‘मैं अपने एकांत का रैडिकल इस्तेमाल करना चाहता हूँ’

देवी प्रसाद मिश्र से अविनाश मिश्र की बातचीत

शुरुआत को लेकर आपका स्वप्न क्या है?

शुरुआत को मैं घबराहट से जोड़ता हूँ।

आप कविता की दुनिया में कैसे आए?

फ़िल्मी गीतों के ज़रिए। मैं गाता भी था। मोहम्मद रफ़ी मेरे सबसे प्रिय साथी थे। मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी के गीत और नौशाद का संगीत सुनते हुए हम बड़े हुए। मैं अपने गायन की वजह से स्कूल-कॉलेज में नायक हुआ करता था। रफ़ी मुझे हीरो बनाते थे। मुझे पूरे गाने याद रहते थे—उनके मुखड़े, अंतरे और वे किस फ़िल्म से हैं और किसने उनमें बंदिश दी है, ये सब मुझे याद रहता था।

लेकिन अफ़सोस इस ओर मेरे पिता का ध्यान नहीं गया। मैं ये बातें इसलिए कह रहा हूँ कि मुझे लगता है कि कविता की जो ख़ूबियाँ हैं, उसके कहने के जो तरीक़े हैं… वे हम तक फ़िल्मों के गीतों के ज़रिए भी आए। उस दौर के सारे मशहूर शाइर फ़िल्मों के लिए लिख रहे थे। वे उर्दू अदब से आते थे और उसे बहुत बेहतर ढंग से जानते भी थे।

हिंदी फ़िल्मी गीतों में खोए रहने के मेरे काम-काज में कोई फ़ौरीपन नहीं था। इसमें एक सघन संलग्नता थी। मैंने कभी नहीं सोचा कि मैं जिसमें ख़ुद को इतना इंवेस्ट कर रहा हूँ, यह मुझे ले कहाँ जाएगा? अब मैं याद करता हूँ तो पाता हूँ कि मैंने बहुत सारा जीवन और वक़्त इसमें ख़र्च किया। अगर इसकी कोई पद्धति होती और मैं इस काम को उसमें ले गया होता तो मैं बड़ा गायक होता।

आप मूल रूप से एक कवि। आपसे यह जानने की इच्छा है कि कविता को सिनेमा में लाने की गुंजाइश कितनी है?

एक फ़िल्मकार के तौर पर मुझे सबसे बड़ी चुनौती यह लगती है कि कविता को किस तरह दृश्यांकित किया जाए। कविता और दृश्य के बीच की पारस्परिकता को मैं ख़ासे कौतूहल से देखता रहा हूँ। मुझे लगता है कि कविता को दृश्य में बदलने के प्रतिमान पश्चिमी नहीं हो सकते। पश्चिमी कवियों की कविताओं पर बनी फ़िल्में मुझे बहुत अमूर्त लगीं। मैं उनके इनर डायनामिक्स को नहीं समझ पाता। सच पूछिए तो मुझे पश्चिमी कविता का एक बड़ा हिस्सा भाषिक संरचना के अलावा कुछ नहीं लगता। इसीलिए वहाँ कविताओं पर बनी फ़िल्में भी मुझे प्रेरित नहीं कर पातीं। कविता को वीडियो आर्ट में बदलने की मेरी अपनी कोशिशें बहुत दिनों से चल रही हैं। अंततः मुझे कुछ ब्रेकथ्रू-सा होता दिखा है। प्रयत्न यह है कि यह काव्याधारित वीडियो आर्ट छद्म बौद्धिकता से मुक्त हो और उसकी प्रेरणाएँ और बिंब खाँटी हिंदी जातीयता के हों। लेकिन वह हिंदी फ़िल्मों के गानों की दुर्दशा के नर्क में भी न चला जाए।

अगर आपसे पूछा जाए कि आपका काव्य-मन है कि कथा-मन तो आप क्या कहेंगे?

अगर आप मुझसे पूछें तो मैं कहूँगा कि मेरा कथा-मन है। मुझे कहानियाँ सुनना, देखना और काफ़ी हद तक पढ़ना भी अच्छा लगता है। कविताएँ लिखने के बावजूद मेरी कहानी कहने की महत्वाकांक्षा नहीं, आकांक्षा कभी कम नहीं हुई। इसीलिए न केवल मैंने कहानियाँ लिखीं, बल्कि अब मैं कथात्मक फ़िल्में भी बनाना चाहता हूँ।

जब आप कविता से कहानी की दुनिया में आए, तब यहाँ के मूल निवासियों की इस पर क्या प्रतिक्रिया रही?

कवि कभी जब कहानी लिखते हैं तो खाँटी कहानीकार उन कहानियों को संदेह से देखते हैं कि उसमें कोई गहरी कमी ज़रूर होगी। हिंदी में कुछ ऐसा ही माहौल है। शायद यह वजह भी होगी कि मुक्तिबोध को कहानीकार मानने में पूर्णकालिक कहानीकारों को काफ़ी दिक़्क़त होती है। विनोद कुमार शुक्ल को भी बहुत काँखकर कथाकार माना जाता है, जबकि उनके दोनों उपन्यास और कहानियाँ हिंदी के व्यवस्थित और बेहतरीन कथाकारों के कामों पर बीस ही पड़ते हैं। कह लीजिए कि हिंदी कथाकारों में काफ़ी असुरक्षाबोध है, जबकि मुझे हमेशा यह लगता है कि कवियों के पास गद्य को सँभालने का बहुत आभ्यंतर टैलेंट होता है। क्या यही वजह है कि कथाकार कवि-कथाकारों से घबराते हैं।

इस मामले में एक बात का ज़िक्र भी करना चाहूँगा कि अमूमन हिंदी कवि हिंदी के कहानीकारों को बौद्धिकता में कमतर करके आँकते हैं। कवियों और कथाकारों के बीच में संवाद लगभग नहीं है। दोनों एक दूसरे को संदेह से देखते हैं। इस मामले में कम से कम दो कहानीकार ज्ञानरंजन और अखिलेश को तो मैं जानता हूँ जो कवियों को बहुत आदर और आकर्षण के साथ देखते हैं।

मुझे लगता है कि हिंदी के तमाम अन्य कार्यभारों में एक यह भी है कि कवि और कथाकार ज़्यादा मिलें और ज़्यादा एक दूसरे को सुनें और पढ़ें। यह इसलिए भी ज़रूरी है कि कविताएँ लगातार गद्य की ओर बढ़ रही हैं और कई कहानीकार ख़ासे कवितात्मक होते रहते हैं। कविता और कहानी के बीच की पारस्परिकता लगभग आवयविक है। इसे एक ओर निर्मल वर्मा ने और दूसरी ओर विष्णु खरे ने अपनी रचनाओं से प्रमाणित किया है।

जब आपके पास इतनी सारी बातें हैं कहने को और आप यह महसूस भी करते हैं कि इन्हें कहना ही चाहिए, तब अभिव्यक्ति के नए माध्यमों जैसे फ़ेसबुक या ट्विटर या ब्लॉग पर आप क्यों नहीं हैं?

वहाँ की manufactured सहमतियों से संदेह पैदा होता है। तात्कालिक वाहवाही या घनघोर निराशा। इस माध्यम को लेकर यह संदेह हैं जो आपको बता रहा हूँ। लगा कि मेरा रचनात्मक एकांत खंडित हो जाएगा। मैं मूलतः कवि हूँ जो अपने एकांत का रैडिकल इस्तेमाल करना चाहता है। लेकिन फिर भी वहाँ होने की बात मेरे मन में है।

आपकी सबसे यादगार यात्रा कौन-सी है?

हावड़ा से मालदा जा रहा था। उस छोटी-सी यात्रा में पता नहीं क्या-क्या हो गया। उस तरह का रेल का डिब्बा मैंने आज तक नहीं देखा। लग रहा था कि आप बरामदे में ख़ूब जगह में बैठे हैं। वहाँ बाउल गाने वाला आ गया। एक स्वाँग करने आ गया। मैं देवदास होने के अवसाद में चला गया। रास्ते में बोलपुर आया तो लगा कलेजा मुँह को आ गया। वह जगह वह थी जहाँ शांतिनिकेतन है। वह एक अंतर्यात्रा थी। सांस्कृतिक यात्रा भी। शायद आपको याद हो कि बंगाल के एक गाँव में था तो वहाँ से आपसे बात हुई थी।

मृत्यु से भय लगता है क्या?

मृत्यु को लेकर मेरा सबसे बड़ा डर उपन्यास से संबद्ध है। मुझे लगता है कि अगर मैं किसी दुर्घटना में मर गया तो आधे-तिहाई लिखे उपन्यासों का क्या होगा? इतना ही नहीं जो उपन्यास पूरा है वह कौन-सी प्रति होगी जिसे फ़ाइनल समझा जाएगा, क्योंकि मेरे उपन्यास के कम से कम एक हज़ार संस्करण कंप्यूटर में ज़रूर होंगे। मतलब जब भी मैं लिखता हूँ तो उसे एक नई फ़ाइल बनाकर सेव कर देता हूँ। जब यात्रा पर निकलता हूँ तो मैं दीवार पर उस फ़ाइल का नाम लिखता हूँ जो बिल्कुल ताज़ातरीन है। इस तरह हर यात्रा के पहले लिखने की मेज़ के ठीक ऊपर तीन-चार-पाँच फ़ाइलों के नाम मैं लिखता हूँ। उनमें कहानियों की फ़ाइलें होती हैं, उपन्यास की फ़ाइल होती है, और कई बार कविताओं की भी।

मुझे सबसे ज़्यादा डर विमान-यात्रा को लेकर होता है। मुझे लगता है कि उसमें मरने की आशंकाएँ ज़्यादा होती हैं, गोकि आँकड़े इन शंकाओं के विरुद्ध हैं। इसीलिए मैं यात्राओं को टालता हूँ। मैं हमेशा यह सोचता हूँ कि आदर्श दिन यात्रा का वह होगा जिस दिन मैं किसी कविता, उपन्यास या कहानी पर काम न कर रहा होऊँ। लेकिन उपन्यास इस डर से ज़्यादा जुड़ा हुआ है। शायद इसलिए कि उसमें बहुत मेहनत, बहुत संरचनात्मक अंतर्यात्राएँ, चरित्रों की जटिल उपस्थितियाँ पेच-ओ-ख़म के साथ मौजूद रहती हैं। कह लीजिए कि मैं ख़ुद से ज़्यादा उपन्यास की आकस्मिक मृत्यु से डरा होता हूँ, और इसलिए मैं यात्रा से अपने को विरत किए रहता हूँ। यह बात मैंने अपनी एक छोटी कहानी में कही भी है। मतलब कि एक बहुत छोटी कहानी इस पर लिखी भी है जो मृत्युबोध के आवरण में आशावाद की कहानी है।

असद ज़ैदी ने ‘ख़्वाजादास’ के नाम से कुछ छंद रचनाएँ की हैं। कृष्ण कल्पित, आर. चेतनक्रांति, स्वप्निल श्रीवास्तव, रामाज्ञा शशिधर और मृत्युंजय भी ऐसा कर रहे हैं, लेकिन आपको नहीं लगता कि अब देर हो चुकी है। पाठक अब हिंदी कविता से बहुत दूर जा चुके हैं।

देर तो कभी नहीं होती और पाठक तो विश्व कविता के लिए भी नहीं हैं। हिंदी कविता की जगह बहुत पहले ही हिंदी फ़िल्मों के गाने ले चुके हैं। ये गाने जनता के सुख-दुःख में शामिल हैं। उसमें कविता केवल श्रवण की चीज़ है। शब्द केवल यहाँ भर्ती के तौर पर हैं। यह संसार ध्वन्यात्मक है। यह धुन से संचालित है और इसे बस सुन लिया जाना है। लेकिन हिंदी कविता छंद में हो या नहीं, वह बहुत कम पढ़ी जाती है। इसलिए हमें इस मुग़ालते में नहीं रहना चाहिए कि छंद बहुत सारे पाठक बना देगा।

मैं जानना चाहता हूँ कि क्या हिंदी की जो छंद वाली कविता है, उसकी व्याप्ति बहुत है? इसलिए यह कहना कि छंद के लिए देर हो गई है, ठीक नहीं है। देर की बात करूँ तो वह इसलिए भी नहीं हुई है, क्योंकि हिंदी कविता हमेशा से विलंब से पहुँचने वाली एक स्त्री है, जिसका प्रेमी जा चुका है।

हिंदी में कुछ बड़ा क्यों नहीं हो रहा?

हिंदी का जिस तरह विकास हुआ है—जिन रास्तों, पगडंडियों, राजमार्गों और उपमार्गों से चलकर वह आती है; उन्हें देखें तो बहुत सारी बोलियों, उपबोलियों को नष्ट करने का प्रोजेक्ट ही हिंदी है। संपर्क भाषा के नाम पर, राष्ट्रभाषा के नाम पर, राजभाषा के नाम पर बहुत सारे जो हिंदी के क्षेत्रीय रूप थे, नष्ट होते हैं।

इसलिए जब आप हिंदी में बात कर रहे हैं, तो आप एक इंपीरियल लैंग्वेज में बात कर रहे हैं। इस भाषा का निर्माण राज्य-सत्ता और सामंत कर रहे हैं। गीता प्रेस से आती हुई जो शब्दावली है, वह इसका निर्माण कर रही है। अँग्रेज़ी के दलनकारी स्वरूप को हम बहुत आराम से साफ़-साफ़ देख लेते हैं। लेकिन हिंदी ने जो काम किया किया, वह ज़्यादा घातक काम है।

आदिवासियों की बोली को मटियामेट करने का काम अँग्रेज़ी ने नहीं, हिंदी ने किया है। जब ऐसी भाषा में कोई काम होगा, तो तमाम परंतुओं के साथ होगा। ये जो जाति है, वर्ण है, एकाधिकारवाद है, सामंतवाद है और इनके जो आग्रह हैं; वे इस भाषा में अनुस्यूत हैं। इस भाषा में आप आदिवास का डिस्कोर्स कैसे कर सकते हैं। यह एक ट्रैजिक स्थिति है। इसलिए इसका पूरा प्रोजेक्ट सीमित है। अस्ल में हिंदी का आदमी लिबरेटेड नहीं है। गए बीस वर्षों में देखें तो इस भाषा में कौन-सी ऐसी आह्वानमूलकता है, कौन-सा ऐसा इंटरवेशन है, कौन-सी ऐसी चीज़ है जो बिल्कुल नितांत हो, बिल्कुल अत्यंत हो, बिल्कुल समग्र हो जिसे हम हिंदी में संभव बना पाए। निरस्त करने की शब्दावली हमारे पास नहीं है। बहिष्कार की शब्दावली का भी घोर अभाव है। अस्वीकृति तो है ही नहीं हमारे यहाँ इसीलिए विद्रोही और असहमत व्यक्तित्व नहीं हैं। अगर हैं तो बहुत सीमित और बहुत कंप्रोमाइज़्ड हैं। एक आवाज़ जो तहस-नहस कर दे, सब कुछ सबवर्ट कर दे… कहाँ है?

हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या हमारे साहित्य में कोई स्ट्रीट लैंग्वेज है, क्या हम इसकी कोई पंरपरा बना पाए हैं; जबकि जितनी गलियाँ, जितने स्लम, जितना अपघाती जीवन हिंदी समाज जीता है… वह पूरी दुनिया में दुर्लभ है। इतनी आवाज़ों वाला समाज कहाँ है भला, लेकिन यह रिकॉर्डेड नहीं है। हिंदी में इन आवाज़ों का कोई रजिस्टर नहीं है। इसलिए हिंदी में कोई बड़ा काम होने की संभावना भी नहीं है।

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देवी प्रसाद मिश्र की अस्मिता एक विद्रोही और साधक रचनाकार की रही है। अपनी शर्तों और जोखिमों के साथ जीते हुए वह वरिष्ठ हुए हैं और उन्होंने अपनी इस अस्मिता को नष्ट होने से भी बचाए रखा है। मौजूदा रचना-संसार में यह बतौर एक रचनाकार ही नहीं, बतौर एक मनुष्य भी उनकी क़ाबिलियत का बयान है। उनसे और परिचय तथा उनकी कविताओं के लिए यहाँ देखें : देवी प्रसाद मिश्र का रचना-संसार