‘दिल्ली की साहित्य-मंडी से अब कुछ नहीं जन्मेगा’

प्रियंवद से अविनाश मिश्र की बातचीत

वह कहानियाँ, उपन्यास और इतिहास लिखते हैं। लेकिन इधर के उनके रचनाकर्म में बतौर एक कथाकार और इतिहासकार दोनों से ही अलग एक नए क़िस्म की बेचैनी है। इसके लिए उन्होंने विधागत कुछ नए प्रारूप गढ़े हैं जिनके माध्यम से वह अपनी साहित्य-चिंताओं के साथ साहित्य की राजनीति और उसमें आई गिरावट को दर्ज कर रहे हैं। उन्होंने कुछ चर्चित व्याख्यान भी दिए हैं और शेक्सपीयर और मीना कुमारी पर लिखते हुए उन्हें ‘सलवटें’ कहा है। ‘मुल्ला के क़िस्से’ जिसे उन्होंने शब्द-कार्टून कहा, भी उनके रचनागत प्रयोगों के सिलसिले की एक कड़ी है। वह ‘अकार’ के संपादक और ‘संगमन’ जैसे वार्षिक साहित्य-आयोजन के संयोजक हैं। इन दिनों वह ज्ञानरंजन और गिरिराज किशोर के पत्रों का संपादन कर रहे हैं। बातें हो रही हैं प्रियंवद (जन्म : 1952) की, जिनसे यहाँ प्रस्तुत बातचीत आमने-सामने की कई बैठकों में गए दस बरसों में समय-समय पर कानपुर और दिल्ली में होती रही…

— अविनाश मिश्र

प्रियंवद │ स्रोत : मिहिर पंड्या

इधर के आपके नए रचनाकर्म में नज़र आ रही बेचैनी की वजह क्या है?

मन में बहुत कुछ रह जाता है, उसी तरह जैसे चादर पर सलवटें। इन्हें खोलने की कोशिश को मैंने ‘सलवटें’ कहा है। अलग विधागत फ़ॉर्म हिंदी में दिख सकता है, लेकिन अँग्रेजी में ऐसा लिखा जाता रहा है। इसे ‘नॉन-फ़िक्शनल नैरेटिव’ कह सकते हैं। वेद मेहता और वी. एस. नायपॉल ने इस तरह से काफ़ी कुछ लिखा है। जहाँ तक बेचैनी की बात है, वही रचनाकार के जीवित बने रहने का प्रमाण, तर्क और औचित्य है।

अब आप ‘अकार’ के संपादक हैं जिसका एक अंक कुछ वर्ष पूर्व आपने पुनर्वास बस्तियों में रह रहे किशोरों की रचनाओं पर केंद्रित किया था। इस नए दायित्व को आपने कैसे देखा?

एक संपादक के रूप में दायित्व बहुत बढ़ जाता है। ‘अकार’ का रूप हम लोग बदलते रहे हैं। इसी क्रम में पुनर्वास बस्तियों के नए लेखकों (किशोरों) की कहानियाँ भी हमने छापीं। ऐसा हिंदी में पहली बार हुआ। इसका बहुत स्वागत भी हुआ—उनकी रचनाओं की नई ज़मीन के कारण। हिंदी वहीं बचेगी। नया लेखन वहीं से आएगा। दिल्ली की साहित्य-मंडी से अब कुछ नहीं जन्मेगा।

कलंदर, दास्तानगो, गंदी—क्रमशः ‘नया ज्ञानोदय’, ‘पाखी’ और ‘कथादेश’ में प्रकाशित आपकी इन तीन कहानियों—में आपके पाठकों को पुराने प्रियंवद नज़र नहीं आए?

पुराने प्रियंवद को नज़र भी नहीं आना चाहिए। फिर क्या विकास हुआ और क्या नयापन? जब प्रकृति में, सृष्टि में, देह में कुछ पुराना नहीं रहता तो मुझमें भी क्यों रहे? और रचनाओं में तो कभी नहीं होना चाहिए। हर रचना में ख़ुद को नष्ट करके नई रचना में नया जन्म लेना होता है। पाठक का दोष नहीं है, वह कुछ चीज़ों से प्रेम पाल लेता है। उसी को बार-बार पाना चाहता है। जैसे प्रेमी-प्रेमिका को एक-दूसरे में सब कुछ पुराना अच्छा लगता है, ऐसा ही रिश्ता कभी-कभी कुछ पाठक भी लेखक से बना लेते हैं। फिर भी मोह के लिए मैं ख़ुद को दुहरा लेता हूँ। यह आपको मेरी एक कहानी ‘दिलरस’ में दिखेगा।

आपका उपन्यास ‘धर्मस्थल’ न्याय-व्यवस्था पर केंद्रित है, लेकिन इस विषय से इतर क्या इसके अन्य पाठ भी संभव हैं?

‘धर्मस्थल’ में तीन बातें सबसे महत्त्वपूर्ण हैं। सबसे पहले रचनात्मकता का संघर्ष, इसके बाद जीवन के दार्शनिक पक्ष जैसे—सत्य, अस्तित्व, अंतरात्मा आदि। इसके साथ-साथ एक पाठ न्याय-व्यवस्था का भी है। यहाँ भारतीय दंड संहिता, जो साक्ष्यों पर अवलंबित है और आयातित है, कैसे ख़रीदी गई गवाहियों के ज़रिए न्याय का वध करती है, यह दर्शाने की कोशिश की गई है। ‘धर्मस्थल’ में भारतीय न्याय-व्यवस्था, प्राचीनतम से आधुनिकतम तक एक थीम की तरह मौजूद है, ऊपर कही गई दो बातों के समानांतर।

‘छुट्टी के दिन का कोरस’ में इतिहास उपस्थित है। क्या कारण है कि आप स्वतंत्र रूप से भी इतिहास की किताबें लिखते हैं और साहित्य में भी इतिहास को एक ज़रूरी डिवाइस की तरह बरतते हैं?

पहले तो एक बात आप बहुत स्पष्ट कर लीजिए, वह यह कि इतिहास और साहित्य में बहुत फ़र्क़ नहीं होता। इतिहास मनुष्य की बाहरी संरचनाओं की कहानी बताता है—मतलब समाज, राज्य, शासन-व्यवस्थाएँ, घटनाएँ आदि। और साहित्य मनुष्य की आंतरिक संरचनाओं को व्यक्त करता है। अगर आप एक मुकम्मल मनुष्य का अध्ययन करना चाहते हैं तो साहित्य और इतिहास में बहुत फ़र्क़ करके नहीं चल सकते।

‘भारत विभाजन की अंत:कथा’ के बाद एक नई तरह की ‘हिस्ट्री रीडिंग’ हिंदी में शुरू हुई। इसे कैसे देखते हैं?

‘हिस्ट्री रीडिंग’ की जहाँ तक बात है तो हिंदी में इतिहास की कोई किताब ही नहीं है। हिंदी का मतलब कहानी, कविता, उपन्यास बस इतने से ही समझा जाता है। हिंदी में कोई अच्छी आत्मकथा नहीं है, कोई जीवनी नहीं है। इतिहास के अगर किसी महत्त्वपूर्ण व्यक्ति को आपको जानना है तो हिंदी में कोई किताब नहीं है।

लेकिन वह तो आपकी इस किताब में भी नहीं है?

इसके लिए इतिहास की मेरी दूसरी किताब ‘भारतीय राजनीति के दो आख्यान’ देखी जानी चाहिए। इसमें पहला आख्यान गांधी, नेहरू, सुभाष और वामपंथ तथा दूसरा स्वतंत्रता, हिंदू भारत और सरदार पटेल है। इस किताब में 1920 से 1950 तक की भारतीय राजनीति को समझने की एक कोशिश है। एक आख्यान में वामपंथ का अध्ययन है और दूसरे में हिंदुत्व का।

भीमराव आम्बेडकर क्यों नहीं हैं इसमें?

आम्बेडकर का उस वक़्त की राजनीति में कोई महत्त्व नहीं था। सामाजिक आंदोलनों में था, लेकिन राजनीति में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं था, वह एकदम अप्रभावी थे। उनका राजनीतिक प्रभाव, महत्त्व और हस्तक्षेप ‘संविधान सभा’ के गठन के बाद शुरू हुआ।

मनीष झा, जिन्होंने आपकी कहानी ‘एक फाल्गुन की उपकथा’ पर ‘अनवर’ और परेश कामदार, जिन्होंने आपकी कहानी ‘ख़रगोश’ पर इसी नाम से एक फ़िल्म बनाई, कैसे अनुभव रहे इन दो युवा निर्देशकों के साथ?

मनीष झा ने मुझे बहुत निराश किया, सबसे पहली बात तो यह कि वह ‘अनवर’ मुझसे छुपाकर बना रहे थे। वह लखनऊ में शूट कर रहे थे तब एक अख़बार में उनका इंटरव्यू छपा कि मैं यह फ़िल्म बना रहा हूँ, यह मेरी कहानी है, मैं आतंकवाद के सांप्रदायिक अर्थ को समझना चाहता हूँ वग़ैरह वग़ैरह…। हालाँकि एक डेढ़ साल पहले मनीष मुझसे फ़ोन पर बात कर चुके थे कि आपकी एक कहानी पर मैं फ़िल्म बनाना चाहता हूँ। लेकिन फिर बात आई गई हो गई और इसके बाद जब मैंने यह इंटरव्यू पढ़ा तब मैंने उनको ट्रेस किया लखनऊ में और उनसे बात की। मनीष ने कहा कि मेरा दस दिन का शूट और है, मैं ग्यारहवें दिन आपके पास आता हूँ। बाद में वह शूट ख़त्म करके आए भी। मैंने उनसे स्क्रिप्ट लेकर आने के लिए कहा था। स्क्रिप्ट में सारे चरित्रों के नाम वही थे, लेकिन काफ़ी कुछ बदल गया था। मनीष काफ़ी कम उम्र के लगे मुझे। उन्होंने सारी बातें रखीं। वह कन्या-भ्रूणहत्या पर ‘मातृभूमि’ नाम से एक फ़िल्म पहले बना चुके थे। उन्होंने जब पूरा समर्पण किया और कहा कि आप मुझ पर यक़ीन कीजिए, तब मैंने कहा कि ठीक है अब जैसा हो गया है, वैसा ही चलने दीजिए। लखनऊ में इस फ़िल्म का प्रीमियर भी हुआ। वहाँ मेरे लिए स्टेज पर एक कुर्सी भी थी, लेकिन मैं बुलाने पर भी नहीं गया। यह फ़िल्म मुझे इतनी ख़राब लगी कि मैं इंटरवल तक चला आया।

और ‘ख़रगोश’?

‘ख़रगोश’ की बात बिल्कुल अलग है। परेश कामदार ने लगभग सौ कहानियाँ पढ़ीं और आख़िर में ‘दीवार में खिड़की रहती थी’ और ‘ख़रगोश’ में अंतत: ‘ख़रगोश’ को फ़िल्म बनाने के लिए चुना। परेश चाहते थे कि मैं ही स्क्रिप्ट लिखूँ, क्योंकि किसी दूसरे के लिखने से इसमें फ़र्क़ आ सकता है। मुझे स्क्रिप्ट लिखना नहीं आता था, लेकिन फिर धीरे-धीरे सब कुछ हुआ। दस-बारह वर्षों बाद एक बार पुन: उन चरित्रों के नज़दीक लौटा। यह एक बहुत अच्छा अनुभव था। ‘ख़रगोश’ को दिल्ली में हुए ‘ओशियान सिने फ़ैन’ में चार पुरस्कार मिले। यह फिल्म दुनिया भर के प्रसिद्ध और प्रतिष्ठित फ़िल्म समारोहों में प्रदर्शित और प्रशंसित हुई। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि भारत में यह फ़िल्म सिनेमाघरों में रिलीज नहीं हो पाई।

युवा रचनाकारों की नई रचनाशीलता में एक प्रकार का नक़लीपन और अनुभव की असमृद्धता बहुत साफ़-साफ़ पकड़ में आ रही है। आप क्या वजह देखते हैं इस विचलन की?

शैलेश मटियानी एक बात कहा करते थे कि जब कोई लेखक दस साल तक लिख ले तब समझो कि वह लेखक बन सकता है। इस बात का मतलब यह है कि थोड़ी लंबी साँस, थोड़ी कुशलता, थोड़ा धैर्य, थोड़ा अनुभव, थोड़ा ज्ञान, थोड़ा अध्ययन, थोड़ा शिल्प, थोड़ा प्रयोग, थोड़ी भाषा, यह सब थोड़ा-थोड़ा सीखने में भी कम से कम दस साल लग जाएँगे। हालाँकि अभिमन्यु भी संसार में होते हैं, जो माँ के गर्भ से ही सब कुछ सीखकर आ जाते हैं। लेकिन अभिमन्यु अपवाद होते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण रहा कि इन पौधों में पूरी तरह मज़बूती आने से पहले ही बहुत ज़्यादा पानी डाल दिया गया, बहुत ज़्यादा खाद डाल दी गई और अब इस कारण इन पर संकट है।

हिंदी की लघु पत्रिकाओं की वर्तमान सामाजिक भूमिका से आप कुछ खिन्न हैं?

लघु पत्रिकाएँ आज एक लाभकारी कुटीर उद्योग में तब्दील हो चुकी हैं। यह एक दु:खद सत्य है कि वे भ्रष्ट मुख्यमंत्रियों के ‘नयनाभिराम’ चित्र छापने और उनके शासन की उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार में व्यस्त हैं। कुछ लघु पत्रिकाओं के संपादक प्रतिरोध की बातें तो करते हैं, मगर सत्ता के साथ उनकी नज़दीकियाँ बहुत साफ़ देखी जा सकती हैं। ये दोनों बातें भला एक साथ कैसे चल सकती हैं।

आपकी कहानियों में एक प्रकार की समयहीनता (टाइमलेसनेस), अस्थानीयता, काव्यात्मकता और पात्रों के अनसुने नाम—ये कुछ चीज़ें वहाँ एक स्थायित्व में दृश्य होती हैं, इस पर कुछ कहिए?

समय निरंतर है, इसे बाँधा नहीं जा सकता। इसलिए रचना में समयहीनता एक बहुत स्वाभाविक चीज़ है। जब आप एक ख़ास लोकेल की, एक ख़ास पीरियड की, एक ख़ास जाति, धर्म या देश के व्यक्ति की कहानी कहने लगते हैं, तो फिर आप उसे सीमित करते हैं। उसकी यूनिवर्सेलिटी, उसकी वैश्विकता को ख़त्म करते हैं। बड़ी रचनाओं का अर्थ होता है देश, काल और भूगोल की सीमाओं को अतिक्रमित कर जाना। सारी दुनिया का मनुष्य एक है। उसके सुख-दुःख, राग-विराग, आवेग-संवेग, स्वप्न और महत्त्वाकांक्षाएँ एक हैं। जब आप इनकी बात करेंगे तब आप स्वत: कालातीत भी हो जाएँगे और असीम भी। और जहाँ तक पात्रों के नामों की बात है तो मैं पात्रों के नाम अजीब इसलिए रखता हूँ कि उन नामों को पढ़कर पाठक की समझ में कोई तयशुदा छवि निर्मित न हो। उदाहरण के लिए अगर मैं अपनी किसी कहानी की नायिका का नाम ‘रजनी’ रख दूँ, तब मैं उससे बहुत सारे काम नहीं करवा सकता। ‘रमेश’ नाम रखते ही कहानी विकलांग हो जाएगी। इसलिए मेरी कहानियों के पात्रों के नाम पाशा, अनहद, विरूपाक्ष, रिपुदमन, विवान डगलस, कामिल, मूमल, बोसीदनी, दाक्षायणी जैसे होते हैं।

आप कहानियाँ लिखते हैं, उपन्यास लिखते हैं, इतिहास पर किताबें लिखते हैं, ‘अकार’ के संपादक हैं, ‘संगमन’ के संयोजक हैं, आपका अपना व्यवसाय भी है और भी इसके अतिरिक्त जीवन में कई अन्य दैनिक कार्यकलाप होते हैं। एक व्यक्ति के रूप आप इतना सब कुछ कैसे मैनेज करते हैं?

इसका सबसे पहला कारण तो यह है कि मैं अकेला हूँ और इससे मेरे पास काफ़ी समय रहता है। ज़िम्मेदारियाँ सीधे-सीधे कोई नहीं हैं, इसलिए इस सबके लिए वक़्त निकाल पाता हूँ। रात में आठ बजे तक सो जाता हूँ, सुबह चार बजे उठ जाता हूँ—चाहे मौसम कोई भी हो। इससे एक पूरा दिन मेरे पास रहता है। स्वस्थ बने रहने की चेष्टा करता हूँ। अध्ययन, अनुशासन और परिश्रम पर बेहद यक़ीन करता हूँ। शायद इसलिए ही थोड़ा-बहुत कुछ कर पाता हूँ।

आपने विवाह क्यों नहीं किया?

इस सवाल का उत्तर देना अब कठिन है। जब उम्र थी, तब तो एक या दो कारण बता सकता था। अब इतना जीवन बीतने के बाद सब गड्डमड्ड हो गया है। अब विवाह न करने का कोई एक कारण बताना, एक तरह से अधूरा या शायद ग़लत कारण बताना हो जाएगा। हाँ, लेकिन यह ज़रूर कह सकता हूँ कि मुझे विवाह न करने का कोई अफ़सोस नहीं है; बल्कि अक्सर यह लगता है कि इससे जीवन शायद अधिक सरल और स्वच्छंद रहा। मुझे प्रेम करने वाले हमेशा मिलते रहे। आज भी हैं। मेरे लिए हमेशा यही महत्त्वपूर्ण रहा, विवाह नहीं।

एक प्रश्न यह है कि आप कविताएँ कम पढ़ते हैं? एक प्रश्न यह भी हो सकता है कि आप कविताएँ कब पढ़ते हैं?

कविताएँ मैं कम नहीं पढ़ता हूँ। आप बहुत आराम से मुझसे संस्कृत महाकाव्यों, इंग्लिश पोएट्री, उर्दू शाइरी और नई/पुरानी हिंदी कविता सहित विश्व कविता पर बात कर सकते हैं। लेकिन कविता की मेरी पसंद बहुत अलग है। काव्य-संस्कार मेरे भीतर मौजूद है, शुरू में मैंने कुछ कविताएँ भी लिखी हैं और मेरी भाषा पर काव्यात्मकता के ‘आरोप’ भी लगते रहते हैं। मैं कविताएँ बराबर पढ़ता रहता हूँ।

एक व्यक्ति, एक लेखक के रूप में ‘कानपुर’ का क्या अर्थ है आपके लिए? इस शहर को आज कहाँ देखते हैं?

मैं जिस घर में बैठा हूँ, इस घर में ही पैदा हुआ, लगभग साठ वर्षों से इस घर में ही हूँ और संभवत: मेरी मृत्यु भी इस घर में ही होगी। मैंने अब तक का सारा जीवन इस घर में ही गुज़ारा है। आजकल लोग एक घर क्या एक शहर, एक देश में ज़्यादा समय तक नहीं रह पाते। कहने का अर्थ यह है कि आज ऐसा कोई व्यक्ति ढूँढ़ पाना मुश्किल है, जो विस्थापित न हो, इस अर्थ में मैं भौगोलिक स्तर पर बिल्कुल भी विस्थापित नहीं हूँ। (अन्य स्तरों पर हो सकता हूँ।) मेरा कानपुर से बहुत गहरा नाता और लगाव है। मेरा यह मानना है कि जिस लेखक के पास कोई शहर होता है, जिसकी जड़ें किसी शहर में होती हैं, उसके लेखन में एक अतिरिक्त तत्त्व, एक अतिरिक्त शक्ति स्वत: आ जाती है। नई पीढ़ी के लेखकों का एक बड़ा संकट यह भी है कि उनमें से संभवत: किसी की भी जड़ें किसी भी शहर में नहीं हैं। जीवन और जीवनयापन के चक्कर में ये विस्थापित युवा हैं। ऐसे में लेखन में भी एक बिखराव आ जाता है। हालाँकि दुनिया के बहुत बड़े-बड़े लेखक अपने मूल शहर से विस्थापित हुए हैं, लेकिन उनकी चेतना से उनका शहर कभी भी विस्थापित नहीं हुआ। उनकी रचना और उनका हर पात्र घूम-फिरकर उसी शहर में लौटता रहा, जहाँ के वे थे। मेरी प्रत्येक रचना में ‘कानपुर’ एक पात्र की तरह है और आज इस शहर को नष्ट होते हुए देखना वैसे ही है, जैसे अपने किसी पारिवारिक व्यक्ति को धीरे-धीरे मरते हुए देखना।

एक नए लेखक को क्या सलाह देना चाहेंगे?

तीन चीज़ें एक नए लेखक के लिए बहुत नुक़सानदायक हैं—पहली प्रसिद्धि, दूसरी आत्मसंतुष्टि और तीसरी ईर्ष्या। ये तीन चीज़ें रचनात्मकता को धीरे-धीरे कुतरती हैं, अगर कोई भी लेखक स्वयं को इनके प्रभाव से बचा ले जाता है, तब वह अवश्य ही बड़ी रचनाएँ संभव कर पाएगा।

आपसे आख़िरी प्रश्न ‘प्रेम’ पर है। ‘प्रेम’ आपके अब तक के लेखन में एक केंद्रीय तत्त्व की तरह रहा है। लेकिन इधर ‘प्रेम’ एक विकृत विचार की तरह हो गया है। बाज़ार, सेक्स सर्वेक्षणों, लिव-इन रिलेशनशिप, मैसेजिंग, इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, करियर और सामाजिक असुरक्षा ने प्रेम को अनुभूति के स्तर पर लगभग शून्य कर दिया है। इस सब पर आप क्या सोचते हैं?

इस प्रश्न से लगता है कि आप चाहते हैं कि मैं ‘प्रेम’ विषय पर बात न करूँ, मैं युवाओं के ‘प्रेम’ पर बात करूँ, स्वतंत्र रूप से ‘प्रेम’ पर बात न करूँ। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि आप कैसे कह सकते हैं कि ‘प्रेम’ विकृत हुआ है। आप इसे इस तरह जर्नलाइज़ नहीं कर सकते हैं। हो सकता है कि आज भी इसी क्षण कहीं कोई दो लोग बहुत गहरे प्रेम में डूबे हुए हों, आपको क्या पता? प्रेम के बारे में एक सवाल मैं आपसे करता हूँ, सबसे करता हूँ, मुझे इसका उत्तर आज तक नहीं मिला कि किसी को कैसे पता होता है कि अब इस क्षण, इसी क्षण वह प्रेम में प्रवेश कर गया। एक क्षण पहले उसे प्रेम नहीं था और एक क्षण बाद वह प्रेम के संसार में चला गया। आख़िर उसे कैसे पता चलता है कि एक क्षण में क्या अंतर आ गया? इस परिवर्तन की पहचान क्या है? जब कोई कहता है कि मैं प्रेम में हूँ, तब उससे यह पूछो कि जब तुम प्रेम में नहीं थे तब और अब में क्या फ़र्क़ आ गया। बाहरी फ़र्क़ कुछ नहीं होता और इसलिए मैं आपसे बिल्कुल असहमत हूँ। यह तो बिल्कुल भी संभव नहीं है कि एक पूरी की पूरी पीढ़ी प्रेमविहीन हो जाए, सोचिए इस धरती का क्या होगा?