‘भक्त भगवानों से लगातार पूछ रहे हैं कविता क्या है’
एक
व्योमेश शुक्ल के अब तक दो कविता संग्रह, ‘फिर भी कुछ लोग’ और ‘काजल लगाना भूलना’ शाया हुए हैं—जिनमें तक़रीबन सौ कविताएँ हैं, कुछ ज़्यादा या कम। इन दोनों संग्रहों की कविताओं पर पर्याप्त बातचीत-बहस हो चुकी है। व्योमेश जी के कवि पर भी ख़ासी बातचीत हिंदी के परिसर में होती रहती है। कविता पढ़ने के अपने शुरुआती समय से ही व्योमेश जी को मैं पढ़ता रहा हूँ और मुतासिर रहा हूँ।
‘फिर भी कुछ लोग’ की कविताओं और उनके कवि से मैंने बहुत प्यार किया। अब, इतना समय बीत जाने के बाद यह इच्छा हुई कि उन्हें फिर से सचेत रूप से पढ़कर यह देखा जाए कि वह प्यार कहीं लड़कपन का और ‘कवि’ नाम की आभा का परिणाम तो नहीं था! आख़िर ये कविताएँ मुझे इतनी अच्छी क्यों लगती हैं? ये बिंदु उसी तलाश में निकले हैं। इनमें नया कुछ नहीं है, जो है वह व्योमेश जी की कविता में ही है और बार-बार विभिन्न तरीक़ों से कहा जा चुका है।
लिहाज़ा इन्हें पढ़ते हुए मैं यह सोचता रहा कि वह क्या चीज़ है जो इन्हें इतना दिलफ़रेब बनाती है? क्या ये उनकी कविताओं में आते लोग हैं? इन कविताओं की भाषा? स्मृतियाँ? उन्हें बचाने की जद्दोजहद? इन कविताओं का राजनीतिक एंगल? यह सब तो है ही, मेरे ख़याल से विकल्पों, संभावनाओं के प्रति आग्रह उनकी कविताओं का सबसे दिलकश पहलू है। वह लगभग निरंतर संभावनाओं में बात करते हैं। संभावनाएँ और विकल्प यहाँ अप्रत्याशित तरीकों से प्रकट होते हैं। हालाँकि वह हमेशा समाधान पेश करते हुए ही नहीं आते, निराशा लेकर भी आते हैं। पर उनका आना और परिणामों से निरपेक्ष आते चले जाना ही व्योमेश की कविता का एक बड़ा बयान है। एक प्रतिसंसार की निर्मिति। इस प्रतिसंसार का निर्माण वह अतीत के बहुत सारे मलबे से करते हैं, जिसमें अब अक्सर काम की चीज़ें नहीं रह गई हैं। वह प्रतिसंसार या तो भाषा में ही बनता है या अभिव्यंजना के ही स्तर पर, किंतु वह बनता है।
शिल्प का पैरलल, कथ्य में से पैरलल, स्मृति में पैरलल, दृश्य में पैरलल। ये पैरलल्स ही व्योमेश की राजनीति का निर्माण करते हैं। साथ ही, उनकी कविताओं में सपने बहुत हैं। वह अपने सपनों को इतने पैशन से रीकॉल करते हैं या इतने ऑब्सेशन के साथ उन्हें पा लेना चाहते हैं कि पाठक उस पैशन/ऑब्सेशन से लगाव महसूस करने लगता है। ये सपने परिवर्तन के सपने उतने नहीं होते हैं जितने कि वे अतीत के सपने हैं—पुरानेपन के न रह पाने के शॉक के सपने हैं। इस बात से जोड़कर यह भी कहा जा सकता है कि वह निरंतर परिवर्तन कर देने की भंगिमा में नहीं बने रहते। ‘जो है उससे बेहतर चाहिए’ से ज़्यादा मुखर उनके यहाँ यह स्वर है कि ‘जो है उसमें बेहतर चाहिए’। यह बेहतरी जो कि प्रथमदृष्टया वहाँ अक्सर उपस्थित नहीं होती, वह अपने टूल्स द्वारा निर्मित भी करते हैं (सत्तर की कमियाँ दिखती नहीं वहीं रहने का मन), नहीं निर्मित कर पाने की अक्षमता से क्षुब्ध भी होते हैं। उनकी एक कविता में, एक आदमी अपनी अक्षमता के ख़िलाफ़ उल्टी करना चाहता है।
सुंदर का संधान व्योमेश का forté है। उनका प्राथमिक लक्ष्य—कम से कम कविता में—सौंदर्य-संधान लगता तो नहीं है, लेकिन वह उनके समूचे कवि-कर्म में एक निरंतर उपस्थित असर्शन की तरह है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। सुंदरता-उदात्तता की तरफ़ जाने में उनकी सबसे बड़ी सहयोगी उनकी भाषा है, लेकिन भाषा की सुंदरता अंतर्वस्तु से असम्पृक्त होकर कब तक टिकेगी? यह अंतर्वस्तु वही प्रतिसंसार है जो सुंदर है।
(हालाँकि भाषा में बनता प्रतिसंसार, संसार में नहीं बनता है; बल्कि जो है, वह भी निरंतर अपक्षयित हो रहा है और बीता हुआ संसार ही प्रतिसंसार लगता है। व्योमेश के कविकर्म और कवि-व्यक्तित्व में इस ट्रैजेडी की बहुत-सी झलकियाँ आती हैं।)
दो
व्योमेश हाशिए का ज़िक्र अक्सर करते हैं। हाशिए का सेलिब्रेशन भी उनके यहाँ बहुत है। उनका कवि, किंतु, यह जानता है कि वह स्वयं हाशिए पर नहीं है। उसका ‘गर्वीला औद्धत्य’ मद्धिम पड़ता नहीं और हाशिए से अक्सर उपजने वाले कॉम्प्लेक्स भी उनके यहाँ नदारद हैं। बहुत पुष्ट और ऐंद्रिक क़िस्म की मुख्यधारा में वह हाशिए का साज़ बजाते हैं और हाशिए का पेड़ लेकर आते हैं।
इस बात को थोड़ा और बढ़ाकर उनकी कविताओं के भाषाई और दार्शनिक सामर्थ्य की ओर भी देखा जा सकता है। व्योमेश को ‘यह’ सामर्थ्य और औद्धत्य उनके भूगोल—सांस्कृतिक, राजनैतिक और भौतिक—से नसीब हुआ है। एक जटिल, विषम और उजाड़ लगने की हद तक घना भौतिक भूगोल; सांस्कृतिक रिचनेस के शिखर पर अवस्थित सांस्कृतिक भूगोल और राजनीति के सर्वोत्तम तथा निकृष्टतम संस्करणों के साक्षी राजनीतिक भूगोल का संश्लेष व्योमेश को मिला हुआ है। वह इतना सुलझा हुआ भी नहीं है। कवि ने बहुत अनियमित तरीक़े से उन्हें ग्रहण किया है। यह अनियमितता स्पष्ट दिखती है—उनकी कविता कोई सपाट दरपन नहीं है। वह कोई प्रिज़्मनुमा संरचना है, जिसमें अलग-अलग कोणों से अलग-अलग रंग और छटाएँ दिख जाती हैं।
कवि घंघोल देता है व्यक्तियों के जल
हिला मिला देता कई दरपनों के जल
[शमशेर]
पाठक सम्मोहित रहता है कि कौन-से दरपन के किस टुकड़े से जाने कौन-सी छवि कब दिख जाए।
तीन
एक मायने में व्योमेश शुक्ल के कवि की यह सीमा भी है, यही उनका विराट भी। व्योमेश का भूगोल उनके आस-पास इस क़दर लिपटा हुआ है कि कवि उससे निकल नहीं पाता। उनकी कविताओं का भूगोल और उनकी विषय-व्याप्ति इतनी दिलफ़रेब तो है कि वह अपना आकर्षण धुँधलाने न दे, लेकिन उनका सातत्य ऐसी प्रगल्भता और विराट की माँग करता है कि उसे देखकर संदेह होता है, कभी डर भी लगता है। विष्णु खरे व्योमेश को परंपरा (हिंदी की आधुनिक कवि-परंपरा) की निरंतरता में देखने का आग्रह बहुत ज़ोर देकर करते हैं। परंपरा में ऐसे कई प्रस्थान बिंदु हैं, जिनसे होकर गुज़रना पड़ता ही है। ये प्रस्थान बिंदु व्योमेश की कविता में एक संपूर्णता या निष्कर्ष की तरह चले आए हों, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, किंतु व्योमेश के यहाँ नया और अद्वितीय इतना है कि ऐसे अवलंबों की आवश्यकता उन्हें बहुत पड़ती नहीं।
चार
व्योमेश एक बेहतरीन राजनीतिक कवि हैं। राजनीति से आक्रांत समय में राजनीतिक कविताओं (कवियों) की हमारे पास कमी नहीं है और वे हमारी अपरिहार्यता हैं, किंतु व्योमेश की कविताओं की राजनीति अपने समय की राजनीति से आक्रांत नहीं है। हमारे अधिकांश कवि या तो राजनीति से आक्रांत होकर कविता लिखते हैं या राजनीति से आसक्त होकर। इन दोनों तरह के कवियों का उदाहरण देने की ज़रूरत नहीं है। व्योमेश की राजनीतिक कविताओं की मैच्योरिटी के पक्ष में पहली बात तो यही कही जा सकती है कि उनकी कविता, कविता में आती परंपरा, भूगोल और आइडेंटिटी—तत्कालीन राजनीति से इनसिक्योर नहीं है। उसे किसी चालू राजनीतिक सहारे की ज़रूरत नहीं है। वह राजनीति को करुणा से, विरक्ति से, कचोट से, एक डार्क हास्यबोध और विट से देख रहे हैं और इन्हीं भावों के साथ उसमें आवाजाही कर रहे हैं। (यह विट पुरानेपन से आता है और पुरानेपन के लोहे में भयंकर ज़ंग लगा हुआ है, जिससे उपजते हैं—करुणा और कचोट।) कहना न होगा कि ये शरफ़ भी व्योमेश को अपने भूगोल से ही हासिल है, ज़्यादा नज़दीक जाकर कहें तो एक गहन सामाजिकता/पारिवारिकता से।
इन बातों का मतलब यह नहीं कि राजनीति उनकी कविताओं में वोकल एलिमेंट नहीं है। वह इतनी प्रकट है कि किस तरह की कविता में कहाँ से राजनीति चली आए, कहा नहीं जा सकता। इस संदर्भ में किसी एक कविता का उदाहरण नहीं दे रहा, क्योंकि राजनीति की इतनी परतें और इतने प्रकार की राजनीतियों की पड़ताल उनकी कविता करती है कि उसकी व्याप्ति का अंदाज़ा एकाध कविताओं से लगाना ठीक नहीं है।
विसंगतियाँ (जो कि संभावनाओं का ही एक प्रकार हैं) उनके यहाँ भरपूर हैं। वे इतनी हैं कि कई बार लगता है कि व्योमेश विसंगतियों के कवि हैं या जहाँ विसंगति है वहाँ व्योमेश की कविता आ जाएगी या आती ही होगी। राजनीतिक विसंगतियों के तो वह चैंपियन कवि हैं। उनकी कविताओं का अधिकांश विसंगतियों की एक मैसिव फ़िल्म है।
क्या ‘एलिएनेशन’ को भी एक प्रकार की विसंगति मानेंगे? एक ‘पूँजीवादी’ और शहराती मनुष्य की निर्मिति के क्रम में प्रकृति के साथ जैसा उसका एलियनेशन है, उसकी ‘प्रकृति’ जैसी प्रतिनिधि कविता कम मिलती है। पूँजीवाद ने अपने मनुष्य निर्मित किए हैं और कर रहा है—प्रकृति भी अपने मनुष्य निर्मित कर ही रही है। हालाँकि ऐसा कहने में यह मान लेना है कि पूँजी प्रकृति का अंग नहीं है। तो मान लिया कि नहीं है, इन दोनों का मनुष्य भी अलग। अपने-अपने में अजनबी। पर स्मृति का क्या करें मनुष्य को जाने कहाँ-कहाँ से और जाने कब की चली आती है। ऐसे में ‘प्रकृति के बीच में वह चुप हो जाता है अजनबियों से क्या बोले’। इस चुप हो जाने में जो गिल्ट है, वह स्मृति से है और यह स्मृति व्योमेश के यहाँ जिस वैभव के साथ है, वह अन्यत्र दुर्लभ।
पाँच
व्योमेश ने अपना दूसरा कविता-संग्रह आज तक हिंदी कविता पर हुई सभी बहसों को भी समर्पित किया है।
यह कवि कविता में बना रहे, कविता वाले और हिंदी वाले और क्या चाह सकते हैं?
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