पुरानी उदासियों का पुकारू नाम

एक साहित्यिक मित्र ने अनौपचारिक बातचीत में पूछा कि आप महेश वर्मा के बारे में क्या सोचते हैं? मेरे लिए महेश वर्मा के काव्य-प्रभाव को साफ़-साफ़ बता पाना कठिन था, लेकिन जो चुप लगा जाए वह समीक्षक क्या! मैंने कहा कि मुझे लगता है : पीछे छूट चुकी धुँधली-सी चीज़, वह कुछ भी हो सकती है; छाता हो सकता है, पिता, टार्च या किसी निष्कवच क्षण की कोई नितांत मौलिक परंतु निरर्थक अनुभूति हो सकती है… वह उन्हें अश्रव्य आवाज़ में पुकारती है—हे… महेश! और महेश चौंक पड़ते हैं। उनकी यही चौंक, विगत में झिलमिलाती हुई उस चीज़ का दुर्निवार रहस्य, उत्सुकता, आत्मा पर उस अश्रव्य पुकार का नक़्श और फिर उलटकर उसी आवाज़ को अकनती आत्मा उनकी कविता है। मित्र समझदार थे, मुस्कियाने लगे। मैं असमंजस में छटपटाता हुआ चुप लगा गया। तब महेश वर्मा की कविताएँ एक साथ उपलब्ध नहीं थीं। आज उनका संग्रह—‘धूल की जगह’—उपलब्ध है। इसलिए कोई विश्वसनीय जवाब खोजना आसान है।

धूल की जगह │ स्रोत : राजकमल प्रकाशन

महेश वर्मा को पढ़ने के लिए एक तैयारी चाहिए? पहले बिज़ली, टेलीफ़ोन, गैस, इंटररनेट का बिल भर लीजिए। बच्चों की फ़ीस जमा करवाइए। नाते-रिश्ते में मँगनी-मरनी का न्योता-हँकारी कर लीजिए। घर में राशन-पानी, आलू-प्याज़ रख लीजिए। फिर जीवन के बेढब रोज़मर्रेपन को पार करके वहाँ पहुँचिए, जहाँ आपके गत्वर मानस तल पर इस सबकी सीलन और छायाएँ पड़ रही हैं। वहाँ महेश समझाएँगे कि यह सीलन हमारे ही जीव-द्रव्य की नमी है। छायाएँ प्रकाश का ही एक पहलू हैं। रोज़मर्रा की थकान मनुष्यता की थकान है। अब आप पाएँगे कि आपका दुख, उदासी और अकेलेपन का अनुभव आत्म-निरपेक्ष होकर जिज्ञासा का विषय बन गया है। यह जिज्ञासा स्वयं-संपूर्ण है। स्वयं में ही उद्देश्य। इस तरह आप अपनी ज़िंदगी में दुख, पीड़ा, उदासी भोगते हुए, यहाँ कविता में, उसे आत्मनिरपेक्ष होकर देख सकते हैं।

पाठक पाएँगे कि महेश वर्मा के यहाँ विगत और अनागत का फैलाव इतना ज़्यादा है कि समकाल अनुपस्थित-सा जान पड़ता है। उनके लिए समकाल वह मानस भूमि है, जहाँ विगत और अनागत एक-दूसरे में घुलते हैं। विगत की कोई घटना हमारे आज को प्रभावित करती है : “किसी की आवाज़ आज के नए घर में गूँजती है और हमारी आज की भाषा को बदल देती है।” हमारा आज बीते कल का ही सारभूत विस्तार है : “समकालीन उतना भी तो समकालीन नहीं है, एक लय का विस्तार है और इतिहास की शिराओं का हमारी ओर खुलता घाव है।” वहीं हमारा समकाल सिर्फ़ विगत का विस्तार नहीं है, यह अनागत का बीज-काल भी है : “कोई ऐसा दिन नहीं आएगा जिसकी धूप आज की धूप में शामिल नहीं।” इसे कविता ही देख सकती है कि “आज का भोजन करके आचार्य भविष्य की सींक से दाँतों में फँसा दाना निकाल रहे हैं” और “सपनों में खजूर खाते हरकारे नींद में मुँह चला रहे हैं।” इस तरह आप देखेंगे कि महेश भूत-वर्तमान-भविष्य काल के खंडित सामान्य बोध को तोड़ते हैं। वह इसे सागरवत सर्वदिशा-प्रवाही बनाते हैं। उनके संग्रह की कविताएँ इस कालबोध से गहरे प्रभावित हैं। इससे पाठक का कालबोध भी पुनर्संयोजित होता है। पाठक किसी आलोक-वृत्त की तरह अपने आत्मस्थान को घेरते काल की कल्पना करता है। उसे लगता है कि आत्मस्थान किसी मृदंग की तरह है—संवेदनक्षम और सूक्ष्मग्राही—जिस पर हर तरफ़ से चोटें पड़ रही हैं। गत, आगत, अनागत, घट्य, घटमान, मूर्त, अमूर्त, अनंत—हर तरफ़ से लगातार तरंगें उठती हुईं इस तरफ़ आ रही हैं। शायद इसीलिए ये कविताएँ किसी भावदशा में विरेचनात्मक भारमुक्ति लाने के बजाय अस्तित्व को वृहत्तर और मुक्त संदर्भों में परिभाषित होने का आनंद लाती हैं।

महेश की कविताएँ जिस युग-विस्थापित ज़मीन पर लिखी जाती हैं—वहाँ तक दुनिया की नमी, छाया, प्रतिध्वनियाँ, ऊदी घटाएँ तो आती हैं; लेकिन उसका दुस्साध्य हरहर प्रवाह और ठोस आकार नहीं आता। इसलिए कविताएँ समकालीन व्याख्या की संभावनाएँ रखते हुए भी सार्वभौमिक लगती हैं। इसकी उदासी किसी भी युग के व्यक्ति की उदासी हो सकती है। इसका अकेलापन व्यक्तिमात्र का अकेलापन है। ये कविताएँ स्मृतियों, स्वप्न, अनुभवों के निरंतर चलने वाले खेल को बहुत महीन ढंग से पकड़ती हैं। उल्लेखनीय बात यह है कि ये भावदृष्टि को सौंदर्यात्मक अनुभूति तक विकसित कर ले जाने में समर्थ हैं। पाठक परिचित होंगे कि व्यक्ति के भीतर उदासी धीरे-धीरे उतरती है। तनाव धीरे-धीरे बढ़ता है। अकेलापन, अलगाव धीरे-धीरे चढ़ते जाते हैं। जैसे-जैसे ख़तरे के निशान को पार करने लगते हैं, मन डूबने लगता है। ‘मन डूबना’ का मुहावरा इसी से बना है। महेश इसे कितना प्रभावकारी बना सकते हैं इसके लिए यह काव्यांश देखिए :

किसी पर्व की रात सिराए दीपक-सी
अब भी डगमग उतराती है आत्मा
इसी बढ़ते जल में।

इस बिंब में मुँह-मुँह भरी व्याकुलता है। महेश के यहाँ यह व्याकुलता सार्वजनीन है। बात एक ही है, अलग-अलग कविताओं में बस इसके रंग अलग हैं—अकेलापन, उदासी, शोक, अलगाव, अवसाद…, बल्कि कहिए रंग एक ही है उसके शेड्स अलग-अलग हैं। कहीं यह व्याकुलता पानी की तरह बढ़ती है, कहीं राख की तरह झड़ती है, कहीं सितारों की तरह डूबती है। यहाँ दुख के बाद सुख या उदासी के बाद प्रसन्नता नहीं आती। यहाँ दुख के बाद दुख, उदासी के बाद उदासी आती है और उसके बाद भी दुख और उदासी ही आती है। यहाँ प्रसन्नता उदासी को नहीं सँभालती, बल्कि पिछली उदासी ही नई उदासियों के लिए जगह बनाती है :

पुराने मृतकों के लिए, पुराने नागरिकों के पुराने शोक उन्हें जगह देते हैं
जैसे पुरानी धूल जगह देती है नई धूल को
पुरानी सीलन नई नमियों को।

जानने वाले जानते होंगे कि महेश वर्मा स्वयं एक संजीदा चित्रकार भी हैं, परंतु इस संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए लगता है कि हम गणेश पाइन की दुनिया में आ गए हैं। शायद इसलिए कि महेश की कविताओं में पाइन की तरह ही उदासी और अवसाद स्थायी भाव की तरह मौजूद है। शायद इसलिए भी कि पाइन की तरह ही महेश की उदासी और दुख इतिहास-निरपेक्ष व सार्वकालिक लगता है।

यह संग्रह पढ़कर कोई यह प्रश्न पूछ सकता है कि क्यों ये कविताएँ हमारे सामाजिक अस्तित्व के बारे में कुछ नहीं बतातीं। पता ही नहीं चलता कि इनके युग की दुश्वारियाँ कौन-सी हैं। उपलब्धियाँ कौन-सी हैं। क्या अकुलाहटें हैं उस युग-जीवन की। क्या समाधान है इस सबका। इसका कारण यह है कि महेश अपने सामने की दुनिया रचने के बजाय घिसी हुई यादों, पुरानी उदासियों और संभावनाओं के खेल को भावाकुल संवेदना में बदलने की कोशिश करते हैं। परंतु हमारा जीवन अनंत घात-प्रत्याघातों से घिरा हुआ है, ऐसे में क्या हम उसे मात्र भावाकुल संवेदना से समझ सकते हैं? यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि अगर कविता हमारे अस्तित्व को उसके ठोस कारणभूत संदर्भों के साथ विश्वसनीय ढंग से परिभाषित नहीं कर सकती तो वह अपना अपेक्षित मूल्य भी नहीं पा सकती। यही महेश के साथ हुआ है। महेश में बहुत महीन संवेदनतंत्र है और वैसी ही अंतर्निवेशी दृष्टि। लेकिन ऐसा क्या है कि महेश मन को टेरते, घेरते तो हैं, लेकिन कोई सक्रिय दृष्टिबोध देकर जीवन की तरफ़ उछाल नहीं पाते? इसका कारण यह है कि महेश न अपनी अनुभूतियों का कोई ठोस संदर्भ मानते हैं, न मुक्ति की कोई ठोस ज़मीन।

हमारे मनोभाव अपने समय की विचारधारात्मक निर्मितियों से प्रभावित होते हैं। इसका बाहर के वैचारिक-विमर्श से बहुत गहरा संबंध होता है। बिना वैचारिक संदर्भ के हमारा अस्पष्ट कुहरीला संवेदन स्पष्ट मनोभाव में बदलेगा ही नहीं। इसलिए जब तक कोई अपने मनोभावों के वैचारिक पक्ष को नहीं समझता, तब तक अपने मनोभावों को भी सुसंगत ढंग से नहीं समझ सकता। और न ही मनोभावों के बाहर झाँक सकता है। इसका यह भी मतलब है कि मनोभावों के वैचारिक सार को पहचाने बिना न काव्य प्रभाव में धार आएगी, न अभिव्यक्ति में सफ़ाई। कुछ कविताओं में, ख़ास तौर पर गद्य-विन्यास वाली कविताओं में, जहाँ महेश अनुभूति व मनोभावों की वैचारिक निर्मितियों को छूते हैं, वहाँ गज़ब की सफ़ाई और प्रभावशीलता है। ‘विवाह’, ‘अंत की ओर से’, ‘अगर यह हत्या थी’, ‘जनदर्शन’, ‘बर्फ़घर’ आदि कविताएँ ऐसी ही हैं। जहाँ ऐसा नहीं हुआ है, उन कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे एक मनोदशा के बिंबों को गाँज दिया गया है। ऐसी कविताएँ भी कम नहीं हैं। और उन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है कि महेश इतिहासमुक्त मनोभावों के दबाव, उसके सम्मोहक राग और एकालाप को ही कविता समझ रहे हैं और डर रहे हैं कि इस मुलायम दबाव और सम्मोहक राग को ठोस संदर्भों में विश्लेषित करते ही उनका आत्मस्थ रचनात्मक केंद्र ही छिन जाएगा। कई कविताओं में स्वयं महेश इस मनोभावात्मक संवेदना के घिराव से निकालना चाहते हैं, लेकिन बे-रास्ता कैसे निकलेंगे! वह किन्हीं क्षणों में यह महसूस करते हैं कि ‘इतिहास उत्तापहीन हो चला है और कविताओं के खोखल से सिर्फ़ हवाओं की साँय-साँय सुनाई देती है।’ कोई न कोई महेश से भी पूछ ही लेगा कि—तो आपकी कविताएँ इतनी उत्तापहीन क्यों हैं?

महेश ऐसी कथा लिखना चाहते हैं जिसकी ‘पंक्तियों के बीच रिसते ख़ून से चिपचिपा जाए उँगली पृष्ठ पलटते। न हो भले ही कथा का शीर्षक—रक्तपात।’ वह कवियों से पूछते हैं :

क्या उन्होंने लिख लिया यह अँधेरा
जो हमारे भी बीच फैला है।

क्या वे लिख पाए दुख
जो अब भी आंतरिक से अधिक बाह्य बचे हुए हैं चारों ओर
ठोस शारीरिक दुख जो छूकर
देखने की ज़द में हैं—जैसे अपने ही माथे का खुला घाव।

वह अँधेरा जो हमारे बीच फैला है, वह दुख जो आंतरिक से ज़्यादा बाह्य है, वह पीड़ा जिसे माथे पर खुले घाव की तरह महसूस कर सकते हैं; क्या यह सब कहा जा रहा है? महेश यह सब कह भले न पा रहे हों, लेकिन उनमें इतनी आत्मालोचना है। वह आत्मजिरह में उतरने का नैतिक विवेक रखते हैं। इसी विवेक और सच्चाई से नई दिशाओं में प्रस्थान के रास्ते खुलते हैं। महेश वर्मा की पीढ़ी में अनेक कवियों के चार-चार संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं, जबकि महेश का यह अभी पहला ही संग्रह है। इसलिए चार संग्रहों के समेकित समीक्षात्मक कड़ाई से इस एकमात्र संग्रह को देखा गया है। महेश वर्मा हिंदी के विशिष्ट और उल्लेखनीय कवि हैं। मेरी इस समीक्षा को भूल जाइए। यह संग्रह पढ़िए।