि गतिशील है।
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कविता में जो स्थान लय का है, कहानी में वही स्थान कहानीपन का है।
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कहानी के कहानीपन की सफलता का अर्थ है—उसकी अर्थवत्ता या सार्थकता।
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कवि अपने बारे में कहे तो कविता हो सकती है, पर आलोचना तो तभी होती है जब रचना के बारे में कहा जाए। आलोचक को अपने बारे में कहने की छूट नहीं है।
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कोई रचना अच्छी लगे, लेकिन ठीक-ठीक वजह का पता न चल पाए तो भी आलोचक में यह कहने का साहस होना चाहिए कि रचना अच्छी है।
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किसी कविता की भाषा को ‘सुंदर’ कहने के बाद, उसके कथ्य को ‘असुंदर’ कहना असंगत होगा।
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आलोचना औज़ारों का बक्सा नहीं, जिसे पाकर कोई आलोचक बन जाए। अक़्ल हो तो एक पेचकश ही काफ़ी है।
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प्रतिभा हो तो आदमी क्या नहीं कर सकता।
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छायावादी प्रेम-भावना की एक विशेषता उसका भावावेग है।
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सभ्यता का विकास कवि-कर्म को कठिन बना देता है।
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आम धारणा है कि कविता मूर्त होती है।
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आज भी आलोचना, आलोचना के प्रत्ययों, अवधारणाओं और पारंपरिक भाषा से इतनी जकड़ी हुई है कि वह नई बन ही नहीं सकती।
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कभी मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि आलोचक बनूँगा।
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नामवर सिंह (1926—2019) समादृत भारतीय-हिंदी साहित्यिक आलोचक हैं। यहाँ प्रस्तुत उद्धरण ‘छायावाद’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 1995), ‘दूसरी परंपरा की खोज’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 1983), ‘कहानी : नई कहानी’ (लोकभारती प्रकाशन, संस्करण : 2008), ‘कविता के नए प्रतिमान’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 1990), ‘आलोचना और विचारधारा’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2012) और ‘नामवर के नोट्स’ (राजकमल प्रकाशन, संस्करण : 2016) शीर्षक पुस्तकों से चुने गए हैं।