याद करने की कोशिश करता हूँ तो याद आता है
दिन : चौदह
23 नवंबर 2020
जो सारा खाना दूध सहित अभी पेट से निकल गया, इसने पिछली रात भी दिमाग़ ख़राब कर रखा था। करवट-करवट रात के दो बज गए। कोई तरकीब काम नहीं आई। ढाई बजे के बाद अपने आप इंतहा हुई और नींद न जाने किस पल आ गई। सारा दिन ऐसा लगता रहा जैसे बहुत ठंडी है। पैर मोज़े के अंदर भी भीग रहे हों जैसे। इतने नहीं पर पसीने के कारण जितनी ठंड लग सकती है, उतना तो हुआ लगता ही रहा।
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दिन : पंद्रह
24 नवंबर 2020
क्या इन बीत गए दिनों में किताबें नहीं पढ़ी जा सकती थी? यह सवाल सहज होता तो पहले दूसरे या तीसरे दिन तक लिख जाता। लगता है, यह एक सीमा के बाद बहुत ही नक़ली और बेमानी-सा सवाल है। आप ऐसी जगह हैं, जिससे आप निकालना चाहते हैं। जिस मनोदशा से गुज़र रहे हैं, वहाँ शरीर की अपनी सीमाएँ हैं। यही सीमाएँ मन को रच रही हैं। देह आराम चाहती है। उसे दिमाग़ उतना ही चलाना है, जिसमें कोई अतिरिक्त श्रम न करना पड़े। सहायक इंद्रियों पर कोई काम बोझ न बन पाए, इसका ध्यान रखा जाना चाहिए।
हो सकता है, इन सबके बीच कोई पढ़ भी रहा हो। अपनी सीमाओं के परे जाकर उसे पढ़ना बहुत ज़रूरी लग रहा हो। मेरे पास जो फ़ुर्सत रही उसे जिस तरह लिखने में डाल दिया करता हूँ, उसमें भी तो यही मूल प्रश्न है। आप क्या करना चाहते हैं और क्या नहीं करना चाहते। सब इस पंक्ति की तरफ़ स्पष्ट और सुलझा हुआ है।
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आज पालक पनीर का पूरा स्वाद आया। अभी हाथ में संतरे की महक बनी हुई है। ठंड भी आज कम ही लग रही है। पीछे दो दिनों के मुक़ाबले वह काफ़ी कम है। बस पैर में पहने मोज़े में पसीने के बाद पैर थोड़ा ठंडा लगने लगता है। बाक़ी आज दुपहर में उसी निर्देशक की फ़िल्म देखी, जिसने ‘शटर आईलैंड’ बनाई है। इस फ़िल्म का नाम था—‘डिपार्टेड’। समझ आया कि ज़रूरी नहीं उसकी हर फ़िल्म उस तरह से आपको लगे जैसी पिछली फ़िल्म लगी थी। क्रिस्टोफ़र नेलोन बहुत कम लोग बन पाते हैं।
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अभी शाम को जब चाय नहीं आई थी, उससे पहले दीपक पांडे के बारे में सोच रहा था। बड़े स्कूल में उसके पिता काम करते थे। वहाँ पहरेदार थे। चौकीदार शब्द के इस्तेमाल से बच रहा हूँ, यह साफ़ है। वहीं पीछे उन्हें रहने के लिए जगह मिली हुई थी। हम जब स्कूल में पढ़ते थे, अपनी गर्मियों की छुट्टियों में शहतूत खाने के लिए उस पेड़ तक जाया करते थे। पहले से ही वहाँ ज़मीन पर बहुत सारे शहतूत बिखरे रहते थे। हम उन्हें बटोर कर प्लास्टिक की थैलियों में इसलिए नहीं रख पाते थे, क्योंकि तब प्लास्टिक की थैलियाँ इस तरह सुलभ नहीं थीं। हम एक फूल की बड़ी-सी पत्ती को तोड़ते और उसे कूपे की तरह इस्तेमाल करते। जब हम बहुत सारे शहतूत इकट्ठा कर लेते, तब हमने से ही कोई कहता इतने शहतूत खाने से पेट ख़राब हो जाएगा। तब तक हम उसे पानी में भिगोकर साफ़ कर रहे होते। लाल, गुलाबी, सफ़ेद न जाने कितने रंग एक साथ उस पानी में उभर आते।
यहीं सबसे पहले दीपक पांडे दिखा। वह भी हमें देखता ही था। हमारा उससे किसी भी स्तर पर कोई संवाद कभी नहीं हुआ। बाद के दिनों में जब क्रिकेट खेलने के लिए बड़े स्कूल के कंक्रीट के उस मैदान पर जाने लगे तब भी नहीं। वह और उसकी छोटी बहन वहाँ आकर कुछ देर हमें देखते और चले जाते। कभी दीपक ने हमारे साथ खेलने की इच्छा प्रकट की हो, याद ही नहीं आता। वह कभी हमारे साथ खेला ही नहीं। जबकि हमारी और उसकी उम्र में बहुत अंतर नहीं था। वह रहा होगा मोहित की उम्र का। तब भी वह हमारे साथ नहीं खेला।
उसके पिता को हमारे पिता जानते हैं। वह गोंडा के ही थे। अंकल को देखकर लगता कि वह मितभाषी हैं। बहुत कम बोलते हैं। कभी लगता यहाँ शहर में एक जगह जहाँ उनके बच्चे पढ़-लिख जाएँ, वह इतना भर ही चाहते हैं।
अभी पीछे एक दिन हमारा केबल नहीं आया। हमने केबल वाले को फ़ोन किया। एक दिन, दो दिन, तीन दिन। ऐसे पाँच-छह दिन बीत गए। टेलीविजन जितना भी हमारे यहाँ देखा जाता था, सब रुक गया। जब लगभग छह सात दिन बीत गए, तब एक शाम केबल वाला अपने एक लड़के (कर्मचारी) के साथ आया। उसने कहा पीछे स्कूल में पंडीजी ने घर ख़ाली कर दिया है न, तभी लगता है कोई तार टूट गई है और इसलिए केबल नहीं आ रहा है।
पहले तो समझ नहीं आया कौन पंडीजी रहते थे—पीछे स्कूल में? दिमाग़ किसी नाम और छवि को सोच पाता तभी पापा बोले : ‘‘शिव कुमार चले गए क्या?’’ दीपक पांडे के पिता का नाम शिव कुमार ही है। वह चले गए? कहाँ? जिस परिवार से हमारा कोई भी सीधा-आड़ा-तिरछा किसी भी तरह का कोई संबंध नहीं था, उनके यहाँ से जाने पर पता नहीं मन कैसा हो गया? सालों-साल बिना बात किए निकल गए, तब भी उनको लेकर पता नहीं क्या है, जिसे अपने अंदर महसूस कर रहा हूँ। यह क्या है? इसका कोई मानवीय पहलू तो ज़रूर होगा।
याद करने की कोशिश करता हूँ तो याद आता है, एक बार अभी छह-सात महीने पहले जब यह सब शुरू नहीं हुआ था, तब उसे सड़क पार करने के बाद पैदल पंचकुइयाँ रोड की तरफ़ जाते हुए देखा था। उम्र तो हम सबकी बढ़ रही है, वह भी शायद उस उम्र में तो आ ही गया था, जब वह नौकरी करने लगा था। शादी भी हो गई थी, ऐसा लगता।
अब वह कहाँ होंगे, इस प्रश्न के उत्तर के लिए किससे पूछूँ, कुछ समझ नहीं आता। यह सवाल मेरे लिए सवाल ही क्यों है? क्या इसे सवाल की तरह लिखा भी जाना चाहिए था? पता नहीं। यह शायद घूम-घूमकर अपनी ही कही बातों को कह जाना है। कुछ लोग सिर्फ़ दिखते रहें। हम उनके लिए और वह हमारे लिए बस ज़िंदगी में इतने कम होते हुए बहुत कुछ होते हैं। यह दिख जाना आदत नहीं है। एक आश्वस्ति है। तुम हो। मैं हूँ। हम सब यहीं हैं। यह वक़्त इसी तरह गुज़र रहा है, जहाँ जीने के लिए इतनी पहचान भी कभी-कभी काफ़ी होती है। हमें लगता है कि जब कभी हम बात करेंगे तो कुछ भी अपरिचय नहीं रह जाएगा। सब साझा ही तो था—अबोला, अनकहा—पर साथ-साथ।
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आज शाम इसी लैपटॉप में अगस्त, 2019 की तस्वीरें देख रहा था। गाँव ही हमारे लिए वह जगह है, जहाँ हम जाते हैं। यह हमारा घर वह जगह ही नहीं है, जहाँ कोई वहाँ से आना चाहता है। ऐसा क्यों है कि इसका बहुत ही सरल-सा उत्तर है। जड़ें चाहे जैसी भी हैं, जोड़े रहती हैं। मैं तो एक दिन उनके बारे में सोचता हुआ उनकी दुकान पर चला गया। वह बैठे कभी इकौना जाती सड़क को देखते तो कभी खुटेहना की तरफ मुड़ रहे दुनक्के की तरफ़। वह कितना पढ़कर भी वहीं अपनी सारी छटपटाहट, बेचैनी, कुंठित हो गए मन, अधमरे सपनों को लिए रोज़ गल्ले पर आ जाते हैं। किराने की दुकान वह सपनीली जगह तो नहीं रही होगी। जहाँ उन्होंने पहुँच जाना तय किया था। उनकी आँखों में झाँक नहीं पाता हूँ। हिम्मत नहीं होती है। डर जाता हूँ, वहाँ सपनों को मरते हुए देखकर।
उन तस्वीरों में वह नहीं थे, पर जगह थी। वही सड़क। वही ठहरा हुआ समय। सब आ-जा रहे हैं। पर कहीं पहुँच नहीं पा रहे हैं। ये आँखें सिर्फ़ मैंने उनके पास नहीं देखी। वहाँ से निकल जाने की छटपटाहट वहाँ पीएचडी के काम (फ़ील्ड वर्क) शुरू करने के बाद बहुत आम है। निकल कोई नहीं पाता, यह बात अलग है।
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उन्हें देखते हुए अपने मोबाइल की गैलरी में झाँका। कुल मिलाकर दो फ़ोटो। दोनों में ‘कनकासव’ की शीशे वाली बोतल को हाथ में ऐसे पकड़े हुए हूँ कि उसके नाम पर ट्यूब की परछाई न पड़ जाए। जिसे भेजनी थी, उसे मुँहज़बानी बता दिया और इन तस्वीरों को खींचने का मक़सद पूरा हो गया। दृश्य यहाँ आकर कितना सिमट गया है। कुछ भी तो नहीं है जिसकी तस्वीर को आने वाले कल में एक स्मृति की तरह याद करने के लिए अपने पास रख लूँ। ऐसा नहीं है कि मैं इस जगह को लेकर बहुत व्यक्त हो रहा हूँ। नहीं। यह तो वह जगह है, जिसने हमें इतने दिन रहने दिया। यह वही जगह है, जिसको लेकर हमारी सब स्मृतियों को मिटा दिया गया है। यहाँ आकर जो नमी हमारे हृदयों में दुबारा उग आई है, उसका क्या करें? उसे किसी के सामने लाने से अच्छा है, उसका इशारा करके आगे बढ़ जाऊँ।
उन्हीं तस्वीरों में सुरेश भी दिखे। रीता की शादी है। द्वार-चार पर सब बाहर खड़े हैं। पंडित जी वेदी पर बैठे हैं। अभी वर-पक्ष का स्वागत होने वाला है। सुरेश ने भी एक माला अपने हाथ में ले रखी है। उसके मुँह को देखकर लग रहा है, अंदर ही अंदर वह पान चबा रहा है। इस शादी के महीने भर में ही वह नहीं रहा। इसके बाद तो जैसे कुछ लिखने को बचता ही नहीं है। मैं कितनी बार इन सालों में कोशिश करता हूँ और हार जाता हूँ। कुछ नहीं कह पाता। जो मेरे भीतर है, वह जैसे संदीप के पास रह गए कजरौटे की तरह हो गया है। एक ही स्मृति बची है। वह कजरौटा।
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ये सारी बातें कुल मिलाकर कुछ-कुछ उस दिशा में बढ़ती जा रही हैं, जिसमें हर व्यक्ति का अपना दौर उसके आस-पास एक परिवेश को बनाता है। उसे उसकी जान-पहचान वाले लोग उसके साथ मिलकर निर्मित करते हैं। कम से कम इसमें तीन पीढ़ियों के लोग ज़रूर शामिल होते हैं—एक हमसे बड़े, एक हमसे छोटे, एक हमारे बराबर। हम अपने बचपन में जिन लोगों को उनके बुढ़ापे में देखते आए हैं, वे धीरे-धीरे पर्दे के पीछे नेपथ्य में जाते रहते हैं। उनकी यह दीर्घ अनुपस्थिति हम तब समझ पाते हैं, जब वे हमें अपनी स्मृतियों से भी ग़ायब होते हुए लगते हैं। यह एक शृंखला है। अनवरत इसमें लोग आते-जाते रहते हैं। हम किन्हीं आत्मीय जनों से बहुत भावनात्मक रूप से जुड़े होते हैं। उनकी अनुपस्थिति ही हमें सबसे ज़्यादा खलती है।
हो सकता है, एकबारगी मैं जो कहना चाहता था, वह नहीं भी कह पाया हूँ। लेकिन इस सबमें मेरा दिमाग़ इतना भर दिया है कि बाबा या ननकू चाचा या सुरेश के न होने का एहसास जिस तरह मुझे छू पाता, वह इस भरे हुए दिमाग़ ने कभी होने नहीं दिया। मेरे दिमाग़ में वे अभी सिर्फ़ नज़रों से ओझल हैं। दिमाग़ को शायद यह लगता है, एक बार जब वह सामने आ जाएँगे, तब सब ठीक हो जाएगा। जबकि कहीं न कहीं मुझे पता है, अभी दिमाग़ उस तरफ़ न जाकर पीएचडी ख़त्म कर लेना चाहता है। वह मुझे कुछ और सोचने भी नहीं देना चाहता।
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दिन : सोलह
25 नवंबर 2020
चाहे जितने भी दिन हो, एक दिन सब ख़त्म हो जाते हैं। ख़त्म होने के सिवा उनके पास कोई और चारा भी तो नहीं होता। यह समय कभी रुकेगा? हो सकता है, कोई कहीं कल्पना करके थोड़ी देर के लिए ऐसा कर पाए। उस कल्पना के बाहर ऐसा होता हुआ नहीं लगता। सब इसी धरती के घूमने के बाद सुलझ जाता है। कहीं कोई प्रश्न, शंका कुछ भी आड़े नहीं आता। यह निरुत्तर होने और सब प्रश्नों के उत्तर मिलने जैसा वाक्य बन गया है।
कल भाई के आइसोलेशन का आख़िरी दिन था। आज सुबह उठकर नया और अपना टेस्ट करवाने बिरला मंदिर गया। पहले तो उन्होंने कहा कि सत्रह दिन के बाद यह करवाना ज़रूरी नहीं है। उसके बाद बोले आरटी-पीसीआर ही कर रहे हैं। रिपोर्ट दो तीन दिन में आएगी। जब कहीं किसी दफ़्तर में इसको लेकर कोई स्पष्टता नहीं है और सब कह रहे हैं टेस्ट दुबारा करवाने की ज़रूरत नहीं है तो भाई लौट आया।
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वह थोड़ी देर घर पर रहा और दुपहर के खाने से पहले नीचे यहाँ कमरे में वापस आ गया। मैं कहीं अकेला न महसूस करूँ। यही वह सोच रहा था। खाना खाने से पहले जॉनी डेप की ‘सीक्रेट विंडो’ मैंने अकेले देख ली थी। कुछ ख़ास फ़िल्म नहीं थी। सब उस लेखक की अपनी बनाई दुनिया थी। साल 2018 में केके मेनेन की एक फ़िल्म आती है—‘वोदका डायरीज’। वैसे इस बॉलीवुड हिंदी फ़िल्म में ‘शटर आईलैंड’ भी थोड़ी मिली हुई थी।
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इस पड़ाव का अब एक दिन बचा है। यहाँ से अब निकलना है। हमारी उपस्थिति जो इस जगह को बना रही है, वह हमारे जाने के बाद हमारे लिए अनुपस्थित हो जाएगी। यह वैसा का वैसा ही हमारे मन में बना रहेगा। जो समान हम ऊपर से नीचे इन सत्रह दिनों के लिए लाए थे, वह अब धीरे-धीरे समेटकर वापस ले जाना है।
यह हमें देखना होगा, इन दिनों के लिए हमने किसे अपने साथ लाना ज़रूरी समझा। किसे नहीं। बहुत ज़्यादा चीज़ें तो ये हैं नहीं—दो लैपटॉप, नहाने का साबुन, चड्ढी-बनियान, ब्रश-टूथपेस्ट, भाप लेने के लिए इवेपोराइज़र, कुछ दवाइयाँ, पानी पीने के लिए गिलास, सैनिटाइज़र, शीशा-कंघी-तेल, लिखने के लिए काग़ज़, पानी गरम करने के लिए इलेक्ट्रिक कैटल, कुछ फल : केला-सेब-संतरे, नींबू, ग्लूकॉन-डी, कनकासव।
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दिन : सत्रह
26 नवंबर 2020
सब का एक आख़िरी दिन होता है। यह डायरी भी अपने आख़िरी दिन तक आ पहुँची है। क्यों इसे लिखने का निर्णय किया और क्यों लिखता रहा, यह कोई प्रश्न नहीं है। जो काग़ज़ पर इस गति से कभी न लिख पाता, उसे यहाँ कह पाया हूँ, यही सोच रहा हूँ। इन दिनों को कितना कह पाया और कितना साथ लिए चल रहा हूँ, ये दोनों बहुत अलग-अलग बाते हैं। कोई क्या ही कर सकता है—इन दोनों ही अनुभवों का। मैं भी कुछ ज़्यादा करने की स्थिति में नहीं हूँ। भाषा की सीमाओं को जितना जान पाया, उसमें यह भी एक बात है, जिसे हमें जानना चाहिए।
कुछ भी नियत नहीं है। किसी भी घटना का कोई वक़्त तय नहीं है। हमारा जीवन पृथ्वी के अक्ष की तरह भी नहीं माना जा सकता। यह जीवन भी अप्रत्याशित है और संभावनाओं से घिरा हुआ है। यहाँ कभी भी कुछ भी हो सकता है। जैसे कभी सोने में ही वक़्त बीत जाना एक रूमानी ख़याल की तरह हमें पानी में तैरा ले जाए।
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यहाँ से निकलने के कैसे-कैसे ख़याल मेरे मन में आए यह मुझे नहीं पता। सोचता रहा, बस एक दिन तो यहाँ से चल ही पड़ना है। उससे पहले यह दृश्य मेरे मन में कई बार घुमड़ा होगा। मैं छत पर रात के न मालूम कितने बजे अकेले घूम रहा हूँ। रात की ठंड है। अँधेरा है। कोई नहीं है। सड़क से भी कोई आवाज़ नहीं आ रही है।
इसके साथ ही यह सोचता रहा, जब पहली बार यहाँ से बाहर निकलूँगा, तब शिवाजी स्टेडियम जाकर ख़ूब सारी पत्रिकाएँ लेकर आऊँगा। पता नहीं मेरे पीछे कितने अंक आ गए होंगे। एक बार ‘सेंट्रल न्यूज़ एजेंसी’ भी जाना तो बनता ही है। वहाँ भी तो कई बार कुछ रह गया मिल जाता है।
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अभी टाइल पर चाँद की झिलमिलाती परछाई देखी। थोड़ा आगे बढ़ा और अब मैं चाँदनी के नीचे था। मुझे चंद्रमा को देखने के लिए अपनी गर्दन ऊपर उठानी पड़ी, तब जाकर वह मुझे दिखा। थोड़ा बादलों में छिपा हुआ-सा। थोड़ा तिरछा। थोड़ा श्यामल और थोड़ा धुँधला-सा। ऐसे ही एक दिन सूरज की रौशनी में अपनी हथेली को थोड़ा आगे बढ़ाकर उसकी तपिश को महसूस करना चाहा। हाथ को लगा ही नहीं कि यह सूरज है और धूप में आना किसे कहते हैं। वह इतने दिनों में पहली बार था, जब कुछ पलों के लिए सूरज की तपिश को छुआ था।
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आज दुपहर अधूरी छूटी हुई फ़िल्म ‘मॉनसून वेडिंग’ देख ली। इसमें भी तिलोत्तमा शोम हैं। फ़िल्म जब ख़त्म होने को थी, तब मुजफ़्फ़र अली की पहली फिल्म ‘गमन’ का गाना ‘आजा साँवरिया तोहे गरवा लगा लूँ’ बैकग्राउंड से उभरते हुए सुनाई देता है। पूरी फ़िल्म में सुखविंदर का ‘अज मेरा जी करदा’ जिस तरह से आया है, वह अल्टीमेट है। दुपहर ही मोबाइल में देख रहा था तो अभिषेक बच्चन के गेट अप की बहुत चर्चा सुनाई दे रही थी। वह ‘कहानी’ की ‘स्पिन ऑफ़’ फ़िल्म ‘बॉब बिस्वास’ की शूटिंग कर रहे हैं।
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इस सबमें एक बात जो बार-बार रह जा रही है, वह है—गंध की बात। जब हम किसी गंध को महसूस नहीं कर रहे थे, हमारी नाक के लिए वह ग़ायब हो गई। तब भी वह वहीं थी। वह हमेशा से वहीं थी। बस हमें लग नहीं रही थी कि वह है। यह धोखे जैसा ही कुछ है इसके बावजूद वह हमेशा हमारे पास ही थी। वर्ण जब नाक जब दोबारा सूँघ पाने में सक्षम हुई, तब उसे तुरंत ही गंध महसूस हुई वर्ण वह तो कहीं होती ही नहीं और कभी नाक तक आती ही नहीं।
समाप्त
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