रोशनी की प्रजाएँ

दीपावली अर्थात् नन्हे-नन्हे दीपकों का उत्सव। रोशनी के नन्हे-नन्हे बच्चों का उत्सव! ‘जब सूर्य-चंद्र अस्त हो जाते हैं तो मनुष्य अंधकार में अग्नि के सहारे ही बचा रहता है।’ ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ के ऋषि का यह बोध हमारे दैनिक अनुभव के मध्य होता है। एक-एक नन्हा दीपक सूर्य, चंद्र और अग्नि का प्रतिनिधि बनकर हमारे घरों में रोज़ अपनी देवोपम भूमिका निभाता है। उसकी देह भले ही पार्थिव धातु की हो, परंतु है वह वस्तुत: रोशनी की प्रजा।

प्रजा से हमारा तात्पर्य संतान से है और गाँव-गाँव, नगर-नगर अपनी देदीप्यमान भूमिका में प्रतिष्ठित असंख्य दीप-शिखाएँ उस रोशनी की असंख्य प्रजाएँ हैं जो सूर्य, सोम और अग्नि तीनों में निहित व्यापक देवशक्ति के रूप में सृष्टि की प्रथम उषा के साथ सक्रिय हैं। रोशनी एक भगवती शक्ति है। इसका संस्कृत रूप है—‘रोचना’। ईरानी ‘रोशनी’ और संस्कृत ‘रोचना’ के मूल में ही हिंदी आर्य-ध्वनिखंड है, जो मूलत: दीप्ति या द्युति से जुड़ा है। रोशनी के भगवती-शक्ति होने के कारण ही ‘ललितासहस्रनाम’ में देवी का एक नाम ‘रोचना’ भी है। स्वयं में ‘देवी’ शब्द का अर्थ ही होता है ‘देदीप्यमान’।

भारतीय मन नारी में भी तेज और दीप्ति का प्राधान्य देखता है। इसी से यहाँ पर नारी व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के साथ ‘देवी’ शब्द जोड़ने की प्रथा है। आजकल अवश्य नई पीढ़ी की लड़कियाँ अब अपने नाम के आगे देवी शब्द लगाना नहीं पसंद करतीं। परंतु है यह बड़ा ही अर्थ-गंभीर और महिमामय शब्द। इसके अनुसार प्रत्येक भारतीय कन्या ही देदीप्यमान ज्योतिर्मय सत्ता है। वस्तुत: भारतीय मन रोशनी या द्युति से बड़े ही घनिष्ठ भाव से जुड़ा है। रोशनी या द्युति देवता है; जीवन, प्राण, शक्ति और चेतना का प्रतीक है। इसके प्रतिकूल अंधकार आसुरी है, तामसिक है, मृत्यु-रूप है और चैतन्यविहीन जड़ता का, अगति का और अधोगति का प्रतीक है।

रोशनी के ही परिवेश में मनुष्य की इच्छा, ज्ञान और क्रिया का स्वस्थ और समुचित विकास होता है; क्योंकि रोशनी के संदर्भ में दुराव-छिपाव और ग्लानि का कोई स्थान नहीं। फलत: कहीं कोई अवदमन नहीं, कहीं कोई आत्मक्षय नहीं।

इसके विपरीत अंधकार छिपाव, दुराव, संशय, कुटिलता, कपट और व्यभिचार का सहज परिवेश रचता है। क्रूरता इसके भीतर अपने नख-दंत निरंतर रगड़कर तीक्ष्णतर करती रहती है। अशुभ और अशोभन इसकी शाखा-दर-शाखा पर घोंसले बाँधकर उल्टे पाँव लटके हैं और निरंतर अमंगल ध्वनि द्वारा संकेत देते रहते हैं।

रोशनी में रहना स्वयं में एक सुख है और अँधेरे में जीना एक संत्रास है। संशय, हताशा और भय अंधकार के सहज स्वाभाविक व्यूह हैं। इसमें फँसकर आत्मा यंत्रणा पाती है, निरंतर सुलगती रहती है, धुँधाती रहती है, परंतु ‘भक’ से जल नहीं उठती। जलकर अपनी द्युति का जौहर दिखा नहीं पाती और भीतर ही भीतर भस्मीभूत होकर रह जाती है। ऐसा है अंधकार का चरित्र। यह उल्लू, चमगादड़, साँप तथा मांसलोलुप श्वापदों तथा कामुकों और व्यभिचारियों के लिए भले ही आकर्षक हो; परंतु सही आदमी, स्वस्थ मनुष्य सदैव प्रकाश से ही अपने को जोड़ता है और सूर्य-चंद्र के अस्त हो जाने पर उनकी पार्थिव प्रतिनिधि रोशनी की नन्ही प्रजाओं की शरण लेता है।

वैसे तो मनुष्य मात्र ही रोशनी में एक दिव्यबोध का अनुभव करता है, परंतु हिंदुस्तानी जाति ने अपनी दैनिक प्रार्थना ‘गायत्री’ से लेकर अपने पारस्परिक संबोधन ‘जी’ तक सर्वत्र ही एक रोशनी अर्थात् ‘तेज’ तत्त्व को विशेष महत्त्व दिया है। ‘जी’ की बात लें। उत्तर भारत में श्रद्धा और प्रेम के साथ किसी का नामोच्चारण करते हुए ‘जी’ लगा दिया जाता है। रामजी, कृष्णजी, हनुमानजी से लेकर गांधाजी, नेहरूजी तक सभी के साथ ‘जी’ है। यह ‘जी’ भी अप्रत्यक्ष रूप से रोशनी का ही सगोत्र शब्द है।

पहले मेरी धारणा थी कि यह ‘जीव’ का रूपांतर है और भारतीय दृष्टि में हम सब प्रत्येक ‘जीवात्मा’ हैं। परंतु बाद में मैंने धारणा का संशोधन किया, तब इस शब्द का असली रहस्य पकड़ में आया। ‘देव’ और ‘जी’ दोनों ही संस्कृत के ‘द्यु’ से जुड़े हैं। संस्कृत ‘द्यु’, द्युति, ज्योति, दिव, देव और प्राकृत ‘जी’ आदि सारे शब्दों के मूल में ‘द्यु’ ध्वनिखंड का मूल प्रारूप निहित है। और ये सारे शब्द ज्योति या प्रकाश से जुड़े हैं। मध्य एशिया की शकार्य बोलियों के प्रभाव से यह ‘जी’ शब्द आया होगा, क्योंकि मध्य एशिया तथा यवन अंचलों में ‘द’ का ‘ज’ में रूपांतर हो जाता है।

संस्कृत में भी संधि करते समय ‘द’ का ‘ज’ हो जाता है, अत: ‘द’ और ‘ज’ मूलत: एक ही ध्वनियाँ हैं। किसी आर्यभाषा में ‘द’ चला तो किसी में ‘ज’। जैसे द्युपितर (संस्कृत) का लाटीनी रूप ‘ज्यूपितर’ है। द्यौस का ‘जेउस’ है। शायद यवन भाषा के प्रभाव से ही भारतीय ज्योतिष में बृहस्पति को ‘जीव’ (जे उसका विकृत रूप) कहा जाता है। अत: किसी कारणवश देव का देऊ, जेऊ, फिर ‘जू’ और ‘जी’ हो गया है।

पुरानी हिंदी में, राजस्थानी में, ‘जू’ ही चलता है, ‘जी’ नहीं। उत्तर भारतीय-भाषा और संस्कृति पर उत्तरकुरु की आर्य संस्कृति तथा कालांतर की शक संस्कृति का प्रभाव बड़ा सघन पड़ा है और इन्हीं अंचलों में ‘जी’ या ‘जू’ चलता है, जहाँ यह प्रभाव विशिष्ट रहा है। असम-बंगाल में अब भी ‘देव’ चलता है। द्युति और ज्योति का अर्थ एक ही है। हमारे दैनिक जीवन में ‘जी’ का प्रयोग आर्य भावधारा में प्रतिष्ठित ‘देवता’ और द्यु तत्त्व यानी रोशनी के प्रति पक्षधरता का एक अच्छा सबूत है। वैसे मैं मानता हूँ कि पूर्णांश भारतीय संस्कृति में केवल तेज द्युति का ही महत्त्व नहीं। एक और तत्त्व है, जो समान रूप से महत्त्वपूर्ण है। वह है ‘मधु’ या ‘रस’।

इस मधु या सोमतत्त्व का मौलिक स्रोत आर्येतर अधिक है, आर्य कम। तो भी दोनों महत्त्वपूर्ण माने गए हैं। वैदिक भाषा में इन्हें ही अग्नि (तेज) और सोम (मधु) कहा गया है। उत्तर वैदिक काल का आर्य सांस्कृतिक-दृष्टि से विमिश्र आर्य है और इस विमिश्रता का प्रवेश उसके भीतर भारत में प्रवेश करने के पूर्व ही हो गया था। अतः ऋग्वैदिक युग से ही भारतीय आर्य अग्नि और सोम के युग्म को सृष्टि-विकास की मूल शक्ति मानता है। परंतु वैदिक सृष्टि-विद्या में अग्नि-सोम के द्वैत का मूल ‘उत्स’ माना गया है सविता को, जो तेज और मधु दोनों का दाता है।

वस्तुत: सबसे ऊपर स्थिर द्यु-लोक में जो सविता है, वही अंतरिक्ष में इंद्र (आदित्य) और सोम है और वही पृथ्वी पर अग्नि है। मूल है एक ही देवता, जो द्यु का अधिदेवता है। भारतीय संस्कृति के तीन प्रधान पर्व इन देवताओं से अलग-अलग जुड़े हैं। विजयादशमी सविता का पर्व है तो दीपावली अग्नि अर्थात पार्थिव तेज का, जिसका लघुतम और सामान्यतम प्रतीक है रोशनी का नन्हा बच्चा यानी दीपक। तीसरा पर्व है होली का वसंतोत्सव, जो स्पष्टतया सोम-प्रधान है।

दीपावली तेज, दीप्ति, द्युति, रोचना, रोशनी, ज्योति, कांति, प्रकाश, चैतन्य और प्रभा-भास्वर मनोभावों का पर्व है। यह हमारे जातीय मन की प्रकृति के अत्यंत निकट है। वैदिक कवि की विश्व-दृष्टि तो सर्वत्र देवी अर्थात् देदीप्यमान तत्त्व ही देखती थी। हे देदीप्यमान जल, हे द्युतिमान व्योम, हे दीप्तिमयी पृथ्वी, हे दीप्तिमान मरुत—ऐसे संबोधनों से सारी वैदिक कविताएँ भरी पड़ी हैं। वैदिक कवि की दृष्टि जिस पर गई है, वही उसे दिव्य आलोक संपन्न लगा है। इस मानसिक उत्तराधिकार को उत्तरकालीन काव्य और पौराणिक परंपरा ने ग्रहण किया और अपने विषय का केंद्र ही बनाया तमस और प्रकाश का द्वंद्व तथा प्रकाश की सर्वांगपूर्ण विजय। रोशनी की अविराम जय-जयकार। यही नहीं, इस देश का नाम ही तेज या द्युति से संबंध रखता है।

भारत शब्द की अनेक व्याख्याएँ हैं। सबसे लोकप्रिय व्याख्या है शाकुंतल भरत के नाम पर होने की, जो वस्तुतः कालिदास के परवर्ती साहित्य के आधार पर है। भागवत शास्त्र और जैन ग्रंथों के अनुसार ‘भारत’ संज्ञा के मूल में हैं, बाहुबली के भाई और भगवान ऋषभ के पुत्र भरत चक्रवर्ती। इसके अतिरिक्त आधुनिक विद्वान् इसे किसी प्राचीन भरतगण नामक आर्य जाति के आधार पर भी मानते हैं।

वेदों में कई स्थलों पर भरतगण का उल्लेख है और संभवतः चंद्रवंशीय ही नहीं, सूर्यवंशीय भरतगणों का भी अस्तित्व प्रमाणित है। ‘भरतों ने पुरुरवा की अग्नि का ध्वंस किया’—वेदों में प्राप्त ऐसे वाक्य तभी युक्तिसंगत होते हैं, जब चांद्र भरतों से भिन्न प्रकार भी भरतगण रहा हो, क्योंकि चांद्र भरतों के पूर्वज पुरुरवा ही थे। वस्तुतः भरत शब्द का एक अत्यंत प्राचीन अर्थ होता है—सूर्य। भरत वह है जो सबका भरण-पोषण करे। यह भूमिका सविता अर्थात् सूर्य की ही है। इसीलिए वेदों ने भरत शब्द का अर्थ स्पष्टतः ‘आदित्य’ दिया है।

‘भरतः आदित्यः तस्य भा भारती’—यास्क के अनुसार, भरत का अर्थ आदित्य होता है और उससे उत्पन्न प्रजा भारती है। अतः भारत शब्द का सही और सच्चा अर्थ होता है—सूर्य-संतान! अर्थात् प्रकाश या तेज।

इस देश का एक अन्य नाम ‘हिंद’ अथवा इसका यूरोपीय संस्करण ‘इंड’ (इंद) भी है। कुछ लोगों के अनुसार इसका हिंद नाम सिंधु (हिंदू) या इंदु नदी से निकला है। शायद यह प्रक्रिया उलटी है। प्राचीन बैबीलोनियन भाषा में भाषा-वैज्ञानिक स्कीट के अनुसार ‘ईदु’ शब्द का अर्थ है—चंद्रमा या द्वितीया का वक्रचंद।

प्रायः माना जाता है कि घुमंतू आर्यों का एक पड़ाव (मूल-स्थान से चलकर) कश्यप समुद्र के दक्षिण में और फरात-दजला के अंचल में भी घटित हुआ था, सुमेर-बैबीलोन के प्रतिवेश में। सुमेर बैबीलोनीय भाषा-संस्कृति धर्म का प्रभाव आदिम आर्य पर काफ़ी पड़ा है। संभवतया संस्कृत का इंदु शब्द इसी ईदु का एक रूप हो, ई का इं रूपांतर के साथ। और इंदुस या इंदु से ही इंद्र निकला हो, फिर इसी से हिंद और सिंध भी। अर्थात् भारत की प्रयुक्त विदेशी संज्ञा के मूल में इंदु यानी चंद्र का संकेत संभव है। इस थ्योरी के बारे में बहुत दृढ़तापूर्वक नहीं कहा जा सकता। ‘हिंद’ के मूल में भी द्युति है। ऐसा होना असंभव नहीं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि दीपावली का त्योहार भारतीय मनोभूमि से अत्यंत घनिष्ठ भाव से जुड़ा है, क्योंकि प्रकाश, द्युति या रोशनी से भारतीयता का गर्भनालगत संबंध है। यही नहीं, प्रत्येक दीपक या बत्ती भारतीय जीवन आदि-साधना और केंद्रीय पुरुषार्थ ‘क्रतु’ अर्थात् यज्ञ का प्रतीक है। दीपक के लिए दो शब्द चलते हैं। एक तो है दीप या दीया, जो दीपक का ही रूपांतर है। दूसरा बत्ती है। असमिया भाषा में यह बंती हो जाता है। बत्ती शब्द वर्तिका से निकला है। वर्तिका अर्थात् बाती। यह वर्तिका तिलतिल करके जलती है, अपनी आत्माहुति देती है, तब कहीं ज्योतिशिखा का जन्म होता है।

प्रकाश बन जाना, उजाला फैलाना, घर-आँगन और इतिहास के अँधेरे को भगाना कोई मौज-शौक़ की बात नहीं। बड़ी कठिन साधना है। बिना अपने ‘संपूर्ण’ का त्याग किए, बिना सर्वान्तक आत्मदान के यह संभव नहीं। आत्मदान जितना ही सर्वात्मक होगा, उतना ही प्रकाश प्रखर और विस्तृत होगा।

सारी बहादुरी, सारी जौहर-यंत्रणा वर्तिका ही झेलती है। तब जाकर ईश्वरीय आशीर्वाद की तरह सुंदर और महिमामय प्रकाश का जन्म होता है। अतः दीप वर्तिका के पीछे एक यज्ञ-भाव, एक अनासक्ति योग, एक अव्यक्त ‘इदं इन्द्राय न इदं मम’ का भाव छिपा रहता है।

बिना इस भाव के प्राप्त प्रकाश सही प्रकाश नहीं। किसी का घर फूँक दो, किसी के खलियान में आग लगा दो, तब भी प्रकाश मिलेगा ही—ढेर-सा प्रकाश। राक्षस की तरह अट्टहास करता हुआ प्रकाश। अथवा व्यभिचार की वासनामयी चिता का प्रकाश। परंतु ये सारे प्रकाश दृष्टि के लिए दुःखदायी हैं, इनसे आँखें जल जाती हैं, दृष्टि अंधी हो जाती है। यह प्रकाश अंधकार से भी भयावह है। प्रकाश की इन अमंगलमयी आकृतियों की बात मैं नहीं कर रहा हूँ। तात्पर्य उस प्रकाश से है जो दीपावली के लिए समर्पित दीयों की नन्ही वर्तिका के आत्मदान से जन्म लेता है और जो जीवन में ‘ऋतु’ भाव या यज्ञ-भाव का द्योतक है। क्रतु भारतीय संस्कृति के तीन अत्यंत मूलभूत तत्त्वों में से एक है।

भारतीय संस्कृति जिन तीन मूलभूत स्थायी भावों या तत्त्वों पर स्थित रही है, वे हैं—क्रतु, काम और ऋत। ‘क्रतु’ (यज्ञभाव, आत्मदान, समर्पण) और ‘काम’ (इच्छा, भोग और आस्वादन) परस्पर विरोधी कोटियाँ हैं। परंतु पूर्णांग जीवन में ये परस्पर पूरक हो जाते हैं। क्रतु त्यागमुखी है। भारतीय जीवनदृष्टि ‘पूर्ण जीवन’ की साधना है।

इन दोनों को जोड़ता है—‘ऋत’ यानी नियम का, सत्य का, शील का (चाहे जिसका मानें) मंगलानुशासन। यह ऋत संयोजक है, जिसके कारण काम और क्रतु का ‘द्वंद्व-समास’ उत्पन्न होता है। और तब काम और क्रतु परस्पर को पूर्ण करते हैं। काम क्रतु को मधुमय और सुखद बना देता है और क्रतु काम को दृढ़ और अवदमनहीन। वस्तुतः ऋत ही परमात्मा-शक्ति है जो क्रतु और काम को, भोग को, प्राण और मृत्यु को परस्पर जोड़ती हुई ‘स्थिति’ के रूप रखती है। सारी दुनियादारी के मूल में यही काम और क्रतु का पारस्परिक संतुलन ही है। जहाँ संतुलन चौपट होता है, वहाँ जीवन पराजित हो जाता है।

हम कहते हैं कि दीपावली के पर्व में केंद्रीय महत्त्व दीप या ज्योतिर्मयी वर्तिका का ही है। यही ऐसा है तो इस त्योहार की आकृति-प्रकृति में विशुद्ध यज्ञ-भाव, आत्मदान, क्रतु का ही मौलिक महत्त्व है। तब इसे ज्ञान, चैतन्य और सतोगुण का त्योहार मानना चाहिए। ‘सदा दीपावली संत घर’ जैसी कहावतें इसी संदर्भ में तात्पर्यपूर्ण हो सकती हैं। संत का व्यक्तित्व ही क्योंकि साक्षात् दीपावली होता है, उसकी आत्मा का चेतन प्रकाश उसके रोम-रोम से नित्य दीपशिखा की ही तरह जलता है।

हम सभी जानते हैं कि सारा उत्तर भारत इसे ‘अर्थ’ की देवी माधवी या लक्ष्मी के त्योहार के रूप में ही मनाता है। तब क्या प्रकाश के जगमगाते असंख्य दीपकों की पाँत अर्थ-गरिमा की द्योतक है। क्या यह सब धन-संपत्ति का गौरव-गान है! भारतीय संस्कृति के बारे में अल्प समझ-बूझ रखने वाला भी इस बात को कभी नहीं स्वीकार करेगा। ऐसा कहना ही रोशनी की असंख्य प्रजाओं का अपमान है। भारत का ग़रीब से ग़रीब आदमी भी जिसका एकमात्र गौरव उसका धर्म-बोध ही है, माटी का एक जोड़ा दीया अपने दरवाज़े के सामने इस दिन ज़रूर रखता है।

उन दीपकों में उसका अहंकार नहीं, उसकी श्रद्धा प्रकाशित हो रही है। यह श्रद्धा उसकी अंतर्निहित मनुष्यता की गरिमा है और श्रद्धा धर्मबोध और पवित्रबोध से जुड़ी है, अत: यह हमारे अवचेतन को धर्म-मोक्ष के मार्ग पर ठेलती है। इसे हम अहंकार का प्रदर्शन या उस अदेवता की मात्र चापलूसी कहकर टाल नहीं सकते, जिसका कि नाम ही है चंचल और जिसका वाहन है रात्रिचर पक्षी उलूक। तब यहाँ लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा क्यों की गई है? इसका उत्तर दीपावली की रात्रि-शेष में प्रात: से पूर्व असंख्य मातृकंठों से निकले उद्घोष में खोजा जा सकता है। यह उद्घोष है : ‘ईश्वर का प्रवेश हो, दारिद्रय दूर हो’ (ईस्सर पइसे, दलिद्दर निकसे)। अर्थात् दैन्य, ग्लानि, दारिद्रय को भगाकर उसके स्थान पर जिस लक्ष्मीजी की प्रतिष्ठा का स्वप्न भारतवर्ष देखता है, वह है—‘ईश्वरीय लक्ष्मी’। लक्ष्मी (धन) सच्चे पुरुषार्थ द्वारा अर्जित होकर ही ईश्वर की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित होती है। वह विष्णु भगवान् की माधवी है।

बीसवीं शती का अर्थशास्त्र हज़ार-हज़ार कंठों से इस बात का विरोध करेगा, केवल एक मनीषी को छोड़कर और वह मनीषी भारतीय ऋषि परंपरा का अंतिम ऋषि रहा है। वह हमारे ज़माने में ही मौजूद था कुछ वर्ष पहले। उसका प्रातःस्मरणीय नाम है—महात्मा गांधी। बाक़ी सारे अर्थशास्त्री एक मत हैं कि सही अर्थशास्त्र है धन का येन केन प्रकारेण आहरण। पश्चिमी दुनिया जिस अर्थशास्त्र को लेकर चल रही है, उसके अनुसार अर्थ-व्यवस्था का उद्देश्य होना चाहिए धन-संचय, और वितरण की कसौटी होनी चाहिए अधिकतम लाभ। इस अर्थशास्त्र के फेर में पड़कर समस्त मनुष्य-जाति गत दो सौ वर्षों से ‘समृद्धि का नरक’ जोड़ने की भयावह होड़ में लगी है। इस अर्थशास्त्र में मनुष्य का सुख, उसकी आत्मिक या बौद्धिक सत्ता की गरिमा का प्रश्न ही नहीं उठता है। क्योंकि यह अधिकतम लाभ और अधिकतम धनाहरण का शास्त्र है। आज भारतीय भी इससे जुड़ चुके हैं।

लार्ड कीनिस का कथन है, ‘‘सावधान, इन सब बातों के लिए उचित समय यह नहीं। कम से कम एक सौ वर्ष तक और हमें यह मानकर चलना होगा कि ग़लत ही सही है और सही ही ग़लत है, क्योंकि जो ग़लत है वही हमारे लिए लाभप्रद है।…’’

परंतु आज सभी जानते हैं कि मुट्ठी भर को छोड़कर शेष समग्र मानवता के लिए यह दर्शन तबाही और कच्चा माल के स्रोतों की अंधाधुंध बर्बादी भर ला सका है और समृद्धि जहाँ घटित हुई है, वहाँ के लोग ही ख़ुद इसे नरक की संज्ञा दे रहे हैं।

इनके विपरीत भारतीय परंपरा का अनुधावन करते हुए गांधीजी ने आत्मा पर आधारित एक अर्थशास्त्र की परिकल्पना रखी है जो सही अर्थों में शास्त्र की श्रद्धापूर्ण संज्ञा पाने की अधिकारी है। यह अहिंसा और जीवन-निष्ठा पर आधारित है। जिस तथ्य से किसी प्रकार अवदमन और दमन घटित हो, अपना या किसी और का, वह अहिंसा नहीं। सच्ची जीवननिष्ठा अहिंसा की विश्वासी है। आज हिंसा का रूप बड़ा मायावी हो गया है। एक-से-एक मनोहर रूप और श्रुतिमधुर शब्दों का रूप धारण करके यह समाज के अंग-प्रत्यंग में घुस चुकी है और इसकी ही शिकार-लीला है। सारी प्रगति और वैज्ञानिक सभ्यता ही इसकी मृगया-क्रीड़ा में रूपांतरित हो उठी है।

शोषणमुक्त, अवदमनरहित, आत्मा आश्रित अर्थशास्त्र की प्रतीक है आपादमस्तक जगरमगर करती हुई दीपावली। इसका संदेश है—‘परस्पर देवो भव’ यानी हम परस्पर को देवता बनाएँ, परस्पर को सार्थक करें, एक-दूसरे के नाम के साथ लगे ‘जी’ शब्द को अर्थवान बनाएँ और हम सभी सुखी हों। यह लक्ष्मीजी की, माधवी लक्ष्मी की सही उपासना है।

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कुबेरनाथ राय (1933-1996) समादृत ललित निबंधकार हैं। उनकी दस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। उनका यहाँ प्रस्तुत निबंध उनकी पुस्तक ‘मराल’ (कुबेरनाथ राय, भारतीय ज्ञानपीठ, तीसरा संस्करण : 2008) से साभार है।