साथ एक बड़ी चीज़ है
दिन : एक
10 नवंबर 2020
भाई के आरटी-पीसीआर टेस्ट के ‘पॉज़िटिव’ आने के बाद घर में हम सभी ने टेस्ट करवाए। कल हम सब बिरला मंदिर गए। वहाँ दिल्ली सरकार का कैंप लगा है। हम पाँच लोगों में से मेरा टेस्ट पॉज़िटिव आया। यह टालने वाली आदत है और जो सामने है, उसे देखने से बचना है, इस बात को अनदेखा करने के पीछे की एक वजह रही। जब पैदल हम सब लोग जा रहे थे, दिमाग़ में कुछ भी चल नहीं रहा था। सोच भी नहीं पा रहा था। आगे क्या होगा। उन पाँच मिनटों में जब पता नहीं था, क्या हो रहा है, तब फ़ोन के कैमरे से मंदिर की फ़ोटो खींच रहा हूँ। कभी इधर से, कभी उधर से। शून्य से शुरू हुआ यह सब, रिपोर्ट के आने तक चला। वह लड़की पीपीई किट पहने हुए ही बाहर आई और बताने लगी सभी रिपोर्ट नेगेटिव है, बस आप ‘पॉज़िटिव’ हैं।
अब क्या होगा? तुम्हारे कैसे यह आ गया? इन प्रश्नों के जवाब नहीं हैं। बस जो था, वह यही था।
हम सब पैदल ही वापस आ गए। लौटकर मैं थोड़ी देर छत पर बैठा रहा। उसके बाद नीचे जहाँ भाई है, वहीं आकर बैठ गया। यहाँ कमरे के बाहर सोफ़ा है। जिसकी गद्दी पता नहीं कहाँ है। मैं यहीं बैठा-बैठा सोचता रहा। आगे के दिन कैसे होने वाले हैं। घर में सब क्या सोच रहे होंगे। दोनों लड़के अब नीचे हैं। यह वाला हिस्सा कमज़ोर करेगा। इसलिए कुछ कहना या सोचना नहीं चाहता। घर में सब यही मान लें कि हम दो हफ़्ते के लिए कहीं बाहर चले गए हैं। पर अस्ल में ऐसा होता कहाँ है। बस इस बात का सुकून होगा कि पहले एक था तब ध्यान यहीं लगा रहता था, अब दो हैं तो एक-दूसरे को सँभाल लेंगे। साथ एक बड़ी चीज़ है। यही सोचना ठीक होगा।
दिन : दो
11 नवंबर 2020
कल जब मैं यहाँ नीचे आया, तब एक सोफ़ा, जो दीवार के सटाकर रखा हुआ था, उसे बंगाली स्कूल की तरफ़ कर दिया है। यह एक सीमा रेखा है। इसके इधर हम और दूसरी तरफ़ बाकी दुनिया। अभी सोना है। यहाँ फ़ोल्डिंग चारपाई है। पापा का मफ़लर लपेटकर रात सो जाता हूँ। स्वेटर पहले ही मँगवा लिया था। उसे पहन लेता हूँ।
दिन : तीन
12 नवंबर 2020
कल दुपहर तक स्वाद चला गया। यह खाना खाते वक़्त पता चला। कढ़ी खाते हुए कुछ अलग लगा हो, कह नहीं पाऊँगा। बस कढ़ी के पुराने स्वाद की स्मृति पर इस कढ़ी को खा गया। मन को लगने नहीं दिया कि यह बेस्वाद है—कढ़ी है—मेरी मनपसंद। ऐसा कैसे हो जाने देता। रात रही-सही कसर रोटी और सोयाबीन आलू की सब्ज़ी ने पूरी कर दी। सोयाबीन हमारे यहाँ जब तुम होती हो तभी बनता है अक्सर। तो इसका कोई स्वाद तो मेरे पास था नहीं। जितना दो-चार छह बार का याद आता रहा, उससे काम नहीं चल पाया। तब भाई और मैंने एक साथ कहा—खा लेते हैं, कोई स्वाद तो होगा ही इसमें।
अभी सैनिटाइज़ को हाथ पर मलकर देखा और उसे सूँघने की कोशिश की। कल जो चीज़ों को बहुत पास लाने पर थोड़ी-थोड़ी गंध महसूस हो रही थी, वह अब बिल्कुल जा चुकी है। कल रात इवेपोराइज़र में मेन्थॉल कैप्सूल डालने के बाद उसकी गंध कम थी। तब सोचा कि एक घंटा हो गया कैप्सूल पानी में डाले। हो सकता है, इतनी देर में वह अपने आप उड़ गया हो। पर अभी थोड़ी देर पहले यह तय हो गया—कुछ दिन अब सूँघने को भी नहीं मिलेगा।
मेरे मन में छुट्टियाँ नहीं थीं, ऐसा नहीं है। वे हर हफ़्ते दो दिन की फ़ुर्सत के साथ आ रही थीं। जैसे मशीन हो जाती है, जितना सुना, उतना किया अपना दिमाग़ नहीं लगाया। ऐसे में हम ख़ुद को ‘आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस’ से पहले वाली मशीनों में तब्दील कर लेते हैं। भारत जैसे समाजों में ख़ुद से सोचने वाली मशीनों की संभावना ही कहाँ है। इस तरह आराम करने की कौन सोचता है। सारा दिन दीवारों के बीच रहो। मन किया तो बाहर छोटे से गलियारे में टहल लिए और वापस इस खोह में लौट आए। बाहर चारपाई पर दुपहर के खाने के बाद लेटा रहता हूँ, पर मन कमरे में आने के लिए बेतरह होता रहता है।
वैसे इस बीमारी में जो सब लोग अपने घरों में हैं, उसके पीछे परिवार की बनी हुई व्यवस्था न हो, तो काम चल ही न पाए। सब कुछ कितना सलीक़े से लगता है। हम तो यहाँ हैं, सिर्फ़ क़यास और अंदाज़ लगाने से उस तैयारी को देख भी नहीं पाते। एक वक़्त तो ऐसा आता है, जब लगने लगता है, क्या यहाँ बैठकर सिर्फ़ किसी की तीमारदारी का फ़ायदा उठाते जाएँ। उसकी मेहनत, उलझन और झुँझलाहट ज़रा भी दिख नहीं पाती। जो हमें उत्पाद की तरह दिख रहा है, उसमें प्रक्रिया का लोप इसी तरह समझ पाया हूँ।
दिन : चार
13 नवंबर 2020
भाई शनिवार रात और मैं मंगलवार दुपहर से जिस जगह हूँ, यह वही मंजिल है, जहाँ हम तीन साल पहले तक रहते थे। जहाँ अभी बैठा लिख रहा हूँ, यह हमारे घर के बिल्कुल बग़ल का कमरा है। कई सालों तक उस एक कमरे वाले घर में बने रहे। अब जबकि तीन साल बाद इसी मंज़िल पर आए हैं, तब इसकी किसी चीज़ से कोई अपनापन झलक नहीं रहा है। जगह उसी शक्ल में रहती तभी तो अपनी लगती। पर न दीवारें वैसी हैं, न दरवाज़े। समान जो दूसरों की शक्ल में कबाड़ था, इस जगह को बनाता था। दूसरों के लिए बेकार, किसी काम का न होना, हमारे आस-पास बिखरा हुआ था। लोहे के रैक, लकड़ी की दीमक से बच गई अलमारियाँ, बारिश-गर्द-ज़ंग से बच जाने वाला एल्म्युनियम का शीशे सहित दरवाज़ा। नैतिक शिक्षा संस्थान की चारपाइयाँ, छोटी लोहे की अलमीरा।
यह सारा सामान, टीन के नीचे उस छोटी-सी कुर्सी पर बैठे हुए मुझे दरवाज़े के बाहर दिखाई देता था। वहाँ बैठकर यही सोचता रहता, कभी तो यह सारा समान यहाँ से हट जाएगा। तब खुली जगह होगी। कुछ देर चारपाई डालकर उस पर लेट जाऊँगा। लेटे-लेटे आसमान का नीलापन कुछ मेरी आँखों में भी आ जाएगा।
दिन बीतते गए। ऐसा कोई दिन नहीं आया। उल्टे हमें कमरा छोड़ने के लिए कहा गया। कहा गया—जाकर ऊपर रहिए। हम तीस साल जिस एक छत और आधी टीन वाले घर से निकले और ऊपर की मंज़िल के कमरे में आ गए।
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बहुत दिनों से कुछ बातें डायरी में लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। सब उसी भागदौड़ में हो ही नहीं पाया मुझसे। कभी कहीं पहुँचने की जल्दबाज़ी रहती, कभी कहीं पहुँचने की हड़बड़ी। अपने लिए वक़्त निकाल कर बैठता तो सिर्फ़ सोचता। क्या सोचता। यही कि यह वक़्त जो बीत रहा है, बीत जाए। कभी फ़ुर्सत होगी, तब लिखूँगा। उसके बाद जैसा कि होता है वक़्त, फ़ुर्सत, सुकून कुछ मेरे हिस्से आ ही नहीं पाया। जो थोड़ा बहुत वक़्त मिलता भी उसे सीआईईटी से आए हिंदी के ‘वीडियो रिव्यू’ करने में ख़र्च कर देता।
ऐसा वक़्त इस तरह मिलेगा, यह चाहा नहीं था। कौन ऐसा समय चाहेगा। बहरहाल। पता नहीं इस बात को कितनी बार अपने मन में दुहरा चुका हूँ। नाना-नानी कभी दिल्ली नहीं आए। न आने में उनकी इच्छा रही होगी, यह कहीं प्रकट नहीं हो पाया है। वह चाहते थे और नहीं आ पाए या नहीं चाहते थे और नहीं आए। इन दोनों ही बातों को कभी घर पर पूछा नहीं। क्या होगा पूछकर। क्या पता इस सवाल को कभी सवाल की शक्ल में पूछा ही न गया हो? नाना-नानी ने कभी इस विषय पर बात ही न की हो। तब क्या होगा। एक शून्य से अच्छा है, कल्पना के किसी धागे को पकड़कर कहीं चल पड़ा जाए। कोई सूत्र या बिंदु उठाकर कुछ कहा जाए। एक कविता जैसी पंक्तियाँ मन में उमड़ घुमड़ रही थी—‘सड़कें तब भी बन नहीं पाई थीं, तब भी सड़क दिल्ली तक ज़रूर आती रही होगी।’ मैंने इन्हें लिखकर काट दिया।
जो घटित हुआ है, जो घटित नहीं हुआ है, उसके बीच कुछ अवकाश तो मेरी कल्पना भी चाहती है। कहीं किसी मुँडेर से होते हुए कुछ तो अपना बुन पाऊँ। जैसे कितने दिनों से मेरे मन में एक दृश्य बार-बार कौंध रहा है। शायद कौंधना भी वह शब्द न हो, जिसे अपने अंदर महसूस कर रहा हूँ। वह कुछ ऐसा भाव है, जहाँ एक धूल भरी ज़मीन पर पंजों की छाप दिखाई दे रही है। इस छाप में पंजों को ध्यान से देखने पर दिखता है, उस पर वज़न पड़ा है। बाहरी वज़न नहीं। ख़ास तरह से चलने का एक ढंग। क्योंकि तलवे के बीच का हिस्सा हर छाप में बहुत कम है और एड़ियाँ तो ऐसे आई हैं, मानो वह धूल को छू भर पाई हों और अगला क़दम रख दिया हो।
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साढ़े छह बजे बहन ने ऊपर से वीडियो कॉल किया। मम्मी-पापा तुम सब बारी-बारी से आए। आज छोटी दीवाली है। थोड़ी देर पहले अभी तुम आई थीं और यहाँ मुँडेर पर दीपक और मोमबत्ती रख गई हो। कल हम इस दरवाज़े पर भी दीप जलाएँगे। फ़ोन पर पूछा तो पता चला कि अभी तक कोई लड़ी निकाली नहीं है। पापा बोले—कल लगाएँगे।
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स्मृतियों में जाना बेतरह विकल कर जाता है। कल से ही न जाने कितनी सारी बातें याद आ रही हैं। ऐसा नहीं है, वह बीत गए दिन भूल जाता है कोई। कभी-कभार सब ऊपर-नीचे होकर सामने आती रहती हैं। उन्हें भी नहीं पता कौन-सा दृश्य मुझे दिख जाएगा। वह बस ऐसी ही हैं। मेरी इस भाषा की तरह। गद्य की भाषा की तरह। कितने दिन बाद भी लिखना शुरू करूँ, उसका एक ढंग या ढाँचा है जो वापस आता रहा है। कुछ कर भी नहीं सकता इसमें।
यह नवंबर तब ज़्यादा खुशनुमा था, जब यह स्मृति में रहकर अपने वर्तमान में बीत रहा था। कल ये दिन नहीं रहेंगे, इतना सोच भी लेते तब भी उस समय से कट नहीं सकते थे। उसका ताप अपनी तरफ़ खींच ही लेता। जैसे कोई दोपहर होती और घर का सामान पंखे के बिल्कुल नीचे इकट्ठा दिखाई देता। दीवार पर नाम के लिए ही सही, पीले रंग का चूना मिली सफ़ेदी हर साल इसी तरह आती। यह दिन चूने की महक लिए होता। अभी सफ़ेदी सूखी नहीं है। हम स्कूल से लौटे हैं। अभी बस्ते किसी कोने में छोड़ आए हैं और दीवार पर कहीं-कहीं हाथ लगाकर देख रहे हैं। नमी बची हुई है। यह भी रात भर में सूख जानी चाहिए।
वार्षिकोत्सव जब हो जाता था, तब गुरुकुल दाधिया का जलसा होता था। दाधिया, अलवर में एक जगह है। पता नहीं कितने साल हो गए हम वहाँ नहीं गए। एक दौर था, जब हर साल बग़ल वाले स्कूल की मेटाडोर हम सभी लोगों को इतवार की सुबह दाधिया गुरुकुल ले जाती थी। कभी ऐसा भी हुआ कि हम एक दिन पहले भी वहाँ पहुँच जाते थे। रात वहीं रुकते थे। उन दिनों की तो धुँधली-सी छवियाँ ही दिखाई दे रही हैं। बस जो दृश्य नज़र आ रहे हैं, उनमें एक तरणताल है। जिसके चारों कोनों में यज्ञ वेदी बनी हुई है और पूर्णाहुति होने वाली है।
एक मेला-सा लगा हुआ है। शहर की स्त्रियाँ तब तक शहर में रोपी नहीं जा सकी हैं, इसलिए बथुए और सरसों के साग की तलाश में गाँव वालों के खेतों की तरफ़ मुड़ चुकी हैं। गाँव वाले उन्हें कुछ कहते नहीं हैं, बल्कि हम भी ऐसा कितनी बार हुआ उनके कहने पर चारपाई पर बैठे और ताज़ा मट्ठा पीकर वापस कार्यक्रम में लौट आए।
इतने सालों बाद लगता है जैसे अभी तो हम वहीं थे, उस समय से इस कमरे में कैसे लौट आए। ये यादें दिमाग़ कभी-कभी सुन्न कर देती हैं। जैसे अभी हो गया है। किसी तार को छेड़ कर कोई कैसे पीछे हट सकता है। जो भाव नहीं भी लिख पाया या उस तरह न भी कह पाया हूँ, वे सारे पल एक साथ इकट्ठा होकर दिल में दिमाग़ में चक्कर लगाने लगे हैं। आप एक बार इस प्रक्रिया को शुरू तो कर सकते हैं, पर यह ख़त्म कब होगा, कोई नहीं जानता।
ये बातें अगर अपने बचपन के साथियों या माता-पिता से कहूँगा, तब वे इन पंक्तियों को सिर्फ़ पंक्तियों की तरह पढ़ेंगे या सुनेंगे नहीं। उनके अपने अनुभव और संवेदनाएँ उनके साथ जुड़ती जाएँगी। हो सकता है, जिसका आपकी दृष्टि में कोई मूल्य न हो पर जिसने वह वक़्त जिया है, जो उसका साक्षी रहा है, जिसके अनुभव में वे दिन आए हैं, उसके लिए यह बात बहुत भावुक कर जाने वाली गली की तरह खुलता हुआ रास्ता हो सकती है।
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दिन : पाँच
14 नवंबर 2020
अगर यह तब का समय होता और हमें यह कमरा मिल चुका होता। तब यहीं कमरे से बाहर निकलते ही तो वह टीन थी, जिसके सहारे रंग-बिरंगी लड़ियाँ लगा देता था। दीवाली यहीं होती थी हमारी। जितने भी साल यहाँ थे, यही हमारा कोना था। सबको हमारी उपस्थिति ही रच रही थी। कहाँ क्या रखना है, क्या नहीं रखना है, सब हमने तय किया। जगह में सजीवता उस जगह रहने वाले लोग लाते हैं। सतह पर यह जितना एकतरफ़ा लग रहा है, उतना है नहीं। हमें भी यहाँ रहने की स्वतंत्रता में यह अंतर्निहित था। एक दिन आया, जब कह दिया गया, घर ख़ाली करना है। हम मना नहीं कर सकते थे। वह जगह छोड़कर एक मंज़िल ऊपर चले गए। ऊपर जाने का मतलब था, उस जगह के लिए ख़ुद को हटा लेना। ऐसे में कुछ तस्वीरों को ले पाया, जिसमें एक तो बहुत ही ख़राब है। उसमें हमारी अलमारी जो हमारी थी, उसमें ईंट भरकर ख़त्म कर दिया। नहीं भी किया हो तब भी पता नहीं क्यों मुझे यही लगता है। ऐसा करना मेरे लिए कल्पना के अवकाश को नष्ट कर देना है। मज़दूर के लिए यह किसी आदेश का पालन है।
दिन : छह
15 नवंबर 2020
किसी भी दिन की सबसे बड़ी ख़ूबी यही है कि वह कभी लौटकर नहीं आता। अच्छा हो तब भी, बुरा हो तब भी। हर दिन अपने आपमें एक नया दिन है। उसका बासीपन हमारे मन में है और उसका कल से बिल्कुल अलहदा हो जाना भी हमारे मन पर निर्भर करता है। स्मृतियाँ यहाँ हमारे काम आती हैं या वह हमारा काम बिगाड़ देती हैं, यह तय कर पाना एक दिन का हिसाब-किताब नहीं है। बहुत मुश्किल है इसे समझ पाना।
यह तस्वीर जो ऊपर दिख रही है, मन मेरा इसी पर अटका हुआ है। किसी बारिश के दिन की है। साल याद नहीं आ रहा। फ़ोटो की ‘प्रॉपर्टी’ में जाकर देखा तो तारीख़ 22 अक्टूबर 2017 बता रहा है। जबकि मई में हम ऊपर शिफ़्ट हो चुके थे और सामने दिख रहा स्थापत्य और उसका अवकाश अब कहीं नहीं था।
आज भी बारिश हुई है।
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विजय वर्मा ‘मिर्ज़ापुर’ के दूसरे सीजन में पहली बार दिखे हैं। पहले भी कहीं छुटपुट देखा होगा, पर अभी याद नहीं आ रहा कहाँ। साल भर या उससे भी पहले का ‘नेटफ्लिक्स’ एक विज्ञापन है। सबकी जेब में ‘नेटफ्लिक्स’। पैक की क़ीमत से ज़्यादा उसका प्रेजेंटेशन याद रह जाता है। ‘पप्पू पाकिट मार’ जब लोगों की जेब तराशता है, तब उसे बटुए की जगह बहुत अलग-अलग सामान उनकी जेब में मिलता है। चूँकि वह बटुआ या पैसा नहीं है और आकार में बहुत बड़ा है, इसलिए उसकी पिटाई भी होती है और वह अंततः चोरी छोड़ देता है।
इस विज्ञापन को अपनी यादगारी के लिखना ज़रूरी है। बाद में देखेंगे, इसका क्या किया जा सकता है।
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अब तीन दिन से यह रोज़ सुबह का रूटीन हो गया है। सुबह नाश्ते के वक़्त हम एक फ़िल्म लगाएँगे और उसे देखेंगे। आज NH-10 फ़िल्म की बारी थी। बिना कोई रेटिंग, बिना किसी रिव्यू को पढ़े हम फ़िल्म देखते हैं। हॉलीवुड की फ़िल्में कुछ जम नहीं रही हैं। ‘हंगर गेम’ लगाई थी। पाँच मिनट के बाद बंद कर दी। कल दीवाली पर शाम को सात से आठ बजे ‘जामतारा’ : सबका नंबर आएगा (वेब सीरीज़) देखने बैठे। एक घंटे बाद बंद कर दिया। आज सुबह हर्षद मेहता की ‘स्कैम 1992’ लगाई। दस-पंद्रह मिनट देखने की कोशिश की और फिर बंद कर दी। मुझे यह जानना था की एसबीआई में शरद बेल्लारी कौन था? क्या यह कोई ‘विसल ब्लोअर’ था या ऐसे ही कोई ‘फ़िक्शनल कैरेक्टर’ है? इंटरनेट भी कुछ ज़्यादा बता नहीं पाया। हो सकता है, पहचान का कोई मसला हो। पता नहीं।
जारी…
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