क्या पता बच ही जाऊँ

हम इंटर में साथ में पढ़ते थे। बाद में कुछ ऐसा संयोग बना कि बीए और एमए में भी साथ साथ रहे। हम दोनों की रुचियाँ एक जैसी थीं। इसलिए हमारे बीच लंबी निभी।

जब हम इंटर में थे तब दोनों ही वेद प्रकाश शर्मा, सुरेंद्र मोहन पाठक और ओम प्रकाश शर्मा के दीवाने थे। इनकी अनुपस्थिति में हम दूसरे लेखकों की किताबें भी पढ़ ही लेते पर जो मज़ा इनकी किताबों में आता वह कहीं और नहीं था। ख़ासकर वेद प्रकाश शर्मा के थ्रिलर उपन्यासों का, जो ज़मीन से कई फुट ऊपर उठे होते। पढ़ते हुए दिमाग़ से भाप निकलने लगती।

बाद में दोनों को सुरेंद्र मोहन पाठक ज़्यादा पसंद आए जिनके उपन्यासों के किरदार ज़्यादा ज़मीनी थे। वेद प्रकाश शर्मा के किरदारों का गोली और बंदूक़ भी कुछ नहीं बिगाड़ पाते थे, जबकि पाठक के किरदार अक्सर पिट जाते थे। वे बिल्कुल हमारी तरह थे। सारी स्मार्टनेस और बहादुरी के बावजूद हम भी अक्सर पिटते ही रहते थे। यह भी एक बात थी जो हम दोनों को जोड़ती थी।

पर बीए के दौरान इस बात से निपटने के हमने अलग-अलग तरीक़े ढूँढ़े। मैंने कुछ दबंग लड़कों से दोस्ती गाँठनी शुरू की। मैं अक्सर उनके साथ दिखता। मैंने हमेशा यह कोशिश की कि विश्वविद्यालय में हर कोई यह देखे कि मैं कितने बदमाश लड़कों के साथ उठता-बैठता हूँ। लोग दब के रहें मुझसे। और काफ़ी हद तक यह हुआ भी। लोग दबने भी लगे मुझसे।

पर वह कभी नहीं दबा। न मुझसे न किसी और से। अक्सर वह मेरे मुँह पर ही कह देता कि ये जो तुम उन हरामियों के तलवे चाटते हो उससे क्या मिल जाता है तुम्हें! वह अभी नया-नया ही एक वामपंथी छात्र संगठन में शामिल हुआ था और तेज़ी से उनकी शब्दावली सीख रहा था। बुर्जुआ, सर्वहारा, बिचौलिया, छात्र एकता जैसे शब्द लगातार उसकी ज़बान पर बने रहते। मैं उस पर हँसता। वह मुझ पर तरस खाता। नाराज़ होता।

इसके बावजूद हम अक्सर एक दूसरे से मिलते-टकराते रहे। बचपन से लेकर अब तक की न जाने कितनी साझा स्मृतियाँ थीं जो हमें जोड़ती थीं। इसकी बावजूद दोनों की एक ऐसी भी दुनिया बन रही थी जिसमें दूसरे की पहुँच नहीं थी। जैसे पहली बार किसी अख़बार को पढ़ते हुए मैंने जाना कि वह कविताएँ लिखने लगा है। उसी तरह उसे भी मेरे एक प्रादेशिक चैनल में पत्रकार हो जाने की बात तब पता चली जब मैं उसके एक धरने की रिपोर्टिंग के लिए गया।

हम बहुत दिनों बाद मिले थे, पर पुरानी पहचान की एक हल्की-सी चमक दोनों के चेहरों पर थी। हम दोनों ने एक दूसरे को अपना नंबर दिया और जल्द ही बतियाने के वादे के साथ अलग हुए। जैसा कि होना था न उसका फ़ोन आया, न मैंने किया कभी। जल्दी ही मैंने राजधानी का सबसे तेज़ चैनल ज्वाइन किया और उस शहर से बाहर निकल आया। वह वहीं रह गया।

बहुत दिनों बाद जब उसका फ़ोन आया तो मैं अपने चैनल की तरफ़ से पश्चिम बंगाल में चल रहे एक सांप्रदायिक तनाव को कवर करने के लिए भेजा गया था। वहाँ पहुँचकर मैंने पाया कि वास्तविकता उसके ठीक उलट थी, जैसी कि तमाम न्यूज़ चैनलों पर दिखाई जा रही थी। मैंने यह बात अपने संपादक को बताई तो उसने एक बनारसी गाली देते हुए कहा कि तू जो बता रहा है वह बात किसको नहीं पता है, पर राष्ट्र का हित किस बात में है; हमें यह भी देखना है।

मुझे इस तनाव में म्याँमार से भागकर आए रोहिंग्या शरणार्थियों की संलिप्तता खोजनी थी। मुझे रोहिंग्या मुसलमानों और स्थानीय मुसलमानों के बीच के छुपे हुए सूत्र तलाशने थे। संपादक को गृह मंत्रालय के कुछ सूत्रों ने बताया था कि रोंहिग्या मुसलमान देश की एकता के लिए बहुत बड़ा ख़तरा साबित होने वाले हैं। वे कुछ बड़ा करने की योजना बना रहे हैं और पश्चिम बंगाल का ताज़ा तनाव तो एक बड़े सिलसिले की छोटी-सी शुरुआत भर है।

तो जब उसका फ़ोन आया तो मैं इस बड़े सिलसिले के सबूत खोजने में व्यस्त था। जल्दी-जल्दी में मैंने जो सुना वह यह था कि वह और उसके लोग मुसीबत में थे। वे शहर के बाहरी इलाक़े में कृषि भूमि पर एक केमिकल प्लांट लगाने का विरोध कर रहे थे। एक दिन भीड़ बेक़ाबू हो गई और उसने उस बन रहे प्लांट में तोड़-फोड़ की। प्लांट के मालिकों ने उस पर और उसके साथियों पर घातक हथियारों के साथ डकैती का मुक़दमा किया था।

वह अपने साथियों के साथ भागता फिर रहा था। उसे शक था कि पुलिस देखते ही इन सबका एनकाउंटर कर देगी। उसने सोशल मीडिया पर अपने कई वीडियो अपलोड किए थे और लोगों से समर्थन की गुज़ारिश की थी। बदले में उसका सोशल मीडिया एकाउंट फ़ेक मानते हुए बंद कर दिया गया था। वह चाहता था कि मैं अपने चैनल में किसी तरह से इस बात की संभावना बनाऊँ कि उसके फ़ेवर में एक पॉज़िटिव ख़बर चलाई जा सके।

मैं जानता था कि यह संभव नहीं है। यह संभव होता तो मैं यहाँ बंगाल में जो चीज़ कहीं है ही नहीं वह न तलाश रहा होता। दूसरे मुझसे यह उम्मीद करते हुए वह चैनल में मेरी हैसियत को महत्त्वपूर्ण मान रहा था कि मैं उसके लिए कुछ संभव कर सकता हूँ। मैंने उसका भ्रम नहीं तोड़ा, पर इस बारे में मेरे भीतर किसी भी तरह का कोई भ्रम नहीं बचा था। मैं जानता था कि चैनल में मेरी कोई हैसियत नहीं थी।

मैं तो यह भी जानता था कि रोज़ रात को शेर की तरह दहाड़ने वाला मेरा मालिक किसका कुत्ता था। पर यह बात उसे नहीं बताई जा सकती थी। तब वह इस बुरे हाल में भी मुझसे पूछ ही लेता कि मैं किसका कुत्ता था। ख़ैर, मैंने उसे आश्वासन दिया कि मुझसे जो भी बन पड़ेगा मैं करूँगा और मैं उससे जल्दी ही संपर्क करूँगा। उससे यह कहने के साथ ही मैंने उसका नंबर ब्लॉक कर दिया। ऐसा करते हुए मुझे बुरा ज़रूर लगा, पर जिन चीज़ों में उसने अपनी टाँग फँसा रखी थी; उससे मैं दूर ही रहना चाहता था।

फिर मैं उन तमाम कामों में व्यस्त होता गया जो मालिक मुझे सौंपता रहा। अपनी मेहनत और समर्पण के दम पर मैंने ख़ूब नाम कमाया। दिल्ली में मकान लिया। कई शहरों में प्लॉट लेकर छोड़ रखा है। दरअस्ल, यहाँ सब कुछ अचानक से कई बार इतना अनिश्चित-सा हो जाता है कि मैं नहीं चाहता कि इस अनिश्चितता की हल्की-सी भी आँच मेरे परिवार पर पड़े। परिवार का मुझमें जो भरोसा है, वह बचाए रखने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ।

मैं उसे भूल ही गया था। मुझे बस इतना पता चला था कि पकड़े जाने पर एनकाउंटर की उसकी आशंका ग़लत साबित हुई थी। उस पर बाक़ायदा डकैती का केस चला था और क़रीब पाँच साल बाद जब वह बाइज़्ज़त बरी हुआ था तब तक पूरे पाँच साल वह जेल में बिता चुका था। अब उसकी और मेरी दुनिया की विभाजक रेखा इतनी साफ़ थी कि उसके बारे में सोचने का भी कोई मतलब नहीं रह गया था। यह अलग बात है मुझे सोचने के लिए कहा गया।

मालिक ने एक दिन मुझे खाने पर बुलाया और उस घटना के बारे में विस्तार से बताया। संभवतः यह उस घरेलू माहौल का ही असर रहा होगा कि मैं यह बताने की ग़लती कर बैठा कि कभी वह मेरा दोस्त रहा था। मालिक यह बात सुनकर उछल पड़ा। उसने कहा कि इसका मतलब यह है कि मैंने एकदम सही व्यक्ति को चुना है। अब यह काम तुमसे बेहतर कोई और नहीं कर सकता। अब अपने दोस्त को इंसाफ़ तुम्हीं दिलाओगे।

मैंने कहा कि इंसाफ़ तो हो चुका। मालिक ने कहा कि यह तो पुरानी बात है जो सबको पता है। पर अब अपराध और इंसाफ़ का यह खेल नए सिरे से खेला जाना है। अपराध भी नए होंगे और इंसाफ़ भी नया होगा। अबकी बार यह इंसाफ़ हमारा चैनल करेगा। तुम्हारे दोस्त की क़ुर्बानी को हम बेकार नहीं जाने देंगे। हम लोगों को दिखा देंगे कि लोकतंत्र में मीडिया की क्या हैसियत होती है।

जल्दी ही मैंने मालिक की इंसाफ़ वाली भाषा के पीछे के सूत्रों को खोज निकाला। केमिकल प्लांट लगाने वाला उद्योगपति पिछले मुख्यमंत्री का मुँहलगा था। नए मुख्यमंत्री चाहते थे कि वे सारी बातें नए सिरे से उछाली जाएँ जिससे कि उस उद्योगपति के साथ साथ पूर्व मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ भी माहौल बने। उस ज़मीन पर उनके अपने उद्योगपति की नज़र थी। और इसमें हमारा वह पुराना दोस्त एक मोहरे की तरह इस्तेमाल होने वाला था।

मैं अपना काम शुरू करता इसके पहले ही उसके ऊपर कोई केमिकल फेंक दिया गया। वह जिसे बहुत पहले मैं जानता था, वह मांस के एक गलते हुए बदबूदार लोथड़े में बदल गया। ज्यादातर अख़बारों में यह पहले पेज की ख़बर बनी। इसी दिन सारे अख़बारों में आधे पेज का विज्ञापन छपा कि क़ानून और व्यवस्था सूबे के मुख्यमंत्री के लिए सबसे आधारभूत चीज़ है। जो भी इसके रास्ते में आएगा उसके ऊपर कड़ी कार्रवाई की जाएगी, चाहे वह कितना भी प्रभावशाली व्यक्ति क्यों न हो।

कई अख़बारों में इस केमिकल फेंके जाने की घटना के लिए इशारों इशारों में केमिकल कंपनी और उसके मालिकान पर शक ज़ाहिर किया गया था। कई अख़बारों ने इस केमिकल कंपनी की शुरुआत से लेकर उसका अब तक का इतिहास भूगोल छापा था। बॉक्स में यह भी बताया गया था कि मेरा पुराना दोस्त कैसे शुरू से ही कंपनी के मालिकों की आँखों में गड़ता रहा है और उसे रास्ते से हटाने के लिए कंपनी ने अब तक किस-किस तरह की गर्हित कोशिशें कीं।

सारा खेल एकदम साफ़ नज़र आ रहा था। मालिक के फ़ोन के साथ यह और भी साफ़ हो गया। मालिक ने बताया कि डॉक्टरों का कहना है कि तुम्हारे पुराने दोस्त के पास दस-बारह घंटे से ज़्यादा समय नहीं बचा है। इतने समय में उसके अंदरूनी अंग भी गलकर बहने लगेंगे। अब उसका मौत से बच सकना लगभग असंभव है। इसलिए यह ज़रूरी हो गया है कि हम इंसाफ़ की अपनी लड़ाई को तेज़ करें। वह तो अब मर ही रहा है, पर इंसाफ़ का तक़ाज़ा यह है कि हम दोषियों को कठघरे में खड़ा करें। इसके लिए हमें जो भी करना पड़े बेहिचक करना चाहिए।

इसके बाद मालिक ने वह कहा जिसकी वह भूमिका बना रहा था। उसने कहा कि हम तुम्हारे दोस्त की मौत लाइव दिखाएँगे। इससे जनता के मन में एक विद्रोह पनपेगा और तुम्हारे दोस्त को इंसाफ़ दिलाने में मदद मिलेगी। मैंने हमेशा की तरह मालिक की बात का समर्थन किया। इस बारे में मैंने बहुत पहले से अपने भीतर यह बात बिठा ली है कि मालिक के ख़िलाफ़ तभी जाओ जब नौकरी छोड़ने का मन हो या कि नौकरी छोड़ने पर नौकरी करने की अपेक्षा ज़्यादा फ़ायदा होने वाला हो।

मैं जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी उस मरते हुए आदमी के पास पहुँचना चाहता था। इसलिए मैं लाइव की रस्सी के सहारे सीधे उस कमरे में पहुँच गया जहाँ उसका इलाज चल रहा था। वह बहुत तकलीफ़ में था फिर भी मुझे देखकर तंज़ से मुस्कुराया। क्या पता यह मेरे ही मन का चोर हो जो कभी-कभी न जाने कहाँ से प्रकट हो जाता है। जो भी हो पर मैंने उसकी मुस्कुराहट का जवाब मुस्कुराहट से दिया। यह मेरी पेशेवर ट्रेनिंग थी। इसमें किसी सचमुच की तंज़ भरी मुस्कान के लिए कोई जगह नहीं थी।

वह जिस तरह से साँस ले रहा था यह अपने आप में हॉरर था। उसका चेहरा बदल गया था। नाक के आस-पास गाल इस तरह से सूजा हुआ था कि नाक सूजन में ही समा गई थी। नाक की बस नोक भर दिख रही थी। पूरे चेहरे से चमड़ी ग़ायब थी। उसका हाल लाइव करते हुए मुझे मालिक की बात याद आई कि यह इसकी आख़िरी घड़ी है। यह अब कभी नहीं उठ पाएगा। शायद यह अब कभी बात भी नहीं कर पाएगा।

मुझे लाइव करते देखकर बहुत सारे लोग इकट्ठा हो जाते हैं। ज़्यादातर तमाशा देखने आए हैं, पर कुछ हैं जो मेरे दोस्त के साथी हैं। वे लाइव का तार तोड़ते हैं और उसे लाइव से बचाकर कहीं और ले जाना चाहते हैं। मैं कहता हूँ कि कहीं भी जाओ पर अब तुम्हारा खेल ख़त्म है। यह कहते हुए मैं उसका नंबर डिलीट करता हूँ।

अपने दोस्तों के कंधे पर कमरे से बाहर जाते हुए, वह मेरी तरफ़ मुड़कर देखते हुए कहता है कि इतनी भी क्या जल्दी है दोस्त? क्या पता बच ही जाऊँ।

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पहला और दूसरा एकालाप यहाँ पढ़ें : उमस भरी जुलाई में एक इलाहाबादी डाकियासपनों वाला घर और मेरा झोला