निर्वासितों का जनपद
हिंदी कविता में बहुत से राजकुमार आते हैं। थोड़ी देर स्तुति, संस्तुति, सम्मान के आलोकवृत्त में चमकते हैं। भ्रमवश इस चौंध को अपना आत्मप्रकाश समझ लेते हैं। परंतु हिंदी कविता के पाठक बहुत बेवफ़ा हैं। कुछ दिनों तक यह सब देखते हैं, और कविता न मिलने पर छोड़ जाते हैं। हिंदी समाज ने बहुत-सी ड्योढ़ी का आलाप डूबते देखा है। अब तो यह इतना अभ्यस्त हो चुका है कि कहीं सिर्फ़ चौंध हो तो जान लेता है कि ज़्यादा देर चलेगा नहीं। जल्दी ही राजकुमार हिंदी समाज को समझ लेते हैं और हिंदी समाज उन्हें तौल लेता है। ऐसे बहुत से कवि कालांतर में सरकारी दरबारों में ‘इवेंट मैनेजर’ बनकर धन्य हो रहते हैं। इनसे अलग कुछ लोग कविता के स्थायी नागरिक होते हैं। वे कविता से स्वागत-संस्तुति नहीं चाहते। उनका उच्छल हृदय और पीड़ित विवेक ही उन्हें इस दुनिया में ले आता है। वे अपने चारों ओर की दुनिया और कविता के भीतर के संसार को महसूस करना चाहते हैं। उनके लिए कविता भाषा में जीवन की स्वाभाविक हलचल है। कभी कविता में जीवन की इस हलचल से बाहर की दुनिया देखते हैं तो कभी दुनिया की नज़र से कविता के भीतर का विकल जीवन। अब तक हिंदी कविता का शृंगार ऐसे ही कवियों ने किया है। यदि कुछ ऐसे युवा कवियों का नाम लेना हो जिनसे हिंदी समाज अपेक्षाएँ पाल सकता है तो उन कवियों में एक नाम अयोध्या के रहवासी विशाल श्रीवास्तव का ज़रूर होगा।
विशाल श्रीवास्तव की दुनिया गाँव, क़स्बों और छोटे शहरों के जीवन; उसकी सामुदायिकता, सामाजिकता, जीवन-प्रवाह, स्मृतियों, दु:ख और सपनों से बनी है। इसमें न लोकवादी अतीतराग है, न महानगरीय अकेलापन, तनाव आदि मनोरोग। इसमें उस समाज का विडंबनाबोध, विषाद और संत्रास है, जिसको वैश्विक बाज़ार ने पिछले तीन दशकों में बेदर्दी से उधेड़ डाला है। यह विशाल श्रीवास्तव का सुना और जाना हुआ संसार नहीं, उनकी भोगी हुई दुनिया है। इसलिए यह अपनी मार्मिकता में विश्वसनीय भी लगती है।
उनके पहले संग्रह ‘पीली रोशनी से भरा काग़ज़’ की पहली कविता है—‘सुबह’। सुबह सुनते ही आपके चित्त पर कौन-सी छवियाँ उभरीं? सुरभि, उत्फुल्लता, उल्लास, प्रकाश… क्या आपको यह नहीं लगता कि आपके मन पर जमी हुई इन छवियों को ख़ास प्रकृतिमूलक कविताओं ने रचा है? जिस व्यक्ति के लिए ज़िंदगी पहाड़ हो उसके लिए हर सुबह पहाड़ ठेलने की शुरुआत है। उसके लिए हर सुबह उत्पीड़न, दमन और नए दुखों का सामना है। क्या बहुसंख्यक वर्ग के जीवन को ‘जगह-जगह से टुकड़ा-टुकड़ा’ तोड़ नहीं दिया गया है? और अगर यह सच्चाई है तो सुबह की ये काव्यात्मक छवियाँ जीवन के यथार्थ से कटी हुई ख़ूबसूरत जुज़ बनकर रह गई हैं। और एक अनुकूलित बोध ही उन्हें ग्रहणीय बनाता है। सुबह की सुरभि उन्हें उल्लास का आसव नहीं, “उन्हें उनके हिस्सों का दु:ख बाँटती है।” जगह-जगह से टूटे लोग, अपने ध्वस्त और ध्वांत जीवन के “बोझिल शोक को सँभालते दु:ख भूलने के लिए” एक दूसरे को सांत्वना नहीं देते, “आपस में संक्रामक इतिहास बतियाते हैं।” यह हमारे समकाल की विडंबनात्मक सच्चाई है।
जीवन में दुश्वारियाँ जितनी तेज़ी से बढ़ रही हैं, जनता उनका सामूहिक हल निकालने के बजाय सांप्रदायिक और जातीय वैमनस्य में लोटपोट कर रही है। यह कैसा समय है जहाँ लोगों को प्रेम नहीं, उनकी हिंसक वृत्ति उन्हें जोड़ती है? इस दशा में कविता की अंतिम पंक्तियाँ और व्यंजक हो उठी हैं :
इस तरह धकियाए और निर्वासित
लोगों का यह जनपद
विलाप को किसी पक्के और गाढ़े सुर में गाता है
आइए, इसे
इस गीली और उदास सुबह का
विलक्षणतम संगीत कहें।
ऐसा लगता है कि जैसे यह दु:ख बहते-बहते जम गया हो। जैसे बहता हुआ ख़ून जमकर काला पड़ जाए। जैसे कोई दु:ख और पीड़ा झेलते-झेलते उससे निकलने का उत्साह ही हार जाए। यह दृश्य पिछले दशकों में जीवन से निर्वासित, विस्थापित और धकिआए गए बहुसंख्यक जन की पीड़ा का मार्मिक बिम्ब है। कोई संवेदनहीन चाहे तो इस दारुण दु:ख को विलक्षण संगीत कह ले, बल्कि इसी हिंदी कविता में शहरी संभ्रांत वर्ग को यह सिसकी संगीत की तरह ही सुनाई पड़ती है!
हिंदी कविता में शाम के दारुण बिम्ब बहुत हैं। कारण कि अँधेरे और रात को त्रासद बिम्बों में ढालना आसान है, क्योंकि यह पहले से ही मानव मन पर जमा ‘हॉरर’ का आदिम बिम्ब है। किंचित उद्दीपन से भी मानव-मन में उन आदिम स्मृतियों को जगाया जा सकता है। लेकिन दिन और प्रकाश की मज़बूत सकारात्मक छवियों को बदलना अपेक्षाकृत कठिन रचनात्मक काम है। केदारनाथ सिंह की कविता ‘सूर्यास्त के बाद अँधेरी बस्ती से गुज़रते हुए’, राकेश रंजन की कविता ‘भितिहरवा कहाँ है’ और विशाल श्रीवास्तव के ही जनपद के उनसे वरिष्ठ कवि केशव तिवारी की ‘शाम-ए-अवध’ शीर्षक कविता यहाँ सहज तुलनीय है। केदारनाथ सिंह की कविता में मानवीय जीवन-स्थितियाँ और गहराता हुआ अँधेरा एक-दूसरे में घुल-मिल गया है, जिसमें जीवन की बेचैनी और त्रास के गतिशील बिम्ब उसे कलात्मक ऊँचाई देते हैं। राकेश रंजन के ‘भितिहरवा…’ के लोगों की आँखों में बेबसी और आत्मा को पकड़ लेने वाली बेचारगी है। केशव तिवारी की कविता दिल्ली-बंबई से बीमारियाँ कमाकर लौटे, झेलंगा खटिया पर पड़े नवजवानों की साँसें शाम की हवा में घुलकर मातम के एक उदास राग में ढल जाती है। ये चारों कविताएँ वैश्विक बाज़ार द्वारा उधेड़कर निर्वासित किए हुए ग्रामीण जीवन के विषाद की कविताएँ हैं। लेकिन विशाल श्रीवास्तव की कविता तीनों कविताओं की अपेक्षा ज़्यादा कलात्मक कौशल की कविता है।
विशाल श्रीवास्तव में संवेदनक्षम ऐंद्रियसजगता और मानवीय करुणा तो है ही, जीवन की दुश्वारियों के पीछे के सूत्रों को समझ लेने का विवेक भी है। इस संग्रह के शीर्षक को एक बिम्ब की तरह कहूँ तो संग्रह के सफ़ेद काग़ज़ उदासी, नाश और विषाद की पीली रोशनियों से भरे हैं। लेकिन यह संग्रह इस विषाद के कारणभूत संदर्भों से विमुख भावाकुल प्रगीतों का संकलन नहीं है। ये कविताएँ विषाद और बेचैनी के कारणों में भीतर उतरना चाहती हैं। कविता में अगर सिर्फ़ मनोभाव ही हों तो वह ज़्यादा देर तक दिमाग़ में नहीं टिकती, सिर्फ़ विचार ही हो तो भी प्रभावित नहीं करती, लेकिन मनोभाव से निकलता हुआ विचार दिल-ओ-दिमाग़ में बैठ जाता है। ऐसी कविताओं में एक भावदृष्टि होती है। विशाल श्रीवास्तव जीवन की दुश्वारियाँ रचने वाली ‘सयानी बारीकियों’ को खोलते हैं। वे धर्म, संस्कृति और कलाओं द्वारा रचे जाने वाले ‘निर्ममता का संभ्रांत’ शिल्प भी देख सकते हैं। और जिससे इस दुनिया का छुपा हुआ पार्श्व भी उद्घाटित होता चलता है :
लोगों के मर जाने के पीछे हमने
सुलझे हुए और गहरे वैज्ञानिक तर्क दिए हैं
तुम्हें सब कुछ दिखाया है सजीले माध्यमों के ज़रिए
तो यह सारा कुछ गंभीरता से देखो
और बस यहीं
मार्मिक होने से पहले कृपया थोड़ा रुको
दुखी होने से पहले
अपने शोक और विषाद की मात्रा को
बाज़ार जैसी ज़रूरी व्यवस्था को तय करने दो।
यह कविता की आँख से देखा गया है (और शायद उसी आँख से देखा जा सकता था), लेकिन गल्प नहीं, सच्चाई है। यह पूरी व्यवस्था, पूरी ज्ञान-परंपरा बहुसंख्यक मनुष्य के शोषण और दमन को न्यायोचित, वैधानिक, नैतिक और सुंदर बनाने का तरीक़ा है। इस नैतिक, वैधानिक, सौंदर्यात्मक भ्रष्टाचार को कौन-सा ज्ञान उद्घाटित करेगा? जब ज्ञान स्वयमेव भ्रष्ट है! ऐसे में शायद काव्य-संवेदना और काव्य-दृष्टि ही कुछ कर सकती है। हमारे चारों तरफ़ का बाज़ार और पूँजी का न्यायोचित और नैतिक लगता संसार इसी दमन और शोषण का ठोस मूर्त रूप है। ‘चुप रहो’, ‘अपभ्रंश में हँसता आदमी’, ‘थाने में औरत’ ऐसी ही कविताएँ हैं जो दमन के महीन सूत्रों को खोलती हैं।
विशाल श्रीवास्तव उन युवा कवियों में हैं जो इसके बीच से ही मानवीय जीवन स्थितियों और मनोदशाओं को खोलने की कोशिश करते हैं।
कहीं-कहीं विशाल श्रीवास्तव की संवेदना और दृष्टि ऐसे ताप बिंदु पर पिघलती है कि उनकी कविताएँ किसी दार्शनिक अंतर्दृष्टि से प्रदीप्त हो उठती हैं। इस संग्रह में एक कविता है—‘ख़ाली’। कविता में ‘‘बच्चे एक ख़ाली और पुराने कुएँ में झाँक रहे हैं।” बच्चे अपने तरुण फेफड़ों में हवा भरकर पूरी ताक़त से कोई साधारण-सा शब्द, जो उनके दोस्त का नाम भी हो सकता है, इस कुएँ में फेंकते हैं। कवि लिखता है कि ख़ाली कुएँ में ताक़त के साथ फेंका गया यह शब्द “उसे पुकारता हुआ फिरेगा निर्भय हवा में / और बच्चों के मन को उजास से भर देगा।” पूरी कविता पढ़ते हुए आपको लगेगा कि यह सृष्टि के ख़ूबसूरत रहस्य में घुल रही है। इस महार्घ सृष्टि में हम जो भी फेंकते हैं, वह देर-सबेर हम तक लौट आता है। आप घृणा फेंकते हैं तो आपको प्रेम कभी नहीं मिल सकता। आप तनाव में हैं तो इसका मतलब है कि आपने शांति की आवाज़ नहीं उठाई। ऐसी अंतर्दृष्टिपूर्ण कविताएँ बहुत देर तक मन में बनी रहती हैं। इस संग्रह की ‘झुंड में रोती हुई स्त्रियाँ’, ‘अनुभव के लिए कोई शब्द’, ‘पोस्ट कार्ड’, ‘असफल आदमी’… आदि शीर्षक कविताएँ इसी कोटि की कविताएँ है। परंतु जहाँ यह ‘फ़ेल्ट थॉट’ अपना आंतरिक रचनात्मक ताप खो देता है, वहाँ साफ़ समझ में आ जाता है कि कविताएँ सिर्फ़ अभ्यास और समझदारी से बनाई जा रही हैं। ऐसी कविताएँ अधिकांशतः संकलन के उत्तरार्द्ध में संकलित हैं। लेकिन पूर्वार्द्ध की कविताओं का प्रभाव पाठक के मन पर इतना सघन पड़ता है कि कोई भी कविता-प्रेमी किसी और कविता-प्रेमी के लिए संस्तुति किए बिना नहीं रह सकेगा।
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विशाल श्रीवास्तव की प्रसिद्ध और प्रतिनिधि कविताएँ यहाँ पढ़िए : विशाल श्रीवास्तव का रचना-संसार