दुःख की नई भाषा

दुःख के अथाह सागर में डूबा हुआ हूँ। जब भी पीड़ा में होता हूँ, अपनी व्यथा को व्यक्त करने के लिए नए बिंब तलाशने की बजाय परिचित भाषा में कहता हूँ। अभी मैं इस उद्देश्य से लिख रहा हूँ कि मुझे दुखों की अभिव्यक्ति के लिए उचित भाषा प्राप्त हो और दूसरा कि मैं अपने दुःख को जान सकूँ। हम अपने दुखों को उनके बीतने के कुछ समय पश्चात ही समझ पाते हैं।

आज मैं ख़ुद को इसी अथाह सागर में पा रहा हूँ, जिसे समझने के प्रयास में लिख रहा हूँ, जिसे भाषा में बेहतर ढंग से व्यक्त करने को लिख रहा हूँ, जिसे मैं ख़ुद से बाहर निकालकर अमूर्तन को शब्दों और पंक्तियों के मूर्त रूप में बाँधने के यत्न में लिख रहा हूँ।

मुझे अपनी बात कहने में झिझक होती है। जो बहुत प्रिय भी होते हैं, उन्हें मेरे भीतरी उथल-पुथल का अंदाज़ा नहीं होने देता हूँ। ऐसे में एक प्रिय है जिससे अपनी पीड़ा को दूसरे भावों में बदल लेता हूँ।

भाव भी ऊर्जा के सिद्धांत की तरह, एक रूप से दूसरे में परावर्तित हो जाते हैं। जब आप असह्य पीड़ा में हों और आपके सामने बाल-मन की कोई निर्दोष शैतानी घटित हो, आप अपनी पीड़ा भूल उस बालपन में ख़ुद को तर पाएँगे। उसी तरह मैं उससे बात करना चाहता हूँ, पर वह भी व्यस्त है।

अपनी दादी के देहांत की वजह से उपजे निर्वात को समझने की लाठी कहीं खो सी गई है।

दुःख तो तुमने कहाँ झेला है
अपरिचित हो अभी तुम उसकी नियमावली से

ऐसे समय में आपके पास दो विकल्प होते हैं—पहला यह कि आप ख़ुद में सब कुछ भरते जाएँ और अपनी निकटता को उसकी उष्ण ताप में पिघलने दें, या दूसरा यह कि आप भरसक प्रयास करें इस अलिखित नियमावली को जानने-बूझने का।

अभी तक मैं सब कुछ अपने भीतर भरता था; पर जबसे उसे व्यक्त करके, समझ करके, उसके निकलने को एक रास्ता देना सीखा हूँ, अपने भीतर जज़्ब करना असंभव-सा हो गया है।

आने और जाने के मध्य के काल-खंड में
तुमने अपने होने भर से
अस्तित्व की कई दशाओं का उन्मूलन किया है

दुःख माँजता है, पर तब जब आप उसे उसकी समग्रता में समझ सकें। एक दृश्य मुझे बार-बार दीखता है—प्रातः काल की बेला, पक्षियों का उन्मुक्त कलरव और घर की औरतों का ग़म में रोना। सुबह-सुबह ही पितामही ने प्राण त्यागे थे, उनके पार्थिव शरीर को हम कमरे से निकाल बाहर लाए थे, अगल-बग़ल से भीड़ शोकाकुल को ढाँढस बँधाने और आगे के कर्तव्य सुझाने जुट आई थी… सब कुछ ऑटोमेटिक तरीक़े से होने लगा था। ऐसा नहीं की उनकी मृत्यु अप्रत्याशित थी, पर आख़िर मृत्यु कब अप्रत्याशित नहीं होती?

इस अचानक में सब कुछ किसी इतिहास के क्रम की आगे की कड़ी जैसा दिखना, मुझे मौन कर गया। मैं रो रहा था, पीछे पंछियों-माताओं-पिताओं की मिश्रित ध्वनि कोरस बना रही थी… और मैं गूँगा हो चुका था।

उसके बाद से कर्म-कांड की एक लंबी फ़ेहरिस्त जो ब्राह्मण सत्ता की परिचायक है, उसे भुलावे के तौर पर आपके सामने रख दिया जाता है। इस सामाजिक संरचना में आप उससे हट नहीं सकते, और तो और यह अपने बिछुड़े के साथ किया गया धोखा महसूस होता है।

इन्हीं कामों में व्यस्त, आप उस गूँगेपन को भाषा में ट्रांसफ़र करना चाहते हैं। यह आपकी प्रिय ही आपसे करा सकती है। पर उसके अपने दुःख हैं। उसकी अपनी व्याकरणिक त्रुटियाँ हैं। लेकिन आप अभी नाराज़ हो जाएँगे। आपका गूँगापन आपको वैचारिक स्तर पर हिंसक बना देगा। आप अपनी अभिव्यक्ति की असमर्थता को आपके साथ हो रहे छल के भाव में अनूदित करेंगे।

अभी तक जो रहा है अव्यक्त
वह तुम पर व्यक्त होगा
टूटेगा उस नई भाषा में
जिसे रचा है उसने
अपने अज्ञातवास के क्षणों में

धीरे-धीरे आप पर वह दुःख अपनी समग्रता में तारी हो जाएगा। आप फिर से उसी प्रिय के पास वापस जाएँगे। वह अब आपके इस बार-बार की आवाजाही से ऊब चुकी होगी। अब वह आपको पहले अपनी समस्या बताएगी, आप नहीं मानेंगे, फिर वह आपको झुलाएगी, आप झुँझलाएँगे, आप उससे दूर हो जाना चाहेंगे। आपके दुःख की नींव पर नए दुखों की दीवार बनेगी।

मैं इसी समय में ख़ुद को दुःख के अथाह सागर में पाता हूँ। यही मुझे परिभाषित करने में बार-बार भाषाई अपूर्णता दिख जाती है। मेरे सीने में दर्द हो रहा है, मैं साहित्य में अपना अक्स खोज रहा हूँ, कला में तर जाना चाह रहा हूँ, हर हाल में अपने महसूसने को बाह्य बिंदु तक खींचकर उसकी पड़ताल करना चाहता हूँ। पर यह करने में हर ओर से असफल हो रहा हूँ।

मैंने आख़िरी कुंजी शायद कहीं फेंक दी है।