ज़िंदगी के दिन देकर ज़िंदा रहने का मोह

10 अप्रैल 2020

शाम हो चुकी है और अपने डेरे पर लौटा हूँ। कुछ थका-सा, कुछ भूखा-सा। तत्काल तौर पर मैगी ने थोड़ी राहत दी। कल तालाब नहान के पश्चात वहाँ से निकला और संध्या-काल होते-होते राधोजी के खेत पर जा धमका था। फिर दोनों मित्रों की रात बड़ी रसरंजनयुक्त रही। देर रात तक जगराता करते हुए हम दोनों मित्रों ने क्रमशः मद्यपान, भोजन, पुनःमद्यपान, वार्तालाप और अंततः निद्राधीनता का सफ़र साथ-साथ तय किया था। सुबह जब नींद से जागे तब पता चला कि खब्बड़सिंघ (मेरा ऊँट) खेल कर गया है। रात को हम जब नींद में थे तब यह लंपट लौंडा किसी ऊँटनी के साथ भाग निकला था। पाँच मील दूर कोयला खदान के पास वह किसी ऊँटनी के साथ मस्ती करता हुआ खदान में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते राधोजी के भतीजे हेमराज को दिख गया था। हेमराज ने तत्काल राधोजी के सेल-फ़ोन पर कॉल करके यह सूचना मुझ तक पहुँचाई थी। मैं चाय पीकर फ़ौरन भागेड़ू प्रेमी-जोड़े के पीछे पड़ा।

ढाई-तीन घंटे की भागा-दौड़ी और सख़्त शोध-खोल के बाद खदान से कुछ दूर उत्तर दिशा-स्थित एक तालाब में उष्ट-युगल सहस्नान करता मिला। दोनों रति-क्रीड़ा का सुख भोगकर जल-क्रीड़ा का आनंद ले रहे थे। युवा ऊँटनी का सहवास करके खब्बड़सिंघ अधिक सुंदर और पाकट दिखने लगा था। दोनों को पानी से बाहर निकालने में मुझे कुछ मशक़्क़त करनी पड़ी, किंतु अधिक मुश्किल आई दोनों को अलग करने में। दोनों को जुदा करने में मुझे काफ़ी श्रम करना पड़ा और सख़्त होना पड़ा।

ऊँटनी के साथ रोमांस करने के चक्कर में खब्बड़सिंघ ख़ुद भी खाए-पीए बिना था और मेरा भी खाना-पीना आज मुहाल कर दिया था। संभोग के दरमियान काफ़ी उत्तेजना, आक्रामकता रही होगी। खब्बड़सिंघ के शरीर पर जगह-जगह ऊँटनी द्वारा काटे जाने के निशान पड़ गए थे। युवा ऊँटनी ने काफ़ी कसकर दाँत गड़ाए थे, कई जगह पर ख़ून फूट आया था। डेरे की और लौटते हुए वह बार-बार रुककर पीछे देखता रहा। कल रात के बाद मेरे पेट में कुछ ठोस खाना नहीं गया था। भूख, थकान और ऊर्जा की कमी के चलते मेरी हालत ख़राब हो गई थी।

मुझमें रात का खाना बनाने की न ऊर्जा थी और न मूड था, इसलिए रात के खाने के लिए राजूसिंघ को उसके घर से लाने के लिए सूचित कर दिया। खब्बड़सिंघ को भी खुला चरने न छोड़कर नीम के पेड़ से ही बाँधकर चारा नीर दिया। खुला छोड़ने पर वह फिर से उस युवा ऊँटनी के पीछे भाग जाता।

डायरी में जब ये ऊलजुलूल रेखाएँ खींच रहा हूँ, तब खाना लेकर राजूसिंघ अपनी मोटरसाइकिल लिए आ पहुँचा है।

12 अप्रैल 2020

कल पूरा दिन लेटे पड़े-पड़े सोता-सुस्ताता रहा। यूँ पड़े रहकर कुछ न करना ‘कुछ भी न करना’ नहीं होता। यूँ सोते-सुस्ताते हुए मैं अपने आप को पुनरोर्जित, पुनरोत्साहित और पुनर्गठित करता हूँ। यूँ ख़ुद को ‘रिचार्ज’ करके, मैं अपने आपको पुनर्जीवन देता हूँ। मौसमों की तरह बदलता, बँटा हुआ जीवन मुझे बहुत पसंद हैं। यूँ ही मैं अपने जीवन में वैविध्य, रस-रंग, उत्साह और आस्था बनाए रखता हूँ। मौसमों की तरह जिया जाता परिवर्तनशील जीवन ऊब, इकहरेपन और सड़न का ढेर जमा होने नहीं देता। जीवन में तरलता, गतिशीलता, तंदुरुस्ती, ताज़गी, रोमांच, लालसा और तारुण्य बना रहता है। इसी मौसमी जीवन रीति से ही मैं अपने जीवन को बचाए हुए हूँ और अपने जीवन के प्रति श्रद्धाशील बना हुआ हूँ। मन प्रफुल्लित और तन नव-ऊर्जा से संचित हो तो पखेरुओं की उड़ान-सी अनुभूति मिलती है। सब कुछ कितना हल्का, साफ़, सुरीला, मीठा है! पहले पहल जीवनानुभव जैसा…

खाना बनाना मेरे लिए सिरदर्द का काम है। हफ़्ते में मुश्किल से एक-दो बार ही यह खाना बनाने का पकाऊ उद्यम करता हूँ। मैं फल-सब्ज़ियों, दूध-दही और भीगे-फणगे हुए कठोल के सहारे ही रहता हूँ। ये सब सरलता से उपलब्ध हैं, सुपाच्य हैं और सबसे ज़रूरी कि इसमें बनाने-पकाने की बहुत सारी मेहनत से बचा जा सकता है। लंबे प्रवासों में कठोल मेरे लिए बहुत ही उपयोगी बने रहते है। चन्ने, मटर, मूँग या सोयाबीन को पानी में भीगे दो और ज़रा-सा मिर्च-मसाला-नमक छिड़ककर खा लो। सस्ती, सुलभ, सरल और ‘सॉलिड’ ख़ुराक!

गुटका, तंबाकू और बीड़ी-सिगरेट अब सोना-चाँदी बन चुके हैं। दस रुपए की विमल की पुड़िया अब दो सौ रूपए की मिलती है, पाँच रुपए में मिलती खैनी की पुड़िया के सौ रूपए लिए जा रहे हैं और बीड़ी-सिगरेट की तो और भी महँगी हालत है। जिन्हें गुटका, तंबाकू मिल नहीं रही या जो ख़रीद न पा रहे हैं; उनकी हालत तो बहुत ख़राब हो गई है। मोहन प्रतिदिन एक जुड़ी (बंडल) बीड़ी की लालच में पीरजी के घर पूरा दिन लकड़ियाँ चीरता रहता है। करशन जी ने प्रतिदिन दो विमल पुड़िया के हिसाब से भूरा और लाला से हफ़्ते भर में अपने घर के आँगन की पूरी चहारदीवारी चुनवा ली। बादल सेठ ने दस दिन में बुध्धा और पिग्गा से खैनी और खाने के बदले में पूरे पड़तर खेत की झाड़ियाँ कटवाकर साफ़ करवा लीं। गुटका-तंबाकूख़ोर लौंडे दिन भर मरियल कुत्ते की तरह पेट पकड़कर खटिया पर पड़े रहते हैं। बहुतों को दस्त लग गए थे और बहुतों को क़ब्ज़ हो गया था। बदहाल हुलिया और रोनी शक्लें देखकर उन पर करुणा उपजती थी। कुछ लोग रुआँसी शक्लें लेकर दुकानों, दलालों के चक्कर काटते रहते थे कि कहीं माल आ जाए और वह उनके हाथ लगे बिना निकल न जाए। दस गुना दाम देने पर भी माल नहीं मिल रहा था। जो कुछ माल आता वह बहुत कम मात्रा में और देर-रात को ही चोरी-छिपे आता था, क्योंकि अब पुलिस ने इस धंधे में धन देख लिया था। कुछ पुलिसवालों ने तो व्यापारियों से ज़ब्त किया हुआ माल कुछ दलालों के द्वारा बेचने का धंधा शुरू कर दिया था।

आज दुपहर एक मनोरंजक घटना घटी। मैं गाँव में टहलते हुए पीरजी के दुकान चला गया था। अमरसिंघ पीरजी को गालियाँ दे रहा था और वहाँ तमाशा देखने बहुत सारे लोग जुड़ गए थे। हुआ यूँ था कि रात को कुछ माल आया होगा जिसे पीरजी ने अन्य लोगों को दिया, पर अमरसिंघ को किसी कारण बीड़ी नहीं दी। बस, उसी बात को लेकर अमरसिंघ बिदक गया था। अमरसिंघ का कहना था कि वह इस लालची पीरजी की दुकान से पिछले पैंतीस साल से सारा राशन और माल-सामान ख़रीदता है, फिर भी इसने पैसे लेकर भी उन्हें बीड़ी नहीं दी और उनकी ‘एडवांस बुक्ड’ वह बीड़ी की जुड़ी किसी और को पीरजी ने निर्धारित भाव से दुगने दाम पर बेच दी। यूँ पीरजी ने अमरसिंघ से ठग्गी करके दुगने पैसे कमाने का गुनाह किया था, जिस पर अमरसिंघ का नाराज़ होना वाजिब था ही।

तमाशा देखनेवाले घटना का भरपूर मज़ा ले रहे थे। कोई ठकुरसुहाती करता, कोई मिर्च-मसाला मिलाता, कोई आग को हवा देता, कोई पानी डालने का प्रयास करता, कोई सिर्फ़ मज़े के लिए उँगली करता और कोई सुरक्षित दूरी पर दर्शक बना खड़ा पूरी फ़िल्म देखता रहता। इसी दौरान अमरसिंघ के किशोर भतीजे को अपना संघी शाखा संचालित, सोशल मीडिया माध्यम द्वारा अर्जित ज्ञान झाड़ने का मन किया। उसने किसी विद्वान की छटा से कहा कि पूरा देश कोरोना से लड़ रहा है, पुलिस और डॉक्टर सब जी-जान से लगे पड़े हैं और आप लोग हैं कि इस बीड़ी के लिए लड़े जा रहे हैं? शर्म आनी चाहिए आप लोगों को। आप लोग हमारे कर्मठ प्रधानमंत्री के भव्य पुरुषार्थ को मिट्टी में मिला रहे हैं? और कोरोना वॉरियर्स का हौसला पस्त कर रहे हैं? इस भाषणनुमा ज्ञान पर तालियाँ और वाहवाही की उम्मीद करता हुआ वह नव-संघी लौंडा ज़रा अपनी आभा और प्रतिभा पर मोहित होकर लोगों से अभिवादन के इंतज़ार में था कि अमरसिंघ का फटा, गंदा जूता दस फ़िट का फ़ासला नापकर सीधे सिर पर आन पड़ा। उस मनहूस व्यक्ति का नाम मत लो मेरे आगे—अमरसिंघ चीख़ा। जूता क्या चला कि सब में भगदड़ मच गई। वह नव-संघी लौंडा तो एक जूता खाकर ही पता नहीं कहाँ रफ़ूचक्कर हो गया था।

प्रधानमंत्री को मनहूस कहने के पीछे कहानी यह थी कि कभी अमरसिंघ बॉर्डर विंग में सिपाही हुआ करते थे। अब रिटायर होकर मज़दूरी और किसानी से अपना गुज़ारा कर रहे हैं। तत्कालीन गुजरात सरकार ने उन्हें सरकारी मुलाज़िम नहीं माना और न ही उन्हें कोई सरकारी मुलाज़िमत के तहत दिए जाने वाले लाभ दिए गए। बतौर अमरसिंघ वल्द सरदारसिंघ के मौखिक बयान के मुताबिक़ उन्हें सरकारी मुलाज़िमत के तहत दिए जाने वाले लाभ तो नहीं दिए गए, पर सरकारी मुलाज़िमत के तहत और बतौर एक नागरिक दिए जाने वाले सारे नुक़सान ज़रूर मिले। महज़ दिए जाने के इस आदर्श उपक्रम की परंपरा निभाने की भल-नियत के लिए भी उन्होंने सरकार का शुक्रिया अदा किया।

रात रामे के वहाँ बकरियों के बाड़े पर गुज़री। गुनेरी जाकर राधोजी से हथियाई ठरहे की बोतल रामे के हवाले कर अपने द्वारा किए गए वादे से छुटकारा पाया। ठरहे पर रामे ने पहले ज़रा अपनी नाक सिकोड़ी, पर अंततः उसका नरम दिल किसी तरह ठरहे पर पसीज ही गया! खारी-भात और ठरहे से रात कुछ देर तक रंगीन बनी रही। फिर हमारी बत्तियाँ बुझ गईं और अँधेरा छा गया।

13 अप्रैल 2020

निष्पक्षता में मेरा यक़ीन नहीं है। मैं सदैव अपने आपको किसी के पक्ष में खड़ा देखना चाहता हूँ। मैं अपना पक्ष न्याय-अन्याय, नैतिकता-अनैतिकता, सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, भले-बुरे, बड़े-छोटे, कम-ज़्यादा, दोस्ती-दुश्मनी, प्रिय-अप्रिय, अपराधी-निरपराधी के पैमानों पर नहीं चुनता। मैं अपने लोग चुनता हूँ और उनके साथ खड़ा रहना पसंद करता हूँ। मैं अपना सच चुनता हूँ फिर उसके लिए भिड़ जाना पसंद करता हूँ। मैं अपने लोगों का और अपने सच का पक्ष लेता हूँ। (मेरा सच किसी जड़तावादी की मूर्ख ज़िद भी नहीं है। मैं उसे बार-बार जाँचता-परखता रहता हूँ और उपयुक्त समझने पर बदलता भी रहता हूँ।) मैं शक्तिशाली के मुक़ाबले कमज़ोर के पक्ष में हूँ, फिर चाहे वह ग़लत क्यों न हो। मैं सत्ता के मुक़ाबले जन का पक्षधर हूँ, फिर चाहे वह अराजक क्यों न हो। समूह के सामने मैं अकेले का साथी हूँ, फिर चाहे वह हत्यारा ही क्यों न हो। धन के बनिस्बत धान का, शहर के बनिस्बत गाँव का, आग के आगे पानी का, तूफ़ान के आगे तने-डटे खड़े पेड़ का और महल के बरअक्स जंगल के साथ मेरी पक्षधरता है। मेरी आवाज़ भीड़ के शोर के साथ नहीं किसी अकेले की चीख़ के साथ है, मेरी वाणी सत्ता की प्रशस्तियाँ गाने के लिए नहीं उसे गालियाँ देने के लिए है। मैं निष्पक्षता की ढाल तले अपनी खाल बचाने से अधिक किसी पक्ष-विपक्ष में रहकर अपनी खाल उधड़वाना पसंद करूँगा; क्योंकि निष्पक्षता का ढोंग कायर, तमाशाई, स्वार्थी और शठ लोग अपने बचाव के लिए करते हैं और मुझे अपने को इनमें गिनवाना क़तई पसंद नहीं होगा। मैं पक्ष-विपक्ष-त्रिपक्ष में रह सकता हूँ, पर निष्पक्ष नहीं रह सकता।

सत्ता की बोटियों पर पलने वाले गुजराती के चापलूस और नकली कवि-लेखकों, मैं सड़क पर पैदल चल रहे, लाठियाँ खा रहे और भूख से मर रहे उन ग़रीब मज़दूरों, मजबूरों के पक्ष में हूँ। तुम्हारे सत्ताधीश आक़ाओं और तुम जैसे हरामख़ोरों के विरुद्ध हूँ, इसे ज़रा ठीक से याद कर लो। मैं हर बार, हर जगह तुम्हारे विरुद्ध हूँ, तुम्हारी सत्ता के विरुद्ध हूँ।

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मैं सरल से सरल भाषा में अपनी बात कहना-लिखना चाहता हूँ। क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके मुझे अपना पांडित्य सिद्ध नहीं करना और न ही अपने आपको विद्वान ठहराना है। सामान्य से भी सामान्य आदमी उसे पढ़-समझ सके, उसे वह अपनी ही भाषा लगे और उस भाषा से उसे डर, संकोच न हो यही मेरा प्रयास रहता है। उसे मेरी भाषा पढ़-सुन-बोलकर यह महसूस न हो कि वह एक भोट या मूढ़ व्यक्ति है। वह ऐसी भाषा हो कि किसान उसे धान की बालियाँ समझकर छू ले और ज़रा-सा तोड़कर मुँह से चख ले और कोई चरवाहा उसे अपने ढोर की हूँगार-फूँगार समझे और उसे अपने कंठ से सहज होकर गा सके। मेरी भाषा चिड़ियों की चहचहाहट से निकली हो, पशुओं के गलो की घंटियों की रणकार से निकली हो; किसानों, चरवाहों और मज़दूरों के गीतों-बातों से निकली हो। जिसमें हवा की सरसराहट, बारिश की गड़गड़ाहट, पेड़ों की फड़फड़ाहट और मिट्टी की चरचराहट हो। जिसमें स्पर्श और गंध की तरह विशुद्धता हो। वह हवा, धूप, जल की तरह सरल, सहज और सुलभ हो।

24 अप्रैल 2020

डोशल (कच्छ कवि माधव जोशी) की मृत्यु को आज तेरह दिन हो चुके हैं। कोरोना समय में उनकी न कोई लौकिक क्रिया रखी गई, न बारहवीं-तेरहवीं की गई। यूँ क्रियाओं-प्रक्रियाओं-प्रतिक्रियाओं का ऋणी हुए बिना ही चले जाना, चले जाने की क्रिया के महत्त्व को सही रूप में स्थापित करता है।

मैं मृत्यु के पश्चात भी कुछ दिन अपने में उन चले गए व्यक्तियों को ज़िंदा रखने का प्रयास करता हूँ। अपने भीतर उनकी स्मृतियाँ टटोलता हूँ, उनका चेहरा उकेरता हूँ, उनके बोले-लिखे गए वाक्य बुदबुदाता हूँ; उन्हें कहने से मुझसे बचे रह गए कुछ ज़रूरी बोल फुसफुसाता हूँ, उनके कल्पनीय-अकल्पनीय, वास्तविक-अवास्तविक संसार में प्रवेश करता हूँ। एक तरह से यह आत्मश्लाघा या बड़ाई मानी समझी-जाएगी, पर फिर भी कहूँगा कि मैं इस तरह ज़िंदगी के कुछ दिन देकर ज़िंदा रहने का मोह पालता रहता हूँ। लेकिन मैं बहुत स्वार्थी हूँ, दस-बारह दिनों से अधिक अपना जीवन किसी को नहीं दे पाता।

डोशल, मेरे बुड्ढे मित्र, अब अलविदा…

समाप्त

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