उमस भरी जुलाई में एक इलाहाबादी डाकिया
आप इस कमरे को देखिए। छत से टपकते हुए पानी की टप-टप आवाज़ सुनिए। यह आवाज़ मेरे कानों में कुछ इस क़दर रच बस गई है कि मौसम कोई भी हो पर यह टप-टप की आवाज़ मेरे कानों में हमेशा गिरती रहती है। लोग मुझ पर हँसते हैं, पर मेरे ऊपर का यह छाता बारहों महीने टँगा रहता है। मुझे इसकी कोरों से टपकता हुआ पानी दिखाई देता है।
यह पानी इस कमरे की सभी जीवित या मृत चीज़ों में जज़्ब होता रहता है। उमस बढ़ती रहती है। मेरी साँसों में भी इस कमरे जैसी ही उमस है। काग़ज़ खाने वाले कीड़े हैं जो धीरे-धीरे मुझे कुतर रहे हैं। सदियों से जमा धूल-मिट्टी है जो परत-दर-परत मेरा हिस्सा बनती जा रही है। दीमक हैं जिन्होंने घर ही बना लिया है मेरे भीतर। क्या आपने दीमकों का कोई चलता-फिरता घर देखा है?
मैं सपने में अक्सर उड़ती हुई चिट्ठियाँ देखता हूँ। वे जादुई ढंग से लहराते हुए हवा में खुलती हैं और कई बार अपने लिखने वालों में बदल जाती है। तब मुझे उनकी तरह तरह की आँखें दिखाई पड़ती हैं। मैंने इन्हीं चिट्ठियों में दुनिया भर की आँखें देख रखी हैं। उनकी गहराई, उनके भीतर के सपने या उदासी, भरोसा या मशीनी सांत्वना, उनकी कोरों पर अटके हुए आँसू, सूखे हुए कीचड़… सब कुछ मैंने इतनी बार और इतनी तरह से देखा है कि अब बेज़ार हो गया हूँ। मेरे भीतर की आग बुझ गई है। उसकी राख मेरी ही पलकों पर गिरती रहती है।
पता नहीं उन चिट्ठियों को पढ़ने वालों के भीतर कुछ बदलता या नहीं पर उनकी आँखों का टपकता हुआ लहू कई बार मेरी आँखों में टपक जाता और कई कई रातों के लिए नींद एक सपना बन जाती। मेरी पत्नी को लगता था कि मैं सनक रहा हूँ धीरे-धीरे। कि किसी ख़त में डाल कर मेरे ऊपर कोई भूत-वूत कर दिया है किसी ने। उसे कौन बताए कि कोई भूत-वूत नहीं होते कहीं। धीरे धीरे हमीं भूत बनते जाते हैं। हर कोई हमसे, हमारी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो जाना चाहता है।
जाने दीजिए मैं भी क्या बात ले बैठा। वैसे भूतों के भी बहुत सारे क़िस्से हैं मेरे पास… पर उनकी बातें फिर कभी। आप देख सकते हैं कि मैं कितना व्यस्त हूँ। आपसे बेहतर यह बात चाँदी के वे कीड़े जानते हैं जो इस उमस को तार-तार करने की कोशिश में चिट्ठियों के बीच बहुत सारे सूराख़ बना देते हैं कि उनके भीतर तक हवा जा सके। इससे चिट्ठियों की उमर बढ़ जाती है और उन्हें साँस लेने में कोई कठिनाई नहीं आती।
मुश्किल यह है कि लोग इस तरह से नहीं सोचते। लोग सोचते हैं कि ये ख़ूबसूरत कीड़े चिट्ठियों और उसमें लिखी बातों को कुतर डालते हैं पर यह बात का सिर्फ़ एक पहलू है। दूसरा पहलू यह है चिट्ठियों से कुछ शब्द भर ग़ायब होते हैं। इस बात से चिट्ठियों में नए नए अर्थ पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है। ख़ाली जगहों में पढ़ने वाला अपनी समझ और भावनाओं के अनुरूप कोई और शब्द भर सकता है। इससे चिट्ठियाँ कविताओं में बदल जाती है।
जी हाँ, यहाँ कई साहित्यिक पत्रिकाएँ आती हैं। मुहल्ले में कई लेखक रहते हैं। पहले एक बुज़ुर्ग लेखक भी रहते थे। उनकी आँखों पर मोटा चश्मा चढ़ा हुआ था। इस बुढ़ापे में भी उन्हें कितना पढ़ना पड़ता है, यह सोचकर मैं उनकी कई पत्रिकाएँ चुपचाप अपने पास रख लेता था। अब रखता था तो पलट भी लेता था कभी-कभी। नतीजा यह निकला कि जल्दी ही मैं भी कविताएँ लिखने लगा।
मैं अंतर्देशीय या पोस्टकार्ड पर सीधे कविताएँ लिखता और संपादकों के पास भेज देता। जब मेरी कविताओं में किसी संपादक ने कोई रुचि नहीं दिखाई तो मैंने संपादक के नाम गाली वाली एक कविता लिखी और एक बड़े संपादक के पास भेज दी। इसे पाठकों के पत्र वाले कॉलम में जगह मिली। इस बात से मुझे न सिर्फ़ इन पत्रिकाओं से बल्कि कविताओं से भी वितृष्णा हो गई। मैंने कविताएँ लिखना बंद कर दिया और इसी के साथ कविताएँ पढ़ने से भी मेरी रुचि जाती रही।
इसके पहले मेरे पास ऐसी चिट्ठियों का एक बड़ा बंडल था जिनके पते खो गए थे। या वे मुझे इतनी रोचक लगी थीं कि मैंने ही जान-बूझकर उनके पतों पर पानी गिर जाने दिया था। जब भी मैं अपने काम से थक जाता या बोर हो जाता तो ऐसी ही कोई चिट्ठी खोलकर पढ़ना शुरू कर देता। यह ऐसा समय होता जब मैं पूरी तरह से अपने साथ होता और उनके साथ भी जिनकी लिखी चिट्ठी मैं पढ़ रहा होता। उमस थोड़ी कम हो जाती।
ऐसी ही उमस भरी जुलाई थी जब मैं एक प्रेम पगी चिट्ठी का जवाब लिखने बैठ गया था। लिखते हुए चिट्ठी के ऊपर छत पर से पानी की या मेरे पसीने की कुछ बूँदें टपक गई थीं, जिन्हें पाने वाली ने आँसू समझ लिया था शायद। यह पहले से ही चल रहा एक सिलसिला था जिसमें चोर दरवाज़े से मैं भी घुस गया था। उसके जवाबी ख़तों में ऐसी बहुत सारी बातें थीं जहाँ साझी स्मृतियों या कि साझे सपनों की याद दिलाई जाती थी। वहाँ जवाब लिखते हुए मुझे गोलमोल बातें लिखनी पड़ती थीं, ऊलजुलूल कल्पनाएँ करनी पड़ती थीं।
उसे ख़त लिखते-लिखते मैं कहानीकार बन गया होता, पर जाने कैसे उसे अंदाज़ा लग गया कि मैं कोई और हूँ। इसके बाद उसने जो-जो गालियाँ लिखकर मुझे भेजनी शुरू कीं कि मेरा दिमाग़ ही उड़ गया। भला सुंदर-सुंदर प्यार भरी बातें लिखने वाली कोई औरत ऐसी भद्दी-भद्दी गालियाँ कैसे लिख सकती थी! जवाब में मैंने भी गालियों से भरा एक पोस्टकार्ड उसे लिखा, पर उसे भेजने की बजाय फाड़कर फेंक दिया। इस तरह से उस औरत ने मेरे भीतर के कहानीकार की भी हत्या कर दी। हर कोई हत्या ही क्यों करना चाहता है मेरी?
अब तो ज़्यादातर चिट्ठियाँ रजिस्टर्ड होती हैं। उनमें आपसी बात कोई वैसे भी नहीं लिखता। पहले पोस्टकार्ड तक में न जाने कितनी पर्सनल बातें लिखी होती थीं। इस चक्कर में न जाने कितने ख़त खोलकर पढ़ डाले, पर अब वह तृप्ति महीनों नहीं मिलती जो पहले दिन में कई कई बार मिल जाया करती थी। पति-पत्नियों के ख़त, माँ बाप के ख़त, ससुराल में रह रही बेटियों के ख़त, प्रेमी प्रेमिका के ख़त, बाहर पढ़ने गए लड़कों के ख़त और कभी कभार दोस्तों के ख़त।
हर ख़त का एक रूटीन बनता था। उनके एकदम अलग होने के बाद भी उनमें बहुत सारी बातें कॉमन होती थीं। फिर भी उनमें वह आवेग होता था कि मैं अक्सर उनमें बह जाया करता। कई बार मेरी आँखों में आँसू आ जाते। न जाने कितनी आँखों में उतरने वाले आँसू उन आँखों से पहले मेरी आँखों में उतर आते। इस मोबाइल फ़ोन ने सब सत्यानाश कर दिया। चिट्ठियाँ ख़त्म हो गईं। हम भी एक दिन ख़त्म हो जाएँगे।
आप बड़े आदमी हैं। संतोष की बात है कि आपके पास अभी भी कभी-कभी पत्र आ जाते हैं। सरकारी डाक से किताबें आ जाती हैं। उनकी तलाश में आप भी आ जाते हैं, वर्ना हमें कौन पूछता है आजकल? उधर क्या किया मैंने कि दो साल पहले एक कोरियर कंपनी से भी जुड़ गया था। गली-गली घूमना होता ही था तो सोचा कि चार पैसे और कमा लूँ। अभी छह महीने भी नहीं बीते थे कि न जाने किस करमजले ने शिकायत कर दी। साल भर सस्पेंड रहा। न जाने कहाँ-कहाँ से सोर्स लगाया, घूस देने के लिए दो भैसें बेचीं, तब जाकर दुबारा बहाल हुआ।
जी अभी भी चार भैंसें हैं। बच्चों को दूध-दही मिल जाता है। दूध-दही बेचकर चार पैसे भी मिल जाते हैं। अभी दो बेटियों की शादी करनी है। दो बेटे हैं जो ऐसे ही अपनी जवानी बर्बाद कर रहे हैं। उन्हें किसी काम से लगाना है। सो यह सब भी न करें तो खाएँ क्या और खिलाएँ क्या? एक समय वह भी था जब लोगों के पास मनीऑर्डर आते थे। लोग नेग देते थे। उनसे हमारे संबंध घरेलू टाइप के हो जाते थे। एक तरह से हम उनकी परजा होते थे।
सब्ज़ियाँ, आम, कटहल, दूध-दही, पुआल, जिसके पास जो होता था वह कई बार बिना माँगे ही मिल जाता था। अब लोगों के पास ख़ुद के लिए ही कुछ नहीं है तो हमको क्या देंगे। आप ख़ुद को ही देखिए। हर हफ़्ते आते हैं, पर कभी पूछते हैं कि हमारा घर कैसे चल रहा है? अब कोई नहीं पूछता। सबको जल्दी रहती है। लोग इतनी जल्दी में क्यों रहते हैं?
अच्छा सुनिए। आप जहाँ रहते हैं, वहीं आपके पीछे शुक्ला जी रहते हैं। जज थे। अब रिटायर हो गए हैं। उनके एक बेटे कर्नल हैं, दूसरे हाईकोर्ट में वकील हैं बहुत बड़े। उन्हीं के बग़ल में सिंह साहब का मकान है। आरटीओ में थे। बहुत पैसा बनाया। बच्चे विदेश में रहते हैं। वहीं सेटेल हो गए हैं। अब यहाँ पर मियाँ-बीवी अकेले ही रहते हैं। आपकी इन लोगों से व्यवहार बनाने में रुचि है? कुछ चिट्ठियाँ हैं, इन लोगों की। आप लेते जाएँगे तो आपका भी भला होगा और हमारा भी।
आप अभी नए हैं यहाँ। पड़ोसियों से जान-पहचान बढ़ेगी। क्या पता कल को अच्छे संबंध बन जाएँ। पावर वाले लोग हैं। कभी न कभी काम ही आएँगे। आदमी ही आदमी के काम आता है। पहले मुझे लोगों से व्यवहार बनाना बहुत अच्छा लगता था। फ़ील्ड में निकलता तो वापस लौटते हुए रात ही हो जाती। पर मुश्किल यह थी कि साथ में बहुत सारी चिट्ठियाँ भी वापस लौट आतीं। मुझे बहुत गिल्टी फ़ीलिंग आती कि उनको पढ़ने वाले लोग उनका इंतज़ार कर रहे हैं और वे मेरे झोले में एक दूसरे के साथ लिपटी पड़ी हैं।
सोचिए कि किसी की पत्नी की चिट्ठी उसके उस पड़ोसी की चिट्ठी के साथ लिपटी पड़ी है जिसकी शक्ल भी वह नहीं देखना चाहता पर सामने मिलने पर कहना ही पड़ता है। नमस्कार भाई साहब! कैसे हैं। बहुत दिनों बाद दिखे। कहीं बाहर गए थे क्या। बताइए पर भाभी जी भी कम कर्मठ नहीं हैं। आप नहीं होते तब भी सब कुछ मैनेज कर लेती हैं। मैं तो इनसे कहता रहता हूँ कि कुछ सीखिए भाभी जी से।
पहले मैं बहुत कल्पनाशील था। ख़त की लिखावट देखकर या उसकी स्याही के रंग से भीतर के मज़मून का अंदाज़ा लगा लेता था। पर बाद में मैं इन चीज़ों से बोर होता गया। जब ख़ुद का जीवन सब तरफ़ से रूखा हो तो उसमें इस तरह से मिठास कब तक भरी जा सकती है। पर वह वक़्त दूसरा था। डाकिए को लोग बहुत ही महत्त्वपूर्ण व्यक्ति मानते थे। वह कोई बाहर का व्यक्ति नहीं था। वह हर तरह से उनके जीवन में शामिल था।
उसकी ख़ुशी या नाराज़गी से लोगों की चाल और व्यवहार बदल जाता था। कई बार तो लोग हमसे डरते भी थे। समय पर चिट्ठी न पहुँचाई तो? मनीऑर्डर देने में देर कर दी तो? या कोई बहाना बताकर वापस ही लौटा दिया तो? हालाँकि आप तो मुझे जानते ही हैं कि मैं किस तरह का आदमी हूँ। मैं यह सब करता नहीं था कभी, पर लोगों को ऐसा सोचने से मैं कैसे रोक सकता था?
अब तो ज़माना ही बदल गया। अब डाकिए की कोई क़दर नहीं रही। यहाँ भी अब कोई नहीं आता जाता। जो आते हैं वे भी जल्दी में रहते हैं। ज़रा-सी बात पर ही उखड़ जाते हैं। उस दिन आप ही उखड़ गए थे। बताइए कि आप जैसे पढ़े-लिखे आदमी को इस तरह से उखड़ना शोभा देता है क्या? अरे हमारा क्या, पर आपकी तो इज़्ज़त है। चार लोग जानते हैं आपको। अभी भी चिट्ठी लिखते हैं। आपकी तो मैं इस बात के लिए भी बहुत इज़्ज़त करता हूँ कि इस ज़माने में भी आपके पास इतनी चिट्ठियाँ आती हैं।
भाई साहब ये लिफ़ाफ़ा पकड़ेंगे क्या। इस पर यादव जी का नंबर लिखा है। उन्हें ज़रा फ़ोन कर देंगे क्या कि आएँ और अपनी डाक ले जाएँ। बाँटने में देरी होगी तो बाद में मुझ पर चिल्लाएँगे। मुझ पर इस तरह से चिल्लाने से क्या होगा? मैं ग़रीब तो सुन ही लूँगा पर आदत तो आपकी ख़राब होगी ना। इस तरह की आदतें आपके लिए कितनी बड़ी मुश्किलें खड़ी कर सकती हैं कि आप अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते। ये अलग बात है कि अपनी आदत के बारे में आप जानें, पर मुझ ग़रीब पर चिल्लाने में भी कोई न्याय की बात नहीं है।
सोचिए कि इस इलाक़े में जब मुश्किल से चार सौ घर थे, तब भी मैं अकेला ही चिट्ठियाँ बाँटता था। आज तो आप देख ही रहे हैं। चार सौ घर कब सोलह सौ में बदले और कब सोलह हज़ार में, ख़ुद मैं भी नहीं जान पाया। अब अकेले मैं कितना भी चाहूँ, सब जगह तो नहीं ही पहुँच सकता। ये तो तब है, जब चिट्ठियाँ आनी कम हो गई हैं। नहीं तो मैंने तो वह समय भी देखा है कि रोज़ आने वाली ताज़ी चिट्ठियों से ही डाकघर गुलज़ार रहता था। पर बात यह भी है कि मैं हमेशा पहले के समय से तुलना करता रहता हूँ। बाक़ी चिट्ठियाँ अभी भी कुछ कम नहीं आती हैं।
ख़ुद आपकी ही कितनी चिट्ठियाँ आती हैं। आप जैसे कुछ लोगों को छोड़ भी दें तो सरकारी या औपचारिक टाइप के लिफाफ़े तो अभी भी जीना हराम किए रहते हैं। पर अब रस नहीं है चिट्ठियों में। पहले बड़ा रस रहता था उनमें। ऐसे-ऐसे पोस्टकार्ड मेरे इन्हीं हाथों से होकर गुज़रे हैं, जिन्हें फ़्रेम में मढ़ाकर रखने को जी करता था। लोग अपने आपको बिना किसी हिचक के खोल देते थे। अब तो फ़रेब ज्यादा है। आदमी कहता कुछ है, सोचता कुछ है और लिखता कुछ है।
आप तो लेखक हैं। ख़ुद से ही पूछिए कभी कि जो लिखते हैं—उसमें आप ख़ुद कितना भरोसा करते हैं?