मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ
मैं जब भी कोई किताब पढ़ता हूँ तो हमेशा लाल रंग की कलम या हाईलाइटर साथ में रखता हूँ। जो भी कोई शब्द, पंक्ति या परिच्छेद महत्त्वपूर्ण लग जाए या पसंद आ जाए वहाँ बेरहमी से क़लम या हाईलाइटर चला देता हूँ—चाहे किताब कितनी भी महँगी और साफ़-सुथरी हो। हाँ, यह हरकत हमेशा केवल अपनी ही किताबों में करता हूँ। सफ़र तक के लिए भी जब किताब निकालता हूँ तो साथ में लाल क़लम या हाईलाइटर रखना नहीं भूलता। पढ़ते वक़्त कुछ बात मन में कौंधती है तो उसे भी उसी पृष्ठ के किनारे पर लिख डालता हूँ। ऐसा करते मैंने और भी लोगों को देखा है।
कुछ विद्वान तो इतने ज़बर्दस्त होते हैं कि लाइब्रेरी की पुस्तकों को भी रँगने और उसके पन्नों पर अपनी राय ज़ाहिर करने से बाज़ नहीं आते। (भगवान जाने वे अपनी किताबों के साथ क्या सुलूक करते होंगे!) कुछेक तो इतने ढीठ होते हैं कि अपने महान वक्तव्य के साथ हस्ताक्षर और तारीख़ अटैच करना भी ज़रूरी समझते हैं! मैंने पटना विश्वविद्यालय और जे.एन.यू. की लाइब्रेरी सहित अनेक पुस्तकालयों की बहुत सारी पुस्तकों पर विद्वानों की ऐसी शानदार हरकतें देखी हैं। कुछ विद्वान लाइब्रेरी की पुस्तकों पर सूत्रों में अपनी राय दर्ज कर देते हैं। यह मानने में मुझे आपत्ति नहीं है कि प्राय: मैंने भी उनकी राय से ख़ुद को सहमत पाया हूँ। जैसे जे.एन.यू. की लाइब्रेरी में मुझे कई किताबों के पहले ही पृष्ठ पर लिखा मिला—“एकदम चूतिया किताब है।” मैं एक-दो बार तो चौंका कि किताब भी चूतिया? हालाँकि पढ़ने के बाद मैं उस विद्वान की राय का क़ायल हो गया। कुछेक पर लिखा होता—“इसे पढ़ने में अपना वक़्त बर्बाद न करें।” इसी तरह कुछ किताबों पर लिखा मिला—“बहुत मस्त है।” लगभग हर बार मैं टिप्पणीकार से सहमत होता गया और बाद के दिनों में इस तरह की टिप्पणियाँ देखकर भी किताबें उठाने और छोड़ने लगा।
बहुत सारे ‘दीवाने’ तो ऐसे भी मिले जो बी.ए. और एम.ए. की परीक्षा कॉपियों में ही नहीं, बल्कि यूपीएससी और पीसीएस की मुख्य परीक्षा की कॉपियों में भी अपने ही लिखे उत्तर के महत्त्वपूर्ण अंशों को अंडरलाइन या हाईलाइट करना बहुत उपयोगी समझते थे। मुझे हमेशा इस पर कोफ़्त होती थी कि पढ़े-लिखे लोग ऐसा करने को भला कैसे उपयोगी मान लेते हैं! भगवान जाने परीक्षक पर उसका क्या असर पड़ता होगा!
किताबों के अंडरलाइन करने को देखकर मैं अक्सर व्यक्ति की मानसिकता या व्यक्तित्व का भी आकलन करता रहा हूँ। जैसे, मेरे कई मित्र बहुत आवश्यक होने पर ही किताबों में कोई चिह्न लगाते और उसके लिए भी पास में स्केल और पेंसिल रखते थे। वे बहुत नापकर पसंदीदा पंक्तियों के नीचे पेंसिल से हल्की-सी लाइन खींच देते थे। मेरी समझ से दुबारा उसे देखने के लिए भी उतनी ही मेहनत पड़ जाती होगी जितनी कि पढ़ने में! या कुछेक मित्र पेंसिल से किनारे में हल्का-सा टिक कर देते थे। इनमें से ज़्यादातर पढ़ने में बहुत कमज़ोर, रट्टेबाज और बहुत कम किताबें ख़रीदने वाले; किंतु किताबों की देख-सँभाल में ज़बरदस्त रुचि रखने वाले थे।
इस प्रसंग में मुझे पटना के एक मित्र की बहुत याद आती रहती है। अंतिम बार जब उससे मुलाक़ात हुई थी तो मैंने उससे पढ़ने के लिए कुछ किताबें ली थीं। तब मैं जे.एन.यू. में आ चुका था। दिल्ली आकर जब मैंने उसकी एक किताब उठाई तो मुझे घबराहट-सी होने लगी। लगभग पूरी की पूरी किताब बुरी तरह रँगी हुई थी और वह भी बहुत डार्क हाईलाइटर से। बहुत सारी जगहों पर तो कई-कई बार हाईलाइटर चलाए गए थे। उससे पढ़ने में तो मुश्किल हो ही रही थी, लेकिन किताब को देखकर मैं उसकी मन:स्थिति के बारे में बहुत चिंतित हो उठा था। लगभग तीनों-चारों किताबों की वैसी ही हालत थी। मैंने पटना में एक मित्र से बात की जो किताब लेने वाले दिन मेरे साथ ही उससे मिलने गया था। मैंने उससे आग्रह किया कि वह लगातार उससे मिलते रहे, चाहे वह जिस तरह भी मिले। वह पहले से ही बहुत उच्छृंखल था, मगर उन दिनों कुछ उग्र भी हो गया था और बात-बात पर अपना आपा खो देता था। हालाँकि हिंसक बिल्कुल नहीं था। जीवन की आपा-धापी में वक़्त होता ही किसके पास है! वह भी उससे एकाध बार ही मिलने जा सका और उसकी समझ में भी नहीं आया कि मैं उसे लेकर इतना परेशान क्यों हूँ। लेकिन मैं बहुत कुछ समझ रहा था। कुछ महीने बाद ख़बर मिली कि उसने आत्महत्या कर ली! उसका एक छोटा बेटा भी था। मुझे हमेशा यह अपराधबोध सालता रहता है कि अगर मैंने उन दिनों एकाध महीने की फ़ुर्सत निकाल ली होती तो उसे अवश्य बचा लेता! शायद मैं यह आकलन नहीं कर पाया था कि दुर्घटना इतनी जल्दी घट जाएगी! उसकी किताबें अब भी मेरे पास हैं…
बहरहाल, किताबों को अंडरलाइन करने की बात मैंने इसलिए शुरू की थी कि यह मेरे लिए किसी किताब की गुणवत्ता की भी कसौटी है। जिस किताब में जितनी ज़्यादा जगहों पर अंडरलाइन करता हूँ, वह किताब मेरी नज़र में उतनी ही ज़्यादा महत्त्व रखती है। यह पैमाना फ़िक्शन और नॉन फ़िक्शन तथा गद्य और पद्य सबके लिए है।