कमलेश्वर की लिखी एक दुर्लभ फ़िल्म

पापा, क्यों सब लोग मिलकर; मुझे तुमसे अलग करना चाहते हैं? मुझे और पुरुषों से कुछ भी लेना-देना नहीं है। अगर तुम मेरे साथ नहीं रह सकते तो मुझे यहाँ से इन सब लोगों से दूर कहीं और ले चलो। अब तो मम्मी अकेली नहीं रही। अब तो बस मैं ही अकेली रह गई हूँ। मुझे इस तरह अकेली मत छोड़ दो पापा!

— ‘फिर भी’ फ़िल्म के एक दृश्य में नायिका सुमन का एकालाप

इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स नव-फ्रायडवादी मनोविज्ञानी कार्ल गुस्ताफ़ युंग ने एक मनोग्रंथि को यह नाम दिया था, जिसमें लड़की के भीतर अनजाने ही अपने पिता से अत्यधिक लगाव और प्रेम पैदा हो जाता है। उसे फिर अपने जीवन में आने वाला कोई भी पुरुष पूर्ण नहीं दिखता। वह किसी पुरुष के साथ सहज नहीं हो पाती। इसे किसी कथा-कहानी या फ़िल्म की विषय-वस्तु बनाना आज भी मुश्किल है तो क़रीब 50 साल पहले कितना मुश्किल रहा होगा। शिवेंद्र सिन्हा ने 1971 में एक अद्भुत फ़िल्म बनाई थी। फ़िल्म का शीर्षक था—‘फिर भी’। यह समांतर सिनेमा की बस शुरुआत ही थी। इस फ़िल्म के रिलीज होने से दो साल पहले राजेंद्र यादव के उपन्यास पर बासु चटर्जी की फ़िल्म ‘सारा आकाश’ और मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’ जैसी फ़िल्में रिलीज हुई थीं, जिन्हें समानांतर सिनेमा की बुनियाद कहा जा सकता है।

इसी क्रम में आगे कई और फ़िल्में भी सामने आईं, जिनमें एक ‘फिर भी’ कमलेश्वर की कहानी ‘तलाश’ पर आधारित थी। इसकी पटकथा और संवाद भी उन्होंने ही लिखे थे। बाद में फ़िल्म की पटकथा हिंद पॉकेट बुक्स से प्रकाशित हुई थी। कमलेश्वर अपने संस्मरण ‘यादों के चिराग’ में लिखते हैं, ‘‘शिवेंद्र सिन्हा मेरी कहानी ‘तलाश’ पर फ़िल्म बनाना चाहते थे। तीसरे दिन एफ़एफ़सी की स्क्रिप्ट कमेटी की मीटिंग थी, अतः रातों-रात ‘तलाश’ कहानी का पहला मसविदा तैयार किया गया, उसे नया नाम ‘फिर भी’ दिया गया और स्क्रिप्ट दाख़िल कर दी गई। वह एफ़एफ़सी द्वारा मंज़ूर कर ली गई। कहानी मंज़ूर होते ही उसके और विकसित मसविदे पर मैंने काम करना शुरू किया। अब आठ-दस दिन का समय हाथ में था। बहुत मेहनत के बाद फ़िल्म की पटकथा और संवाद तैयार हुए… यानी पूरा आलेख निर्देशक को सौंप दिया गया।’’

यह फ़िल्म सुमी यानी सुमन (बैंबी) की कहानी कहती है, जो अपने पिता की स्मृतियों से अपने जीवन के ख़ालीपन को भर रही है। वह अपनी माँ उर्मिला (उर्मिला भट्ट) के साथ मुंबई महानगर में रहती है। किशोरवय में सुमन के पिता अमिताभ (देवेन श्रीवास्तव) की एक दुर्घटना में मौत हो जाती है। अब वह एक एक टेलीफ़ोन एक्सचेंज में नौकरी करती है और बचे वक़्त में अपनी माँ को ख़ुश रखने का प्रयास करती है। पिता उसकी यादों में बहुत गहराई से बसे हैं। ख़ाली वक़्त में वह उनकी तस्वीर देखती है, उनका ओवरकोट और हैट लगाकर आईने में ख़ुद को देखती है, उनकी डायरी पढ़ती है और अकेले में पिता से बातें भी करती है। एक जगह सुमी अपने पिता के बारे में कहती है, ‘‘हाँ, मेरे पापा एक अद्भुत व्यक्ति थे। मैं एक पुरुष या इंसान में किसी ऐसे गुण की कल्पना कर ही नहीं सकती, जो पापा में नहीं थे। वह शरीर, मन और मस्तिष्क-सभी में उतने ही सुंदर, उतने ही विशाल थे। एक वैज्ञानिक होते हुए भी, उन्हें कला और अध्यात्म में गहरी रुचि थी। जीवन में सुखों को पूरी तरह भोगने में अपनी पूरी कामना और शक्ति से लगे हुए रहकर भी वे जीवन की पीड़ाओं और मनुष्य की सफ़रिंग के प्रति बहुत ही संवेदनशील और सजग थे। पापा मेरे सारे जीवन में हर क्षण के अनुभव में छाए हुए हैं…’’

फ़िल्म के आरंभिक हिस्से में सुमी की इन यादों की पृष्ठभूमि में हम हरिवंश राय बच्चन का लिखा एक बहुत ही ख़ूबसूरत गीत सुनते हैं। हेमंत कुमार और रानू मुखर्जी की आवाज में :

साँझ खिले
भोर झरे
फूर हरसिंगार के
रात महकती रही
दीप ये द्वार-द्वार के
राह चमकती रही

सुमन की युवावस्था अब ढलान की तरफ़ बढ़ रही है। अपने आस-पास के पुरुषों में उसकी दिलचस्पी नहीं है। वह पिता की यादों में ही खोए रहना पसंद करती है। एक दिन अचानक उसे पता लगता है कि उसकी माँ के जीवन में कोई और पुरुष आ गया है। सुमन को शॉक लगता है, मगर वह माँ की ख़ुशी के लिए तय करती है कि वह उनसे दूर हो जाएगी। वह हॉस्टल में चली जाती है ताकि माँ अपने जीवन को ज़्यादा आज़ादी से जी सके। कमलेश्वर फ़िल्म में दर्शाए गए माँ-बेटी के जटिल रिश्तों के बारे में लिखते हैं, ‘‘नायिका अपनी माँ की प्रकृत और अनिवार्य भावनात्मक और दैहिक आपूर्तियों को तरज़ीह देकर खुद अपनी माँ की माँ बनने की भूमिका निभाती है और उसमें अलौकिक मातृत्व सुख प्राप्त करती है।’’ इस तरह कमलेश्वर की कहानी पर आधारित यह फ़िल्म उस देहरी पर खड़ी होकर झाँकने का साहस करती है, जो हिंदी के लेखकों को आज भी असहज बना देता है। यही वजह है कि जब पवन करण 20वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में ‘प्यार में डूबी हुई माँ’ शीर्षक से कविता लिखते हैं तो विष्णु नागर लिखते हैं, ‘‘प्यार में डूबी हुई माँ ने पहली बार हिंदी कविता में प्रवेश पाया है।’’ यह हैरान करता है कि एक अचर्चित-सी फ़िल्म में अभिव्यक्ति की अनुगूँज किस तरह साहित्य की एक विधा में प्रतिध्वनित होती है। पवन करण इस कविता में कहते हैं :

अब तुम्हें वाक़ई नहीं मालूम पिता कि माँ
इस उम्र में कितनी ख़ूबसूरत देती है दिखाई
और प्रेम करती माँ को देखती
मैं क्यों न फिरूँ बौराई
प्रेम करती हुई माँ इन दिनों
बिल्कुल मुझ जैसी लगने लगी है
जैसे मेरे स्कूल की कोई सहेली—
शरारती, चंचल और हँसमुख

कथाकार और अनुवादक यादवेंद्र याद करते हैं, ‘‘धर्मयुग में प्रकाशित कमलेश्वर की कहानी ‘तलाश’ पर आधारित ‘फिर भी’ मेरे जीवन की यादगार फ़िल्मों में शामिल है। जीवित माँ-बेटी के रिश्तों पर आधारित फ़िल्म में अ-जीवित पिता जितने सघन रूप में उपस्थित थे, यह फ़िल्म की ख़ास बात थी—आज भी खंडाला के जल-प्रपातों के पास पिता बेटी की घुड़सवारी के दृश्य और धारासार गिरते जल की ध्वनियाँ मेरे मन पर हावी हैं।’’ अपनी कहानियों और उपन्यासों की तरह कमलेश्वर ने इस फ़िल्म में भी मानव-मन के अनदेखे-अनछुए पहलुओं का अद्भुत चित्रण किया है। इलेक्ट्रा कॉम्प्लेक्स तो सिर्फ़ एक आधार है। इस पर रिश्तों की जो कहानी खड़ी हुई है, वह आधुनिक जीवन के तमाम सवालों से टकराती है। बहुत से सवालों का जवाब आज 50 साल बाद भी शायद हम नहीं खोज पाए हैं। यह एक अस्तित्ववादी फ़िल्म है, जो अकेले जीने के सवाल से भी टकराती है।

कमलेश्वर लिखते हैं, “फिर भी की नायिका बैंबी थीं। उन्हें प्रख्यात और वरिष्ठ सिने निर्देशक केदार शर्मा ने खोजा था। शर्मा जी की अन्य खोजों मे राज कपूर और गीता बाली भी थीं। राज कपूर उनके कनिष्ठ सहायक रहे थे और केदार शर्मा ने ही राज कपूर को पहली बार हीरो के रूप में फ़िल्मी पर्दे पर पेश किया था। कहने का मतलब सिर्फ़ यह है कि केदार शर्मा तितलियाँ नहीं खोजते थे। वह गंभीर विषयों पर गंभीर अभिनय में विश्वास रखते थे। फ़िल्म की नायिका बैंबी उसी भट्टी में पकी थीं, सोचने-समझने वाली युवती थीं।”

बैंबी ने इस फ़िल्म में अपने अभिनय के माध्यम से सुमन के जीवन में उतर आए एकाकीपन और मन की जटिलताओं को बहुत संवेदनशील तरीक़े से साकार किया है। टेलीफ़ोन एक्सचेंज का एक अधिकारी महेंद्र नाथ (प्रताप शर्मा) फ़िल्म की नायिका सुमन को पसंद करने लगता है। सुमन जब कभी उसके क़रीब जाती है तो एक अंतर्द्वंद्व में फँस जाती है। एक तरफ बढ़ती उम्र, अकेलापन और शरीर की ज़रूरतें हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ उसके अवचेतन में बैठी पिता की एक ऐसी छवि है, जिसकी जगह कोई दूसरा पुरुष नहीं ले सकता। ऐसा नहीं है कि सुमन अपने मन में चल रही इस दुविधा से बिल्कुल अनभिज्ञ है। वह अपनी सहेली से कभी-कभार अपने मन में चल रही उथल-पुथल पर चर्चा भी करती है। फ़िल्म के इस हिस्से में हेमंत कुमार की आवाज़ में एक बहुत सुंदर गीत है। जिसे कवि नरेंद्र शर्मा ने लिखा है। गीत के बोल हैं :

हम चाहें या न चाहें
हमराही बना लेती हैं
हमको जीवन की राहें
हम चाहें या न चाहें

ये राहें कहाँ से आतीं
ये राहें कहाँ ले जातीं
राहें धरती के तन पर
आकाश की फैली बाहें
हम चाहें या न चाहें

https://www.youtube.com/watch?v=3lDj_Rtk6fk

फ़िल्म के सभी गीतों में शब्दों का चयन बहुत ही काव्यात्मक है। हिंदी सिनेमा के गीतों में उर्दू ग़ज़ल, नज़्मों और लोकगीतों का असर रहा है; मगर बहुत-सी फ़िल्मों में परिनिष्ठ हिंदी के भी बेहतरीन उदाहरण मिलते हैं। ‘फिर भी’ के गीत ऐसे ही उदाहरणों में से एक हैं। मन्ना डे की आवाज़ में एक और बहुत सुंदर गीत है, जिसके बोल हैं :

क्यों प्याला छलकता है
क्यों दीपक जलता है
दोनों के मन में कहीं 
अनहोनी विकलता है
क्यों प्याला छलकता है

https://www.youtube.com/watch?v=sCuZPZYxdXE

निर्देशक शिवेंद्र सिन्हा ने मन के भीतर चल रही उलझनों को बड़ी ख़ूबसूरती से फ्रीज़ शॉट, निगेटिव और मोंताज़ के ज़रिए स्क्रीन पर दिखाया है। ख़ास तौर पर बैकग्राउंड में आवाज़ों का बहुत ही रचनात्मक इस्तेमाल किया गया है। फ़िल्म अपने पात्रों के साथ बहुत आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ती है और कई सवालों को टटोलती हुई चलती है। किसी बने-बनाए जवाब की तरफ़ नहीं जाती। इसके ज़्यादातर संवाद भी हल्की-सी साहित्यिकता का पुट लिए हैं, जो फ़िल्म में एक अलग तासीर पैदा करते हैं। कुछ संवाद बहुत ही अच्छे हैं, जैसे एक जगह सुमन अपनी सहेली इंदिरा से बात कर रही होती है :

सुमन पूछती है : कैसा होता होगा माँ बनने का अनुभव?
इंदिरा : शायद भीतर ही भीतर लाखों फूल खिल उठने की तरह। उनकी महक के अथाह समुद्र में डूब जाने की तरह। अभी तो बस मैं उसकी कल्पना भर ही कर पाती हूँ। (सुमन की तरफ़ देखते हुए) सुमी, तू अपने बारे में कभी कुछ सोचती ही नहीं?
सुमन (खोई-खोई सी कहती है) : क्या सोचूँ? मेरे मन की तो कोई आवश्यकता ही नहीं… और जो है उसे शायद कोई पूरा नहीं कर पाएगा।
इंदिरा : मन के अलावा शरीर भी तो है…
सुमन का सवाल है : क्या शरीर का अकेलापन केवल शरीर से मिट सकता है?
इंदिरा : भई, हम जैसों के लिए तो यही सच है… प्रेम की ज़रूरत सबको होती है और एक उम्र में शारीरिक प्रेम की भी ज़रूरत होती है… प्रेम भरे गर्म अंगों के स्पर्श की।

यह उस समय की बात है जब फ़िल्मों में स्त्रियाँ अगर केंद्रीय भूमिका में होती थीं तो उन्हें सामाजिक व्यवस्था से संचालित होते या फिर समाज, परिवार और दूसरों के लिए अपनी ख़ुशियों का त्याग करते दिखाया जाता था। स्त्रियाँ अपने मन और शरीर की ज़रूरतों के बारे में सोच सकती हैं, यह हिंदी सिनेमा के लिए बिल्कुल नया था।

इसी तरह एक जगह महेंद्रनाथ और सुमन के बीच बहुत सुंदर संवाद हैं :

महेंद्रनाथ : क्या सोच रही हो सुमी?
सुमन : सोच रही हूँ जीवन का अर्थ क्या है? उद्देश्य क्या है?
महेंद्रनाथ : जीवन का अर्थ है जीना और वर्तमान में जीना। जीवन का अर्थ अपने आस-पास की चीज़ों में से ढूँढ़कर निकालना पड़ता है। हर दिन की छोटी-छोटी बातों में से। और फिर एक दिन यही छोटी-छोटी बातें बहुत बड़ी भी बन जाती हैं। (सुमन की तरफ़ देखते हुए) मेरे लिए यह बहुत अर्थ रखता है कि मैं तुम्हारे पास हूँ और तुमसे बातें कर रहा हूँ।

सुमन के मन में महेंद्रनाथ के प्रति अनुराग के बहुत महीन रेशों को बड़ी ख़ूबसूरती से दिखाया गया है। सुमन कबूतरों को दाना देते-देते उनके साथ खेलने लगती है। वे दोनों साथ-साथ एक झरने को देखते हैं। मौसम बदलने लगता है। मुंबई शहर बारिश में नहा जाता है। इन्हीं सब के बीच एक दिन वह देखती हैं कि माँ के जीवन में बहुत कुछ अच्छा नहीं हो रहा है। उनके जीवन में कोई शख़्स जिस तरह आया था, उसी तरह चला भी गया। सुमी अचानक बदल जाती है। वह उत्साह में आ जाती है। पहले की तरह माँ के साथ चहकने लगती है। यहाँ पर भी कुछ सुंदर संवाद हैं :

माँ कहती हैं : सुमी, मेरे रणधीर को नहीं स्वीकार नहीं पाने का कहीं न कहीं एक कारण और है… और वह है हममें कूट-कूटकर भरा गया मानसिक दमन—प्रेम के प्रति, पुरुषों के प्रति, सेक्स के प्रति। इतनी शर्म की भावना, इतना दोष का एहसास, इतना पाप का भय। उन सब बातों के प्रति जो न केवल स्वाभाविक हैं और सुंदर हैं गरिमापूर्ण हैं।
सुमन (शायद बात बदलना चाहती है) : मम्मी तुम्हारी चाय ठंडी हो रही है…
माँ : सुमी, क्या तुझे अभी तक कोई नहीं मिला?
सुमन : एक मिला है…
माँ : कौन?
सुमन : वही… महेंद्र… पर किसी को पूरी तरह जान पाता है मम्मी।
माँ : संपूर्ण स्वप्नपुरुष तो बिरले ही मिलता है सुमी। आधा मिलता है, आधा बनाना पड़ता है।

यह फ़िल्म देखना एक अनुभव है। एक छोटे-से जीवन को जीना है। कुछ किरदारों के साथ रहना है। किसी उपन्यास की तरह वे फ़िल्म ख़त्म होने के बाद भी आपके भीतर बहुत समय तक रहेंगे। मुंबई की ख़ूबसूरती के लिए भी यह फ़िल्म देखी जानी चाहिए। सड़कें, सागर-तट, आसमान। मोबाइल, इंटरनेट और संचार-क्रांति के इस समय में आज से 50 साल पहले के टेलीफ़ोन एक्सचेंज को देखना सुखद है। वहाँ के माहौल बड़े ही प्रामाणिक ढंग से शूट किया गया है। जब फ़ोन करके कोई नंबर मिलाने को कहा जाता था। सुमन टेलीफ़ोन एक्सचेंज की इसी दुनिया को पसंद करती है। उसे लगता है कि वह तमाम लोगों को एक-दूसरे से जोड़ रही है। फ़िल्म में बहुत गिने-चुने पात्र हैं। बहुत जगह फ़िल्म धीमी लग सकती है। लेकिन धीमेपन का भी अपना एक सुख है… संगीत के आलाप की तरह।

यहाँ कुछ जानकारी फ़िल्म के निर्देशक शिवेंद्र सिन्हा के बारे में भी। शिवेंद्र ने लंदन यूनिवर्सिटी से ड्रामेटिक आर्ट में डिप्लोमा किया था और उसके बाद रॉयल अकादेमी ऑफ़ ड्रामेटिक आर्ट से उन्होंने स्नातक किया। बाद में उन्होंने बर्लिन में और साथ ही साथ यूरोप के विभिन्न हिस्सों में रेडियो, टी.वी. और फ़िल्म के लिए थिएटर का अध्ययन और प्रशिक्षण लिया। भारत वापस आकर उन्होंने कई नाटकों और फिल्मों में अभिनय किया और देश के कई सांस्कृतिक निकायों में काम किया। उन्होंने एक बच्चों की फ़िल्म के अलावा 1971 में ‘फिर भी’ बनाई जिसे कई अन्य पुरस्कारों के अलावा राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। इस फ़िल्म में निर्देशक ने बहुत सारे प्रयोग किए हैं, जिनके माध्यम से सिनेमा के परंपरागत नैरेटिव स्ट्रक्चर को तोड़ा गया है। फ़िल्म का अंत भी इस लिहाज़ से आम फ़िल्मों से बहुत अलग है, जिसमें बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की एलियनेशन शैली का प्रयोग किया गया है। सुमन की माँ अंत में सीधे दर्शकों को संबोधित करती हैं। वह कहती हैं, ‘‘मैं चलते-चलते दो शब्द आप से कहना चाहूँगी। यह फ़िल्म की समाप्ति हो सकती है, मेरी और सुमी की कहानी की नहीं। उन गढ़ी हुई कहानियों का आरंभ, उनकी कड़ियाँ और उनका अंत तो बना दिए जाते हैं। ऐसा जीवन में कहाँ होता है? अमिताभ की मृत्यु के बाद… भी उनकी कहानी ख़त्म हो पाई क्या?’’

यह फ़िल्म अब लगभग लुप्तप्राय है। कुछ सिनेमा-प्रेमियों के निजी संकलन में यह मिल जाएगी। इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि इसका कोई ठीक-ठाक प्रिंट कहीं पर मौजूद है। अविजीत घोष अपनी किताब ‘40 रीटेक्स, बॉलीवुड क्लासिक्स यू मे हैव मिस्ड’ में जब भारतीय सिनेमा की कुछ अचर्चित फिल्मों के बारे में लिखते हैं तो इस फ़िल्म को शामिल न कर पाने पर अफ़सोस ज़ाहिर करते हैं। अपनी भूमिका में वह कहते हैं, ‘‘दुर्भाग्यवश मैं इस फ़िल्म का प्रिंट नहीं पा सका। हालाँकि मुझे यक़ीन है कि यह कहीं पर अवश्य मौजूद होगा। इस फ़िल्म से जुड़े लोगों से संपर्क करने के मेरे प्रयास असफल रहे। शिवेंद्र सिन्हा कुछ साल पहले चल बसे। अभिनेत्री उर्मिला भट्ट की कुछ साल पहले हत्या हो गई। मुझे अभिनेता प्रताप शर्मा से मिलने की उम्मीद थी। दुर्भाग्य से उन्होंने 2011 में अंतिम साँसें लीं। उनकी बेटी से ई-मेल के ज़रिए संपर्क करना चाहा मगर बात बनी नहीं।’’

‘फिर भी’ कैमरे की मदद से रचा गया साहित्य है। नई कहानी के ज़रिए जिस तरह भारतीय मध्यवर्गीय जीवन के नए पहलू उद्घाटित हुए थे, वैचारिक खुलेपन को बयार चली थी; उसे काफ़ी हद तक इस फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है। यह भारतीय सिनेमा के कुछ साहसिक प्रयोगों में से एक है। इसे सम्मान दिया जाना चाहिए।