प्रियंवद (जन्म : 1952) समादृत साहित्यकार हैं। वह कथा और कथेतर तथा संपादन और सांस्कृतिक सक्रियता के मोर्चों पर अपनी मिसाल आप हैं। जीवितों के हिंदी कथा संसार में वह अकेले हैं जिनके पास सर्वाधिक स्मरणीय, उल्लेखनीय और चर्चित कहानियाँ हैं। आज उनका 70वाँ जन्मदिन है। उन्हें मंगलकामनाएँ देते हुए यहाँ प्रस्तुत है उनसे एक नई और विशेष बातचीत :
आप कानपुर में रहते हैं और आपका ननिहाल लखनऊ में है, जहाँ आप बचपन में काफ़ी जाते रहे। वहाँ बचपन में देखी रामलीला और मुहर्रम के ताज़ियों के दृश्यों और कानपुर में सभी संप्रदायों के लोगों के बीच उठने-बैठने से एक पंथनिरपेक्ष या कहूँ कि एक सच्चे इंसान बनने की आपकी परवरिश हुई। इस पर आपका क्या कहना है? साथ ही लखनऊ से आप आज कैसा नाता महसूस करते हैं?
लखनऊ अपने आपमें एक बहुत शानदार शहर है। ‘अकार’ में मैंने आरिफ़ लखनवी का लिखा लखनऊ पर लिखा एक पूरा पीस दिया है। आरिफ़ लखनवी का जो लेख है, उसमें हमें एक शानदार लखनऊ नज़र आता है। मैंने उसकी शुरूआत में एक भूमिका भी लिखी है। लखनऊ में मेरा ननिहाल ‘चौक’ में था। अमृतलाल नागर भी चौक में रहते थे। उन्होंने ‘ये कोठेवालियाँ’ चौक में रहकर ही लिखी। आप ‘चौक’ में रहें और इनसे मुतासिर न हों, यह मुमकिन नहीं है। वहाँ की कला-संस्कृति, नाच-गाना सब उन्होंने लिखा है। …तो जहाँ मेरा ननिहाल था, वहाँ घनघोर मुस्लिम बस्ती थी। एक छोटी-सी गली थी—उसमें दाएँ हाथ पर मुस्लिमों के घर थे और बाएँ हाथ पर चार घर हिंदुओं के थे। मैंने यह सब बेहद नज़दीक से देखा है। ताज़िए देखे हैं। ताज़िए तो कानपुर में भी ख़ूब देखे हैं। लेकिन लखनऊ की तहज़ीब-ओ-तमद्दुन जो है, उसमें जादू है। लखनऊ के इतिहास और ज़ुबान का पूरी दुनिया में कोई मुक़ाबला नहीं है। ‘पहले आप, पहले आप…’ मज़ाक़ नहीं है।
लखनऊ की पतंगें भी बहुत मशहूर थीं और माँझा भी वहाँ बहुत बढ़िया मिलता था। लखनऊ से मेरा ताल्लुक इसी तरह का रहा। लेकिन मुहर्रम में ताज़िए तो मैंने कानपुर में लखनऊ से भी ज़्यादा बड़े निकलते देखे हैं। पतंग-माँझा वग़ैरा कानपुर में मुस्लिम बस्तियों-गलियों में ही ज़्यादा मिलते थे/हैं। तो मैं वहाँ रोज़ जाता ही था। खाना-पीना भी सब वहीं होता था। जब थोड़ा बड़े हुए, फ़िल्म वग़ैरा देखने लगे तो तीन टॉकीज भी घनघोर मुस्लिम इलाक़े-आबादी में थे। उनके नाम थे—नारायण, रूपम और सत्यम… वहाँ हम सिनेमा देखने जाते थे। अब तो सब तरफ़ डर का परिवेश है।
क्या डर इन दिनों कुछ ज़्यादा बढ़ा है?
हाँ, बहुत ज़्यादा बढ़ा है। आप बात करके देखिए, औरतें तो आपको अस्सी प्रतिशत मिल जाएगी जो कभी मुस्लिम इलाक़े से निकली ही नहीं! हमें तो किसी ने नहीं सिखाया कि ये लोग कुछ दूसरे होते हैं। हम तो वहीं रहे हैं—सड़कों पर, गलियों में, कूचों में। ये सब हमारी कहानियों में भी बहुत आता है… तो कोई ख़ौफ़ नहीं था। हम तो फ़िल्में देखते थे, दस-दस घंटे बैठे रहते थे, कहीं हमने कुछ नहीं देखा… हाँ, छोटे-मोटे दंगे-झगड़े हुए, यह सुनते रहते थे। ये तो थोड़े-बहुत सभी जगह होते थे। अब ये कानपुर में बीच वाला मंदिर है। उसकी दाईं पट्टी पूरी मुस्लिम है और बाईं पट्टी पूरी हिंदू है। बीच में दोनों की दुकानें हैं आस-पास, कभी कोई दिक़्क़त नहीं… वे अपनी ज़िंदगी में जी रहे हैं, हम अपनी। अब दिनोंदिन संकीर्णता बढ़ रही है और इस डर को इरादतन बढ़ाया जा रहा है।
आपका उपन्यास ‘वे वहाँ क़ैद हैं’ आज ज़्यादा प्रासंगिक लग रहा है। उसकी भूमिका आपने 2002 में लिखी। 2016 में उस उपन्यास के पीछे आपने एक परिशिष्ट जोड़ा। आपको नहीं लगता कि 2022 में एक और परिशिष्ट या भूमिका लिखना ज़रूरी हो गया है या आप 2024 की प्रतीक्षा कर रहे हैं?
नहीं, अगर उसका कोई नया संस्करण आया तो उस वक़्त जो स्थिति होगी; मैं उस पर फिर लिखूँगा। हो सकता है 2024 में आए या 2026 में आए, जब भी आए तो मैं ज़रूर लिखूँगा।
‘छुट्टी के दिन का कोरस’ एक अलग तरह का उपन्यास है। भाव, भाषा और शिल्प की बुनावट के कारण यह हिंदी कथा साहित्य की विशिष्ट धरोहर है। जिस तरह से यह लिखा गया है, उससे लगता है कि उसके पीछे कोई वृहद योजना रही है। इस लेखन का मूल्य उद्देश्य क्या रहा?
मैं इसे अपना बहुत अच्छा उपन्यास मानता हूँ। यह बहुत सघन उपन्यास है। इसको लिखने में मुझे बहुत आनंद भी आया और बहुत मेहनत भी पड़ी। उसके हर वाक्य में बड़ी गहराई से भाव गुंफित हैं… और प्रयोग भी ख़ूब हैं। उसकी कोई एक निश्चित कथावस्तु नहीं है। जैसे आप फूलों को माला की तरह भी सजा सकते हैं और गुलदस्ते की तरह भी।
दरअस्ल, जब बहुत सारे चरित्र इकट्ठा हो जाते हैं; बहुत-सी चीज़ें हो जाती हैं तो उनको एक कथा में पिरोना थोड़ा समस्याजनक होता है। आपको ऐसा फ़ॉर्म तलाश करना पड़ता है, जिसमें आप इनको इस्तेमाल कर सकें। जब कभी ऐसा हो जाता है तो एक ‘कथारहित कहानी’ का फ़ॉर्म बनाना पड़ता है। मेरी कई कहानियाँ इस तरह की हैं, जैसे ‘एक लेखक की एनाटॉमी’ भी इसी तरह की कहानी है। उसमें इतनी चीज़ें मेरे पास करने को हो गई थीं कि फिर मैंने एक ऐसा फ़ॉर्म चुना जिसमें मैं सब समेट ले गया, क्योंकि एक निश्चित चरित्र उस कथा में नहीं आ सकता था। ‘छुट्टी के दिन का कोरस’ की भाषायी जटिलता और गहराई की से मुक्ति पाने के लिए मैंने ‘धर्मस्थल’ लिखा। ‘धर्मस्थल’ की भाषा सरल है, सरल चरित्र हैं… फिर आगे चलकर बच्चों के लिए लिखा तो और सरल भाषा अपनाई, और सरल कथा लिखी। ये ख़ुद के साथ प्रयोग करने वाली बात है।
उसैन बोल्ट की तरह आप अपने मानक आप ख़ुद ही ध्वस्त करते हैं?
करना चाहिए, हर बड़े लेखक को यह करना चाहिए। अपने को हर बार तोड़ना चाहिए। अपने को ही ध्वस्त करके नया निर्माण करना चाहिए… भाषा, फ़ॉर्म, शिल्प… हर स्तर पर। अपने ही साथ प्रयोग चलता रहना चाहिए, यही उसका विकास है।
आप व्यापार और साहित्य-लेखन दोनों कैसे कर पाते हैं?
मेरा अपना कोई व्यवसाय नहीं है। मैं जब एम.ए. कर रहा था तब मेरे भाईसाहब ने कहा कि फ़ैक्ट्री आया करो, तीन घंटे के दो सौ रुपए महीना देंगे। यह बात है 1974-75 की, दो सौ रुपए उस ज़माने में बहुत थे। मैं तीन घंटे काम करता था और चला आता था। दो-चार साल मैंने यही किया। चलता रहा… सन् 80 में हमारे यहाँ एक बहुत बड़ी हड़ताल हुई। सौ एक मज़दूर थे हमारे यहाँ। तब कानपुर चमड़े का बड़ा केंद्र था। मैंने फ़ैक्ट्री की तरफ़ से उन लोगों से मुठभेड़ की। उसके बाद मैं फ़ैक्ट्री का प्रोडक्शन देखने लगा। मज़दूरों के साथ उठना-बैठना, उतना ही मैंने किया। उससे पैसे मिलते रहे। जॉइंट फ़ैमिली थी, कोई समस्या थी नहीं… मैं फ़ैक्ट्री में बैठकर कहानियाँ तब भी लिखता था और आज भी लिखता हूँ। सुबह दस बजे जाता हूँ, दुपहर एक-दो बजे तक लौट आता हूँ।
आप नियति और पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं?
पुनर्जन्म पर तो नहीं करता, नियति पर… मैं मान लेता हूँ कि बहुत कुछ हमारे हाथ में नहीं होता। वह किसके हाथ में है, यह मैं नहीं जानता। अनिश्चितता ही नियति है।
क्या आप क्षणवाद में विश्वास करते हैं?
नहीं, क्षणवाद में कोई विश्वास नहीं है। जहाँ तक सोच सकता हूँ, कर सकता हूँ… प्लानिंग के साथ काम करता हूँ, योजनाएँ बनाता हूँ।
आपके पात्र क्षण में जीते हैं। भविष्य की उन्हें कोई चिंता नहीं है।
क्षणवाद से आपका मतलब है कि क्षण में जी रहे हैं। वह क्षण कौन-सा है—उस पर निर्भर करता है। जैसे अभी हम लोग खाना खा रहे थे तो खाना हिसाब से खा रहे थे। भविष्य की चिंता नहीं और खाते ही चले जाएँ, ऐसा तो नहीं है। अगर क्षणवाद का मतलब है कि सब कुछ भूलकर जी रहे हैं तो मैं ऐसा नहीं करता। मैं विवेक के साथ क्षण को जीता हूँ।
मृत्यु के प्रति आपमें जो गहराव और चमकदार आकर्षण है, इसके स्रोत क्या हैं?
मृत्यु की बात तो पूरी दुनिया में सब जगह एक ही तरह से है, वह कोई भी धारा हो… चाहे कुछ भी हो। निजी बोध भी कोई विशेष नहीं, सबके साथ होता है; लेकिन मृत्यु एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है—जीवन का। दो चीज़ें हैं—जीवन और मृत्यु। आप जन्म को मानते हो तो मृत्यु भी है ही। कुछ लोगों के लिए मृत्यु बहुत कष्टकारी होती है तो उनके लिए वह मुक्ति है। लेकिन मृत्युबोध जीवन को आसान नहीं बनाता है। हाँ, यह हो सकता है कि कुछ लोग बहुत डरते हैं मृत्यु से। कोरोना में भी कितने लोग डरे मृत्यु से… मुझे भी ख़ासा कोरोना हुआ। लेकिन मुझे डर उतना नहीं लगा। मृत्यु से उस तरह का डर नहीं था।