हिंदी का लाइव काल
भारत सरकार के प्रकाशन विभाग की मासिक पत्रिका ‘आजकल’ ने अपने दिसम्बर-2020 अंक को ‘डिजिटल मंच पर हिंदी साहित्य’ विषय पर केंद्रित किया है। इस प्रसंग में एक प्रश्नावली मुझे भी इस आग्रह के साथ ई-मेल की गई कि मैं इस अवसर के लिए आयोजित परिचर्चा का हिस्सा बनूँ।
प्रस्तुत प्रश्नावली कोविड-19 की वजह से हुए लॉकडाउन में प्रिंट पत्र-पत्रिकाओं और साहित्यिक गोष्ठियों की दयनीय स्थिति, डिजिटल माध्यमों को लेकर साहित्यकारों और बौद्धिकों के बीच की गंभीरता तथा इन माध्यमों पर उनकी सक्रियता, ई-बुक और ऑडियो बुक से जुड़ी तकनीकी समस्याओं, और इस दौर में लाइव की भरमार को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई। लेकिन मुझे इस अंक का उद्देश्य सिर्फ़ दो बातों से ही प्रभावित या कहें आक्रांत लगा—पहला : कोविड-काल, और दूसरा : हिंदी का लाइव काल।
मैं यह इसलिए कह सक रहा हूँ क्योंकि डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म्स का महत्त्व कोविड-काल से पहले भी था, बल्कि बारहा यों भी महसूस किया गया कि यह महत्त्व प्रिंट में आने वाली पत्रिकाओं से अधिक ही है। इस बीच कोविड ने जैसे सब जगह सब माध्यमों को प्रभावित किया, वैसे ही प्रिंट-पत्रिकाओं को भी। यह प्रभाव इसलिए और भी अधिक विकराल हो गया क्योंकि हिंदी की लगभग सभी प्रिंट-पत्रिकाओं की अपनी रनिंग वेबसाइट्स/ब्लॉग्स/सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स नहीं हैं। यह करना उनकी प्राथमिकताओं में रहा नहीं है और यह दुखद है कि अब तलक नहीं है। वे लगभग न सीखने की सौगंध लेकर ही काम करते आए हैं और कर रहे हैं। इसमें मैं एक पिछड़ापन और जड़ता देखता हूँ।
इस प्रश्नावली के इस प्रश्न पर : डिजिटल माध्यमों को लेकर हाल तक साहित्यकारों और बौद्धिकों के बीच कोई गंभीरता न थी। मौजूदा परिदृश्य में आपका कहना क्या है? इसका प्रभाव समाज पर किस रूप में पड़ेगा? मैंने कहा : डिजिटल माध्यमों को लेकर बहुत नाक-भौंह सिकोड़ने के बावजूद हिंदी साहित्यकारों और बौद्धिकों के बीच इसे लेकर पर्याप्त गंभीरता रही है। यह अलग बात है कि वे शुरू से ही इस बात का दिखावा करते आए हैं, कि वे इन माध्यमों को लेकर सहज और सीरियस नहीं हैं। लेकिन अब यह दिखावा व्यर्थ है और इसलिए तार-तार है।
हिंदी के अनंत चैरकुट्य और प्रदर्शनप्रियता में इस बीच जहाँ तक साहित्यकारों और बौद्धिकों की डिजिटल उपस्थिति का प्रश्न है, मार्च-2020 से हिंदी साहित्य और इसकी गंभीरता का, इसकी ज़रूरत और जगह का जितना नुक़सान फ़ेसबुक की लाइव सुविधा ने किया है, उतना आज तक किसी और माध्यम ने नहीं किया है। इसने हिंदी लेखक को पूरी तरह एक्सपोज़ करके उसे हास्यप्रद, दयनीय और प्रचार-पिपासु बना दिया है। साहित्यिक गोष्ठियाँ, साहित्योत्सव और इस सदी में प्रकट हुए लिट्-फेस्ट भी ये करते आए हैं, लेकिन उनमें कम से कम लेखक को यात्रा, जीवंत सामाजिक संपर्क और मानदेय जैसे सुख तो मिलते रहे हैं; पर फ़ेसबुक-इन्स्टाग्राम-लाइव और वेबिनारादि ने लेखकों-कलाकारों को लगभग मुफ़्त का माल बना दिया है। वे इतने खलिहर, सर्वसुलभ, सहजउपलब्ध हैं; इस वास्तविकता के उद्घाटन का श्रेय कोविड-काल, फ़ेसबुकादि की लाइव सुविधा, वेबिनारादि के साथ-साथ हिंदी साहित्य और संस्कृति-जगत की कोरोजीवी प्रतिभाओं को जाता है।
इस महामारी में लाइव न आने का निर्णय मैंने बहुत आरंभ में तब ही कर लिया था, जब एक रोज़ राजकमल प्रकाशन समूह के फ़ेसबुक पेज पर लाइव से जूझती एक छवि को कुछ देर के लिए देखा था। भयभीत बुज़ुर्गों को यहाँ क्या ही कहा जाए, लेकिन इसके बाद कई शोला जवान और नाज़ुक प्रतिभाएँ जब अपना क़ीमती और युवा वक़्त बार-बार फ़ेसबुक लाइव में गँवाती दिखीं, तो उन्हें देखकर दुख कम एक मीठी ख़ुशी अधिक होती रही। इस मीठी ख़ुशी को केवल वही समझ सकता है, जिसने लॉकडाउन के दिनों में अपना समय कुछ ज़रूरी कामों के साथ-साथ लिखने-पढ़ने में लगाया हो।
यह दुर्भाग्य है कि लिखने से पहले लिखे को बेच लेने की व्यवस्था कर लेने वाले युग में हिंदी की कथित मुख्यधारा को यह भी समझ में नहीं आया कि ‘हिन्द युग्म’ के लेखक-अलेखक जिन्हें प्रचार-प्रसार का सर्वाधिक ज्वर चढ़ता रहता है, वे क्यों फ़ेसबुक-इन्स्टाग्राम-लाइव और वेबिनारादि से क़रीब-क़रीब दूर रहे। हिंदी की यह कथित मुख्यधारा फ़ेसबुक के उन फ़ेसों की शनाख़्त भी नहीं कर पाई जो लाइव की वकालत करते हुए हिंदी की गोबराट्टालिका के गिरिराज बने रहे।
हिंदी में इस लाइव काल की विभीषिका को कुछ मनोरंजक अंदाज़ में समझना हो तो नई पीढ़ी के रंगकर्मी ऋषिकेश कुमार का यह काम देख सकते हैं :
हिंदी के लाइव काल से हटकर अब अगर ‘आजकल’ के अंक की तरफ़ ही लौटें, तब इस तरफ़ से आई प्रश्नावली में एक प्रश्न यह भी था : भारत में अभी भी ई-बुक, ऑडियो बुक से जुड़ी तकनीकी समस्याएँ हैं। गाँवों में इंटरनेट की सुविधा तो कम है ही, साथ ही हम अब तक अबाधित नेट की सुविधा शहर को भी सुलभ नहीं करा पाए हैं, ऐसे में वेब पर आ रहे साहित्य के टिके और बचे रहने की कितनी संभावनाएँ हैं?
इस पर मैंने कहा : भारत में अभी भी ई-बुक, ऑडियो बुक से जुड़ी तकनीकी समस्याएँ हैं… इस बात में फ़िलहाल सचाई है और इससे सहमत भी हुआ जा सकता है। लेकिन साहित्य अगर साहित्य है, तब वह कहीं पर भी आए टिका और बचा रहेगा। वह लोगों तक भले ही न पहुँचे, पर वे लोग जो सचमुच उस तक पहुँचना चाहते हैं; उस तक अंततः पहुँच ही जाएँगे।
इस प्रसंग में आख़िरी प्रश्न रहा : हमारी मानसिकता में स्मार्ट फ़ोन अभी भी पढ़ाई के बजाय मनोरंजन का माध्यम है और पढ़ाई के लिए किताबें प्रिंट में होनी चाहिए। साथ ही स्वास्थ्य और माहौल का भी मामला है, इसका हल क्या होगा? क्या प्रिंट की सुखद संभावना अब भी बची हुई है?
अब मैं नहीं तो और कौन कहेगा : स्मार्ट फ़ोन अब केवल मनोरंजन के लिए नहीं है। वह जीवन का एक अहम अंग है। लेकिन प्रिंट-पत्रिकाओं और पुस्तकों को नष्ट कर सके, वह इतना ताक़तवर फ़िलहाल नहीं है। वह प्रिंट के महत्त्व और प्रसार को कम कर सकता है तो बढ़ा भी सकता है। हमें इसका सही उपयोग सीखने की ज़रूरत है।