पहाड़ पर पिघलते मुहावरे

शुरुआत में ही बर्फ़ से ढका हुआ एक लकड़ी का पुल है, जिस पर बर्फ़ की एक मोटी चादर जमी है। के. अपनी आँखें उठाता है और महसूस करता है कि वह जिधर जा रहा है, वह ‘एक अदृश्य शून्य’ जान पड़ता है। सच में ऐसा ही है : ‘एक अदृश्य शून्य’, उसे मालूम है कि उस शून्य में कुछ तो है—एक क़िला, जिसे उसने पहले कभी नहीं देखा, जिसमें शायद वह कभी पाँव भी न रख पाए।

— रॉबर्तो कलासो, के.

भाषा और दृश्य के संबंधों पर विचार करते हुए मुझे एक बार विचित्र क़िस्म की अनुभूति हुई। मुझे लिखे हुए शब्द रेखाचित्र से दिखने लगे। ‘हाथी’ लिखे हुए शब्द में ‘ह’ और ‘थ’ दिखने की बजाय मुझे एक समूचे हाथी का चित्र दिखने लगा। मैंने अपने एक मित्र से पूछा कि भाषा और चित्रकला में क्या भेद है? वह मेरे ऊपर हँसने लगे। फिर मैंने कहा कि भाषा भी एक प्रकार की चित्रकला है—इस पर तो वह और ज़ोर-ज़ोर से हँसे! भाषा एक ऐसी चित्रकला है जिसमें रंगों और आड़ी-टेढ़ी रेखाओं का प्रत्यक्ष उपयोग नहीं होता। भाषा एक ठोस और विधिवत चित्रकला है जो व्याकरण से निर्मित और संचालित है। भाषा में कल्पना रचना की देह में नहीं, बल्कि रचना की आत्मा में होती है। यही वजह है कि आज के तकनीक-प्रधान युग में भाषा आधारित कलाओं की माँग घटने लगी है। नए युग की कलाएँ सीधे-सीधे दृश्य संचालित हैं, जहाँ कल्पना तो है, लेकिन वह सिर्फ़ कलाकार की दृष्टि में है—कला रसिक सिर्फ़ उस कला का तात्कालिक और दृश्य आस्वादन करता है।

बोलचाल में आमतौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले मुहावरे अगर अचानक से आपकी आँखों के सामने जीवंत हो उठें तो? जैसे—सब्र का बाँध टूटना। अगर आप अपनी आँखों के सामने बाँध टूटते हुए देखें तो शायद आपको इस मुहावरे की गंभीरता का एहसास होगा। जैसे झंडे गाड़ना, आप कोई क़िला फ़तह करें या किसी दुर्गम पहाड़ पर चढ़ें तो आपका मन बेबस ही वहाँ झंड़े गाड़ने का हो आएगा और आप ऐसे में न सिर्फ़ सुख का अनुभव करेंगे, बल्कि अपनी आँखों के सामने एक मुहावरों को घटित होते हुए देखेंगे। भाषा आपके सामने एक दृश्य में घटित होगी। यूँ तो भाषा का चरित्र कुछ ऐसा ही है। भाषा-प्रयोग में शब्दों का संबंध दृश्य माध्यम में ही उद्घाटित होता है।

झंडे गाड़ने का एक दृश्य : श्रद्धालु लोग और बहुत से दूसरे यात्राप्रिय लोग जब पहाड़ों पर ऊँची चढ़ाई करते हैं तो वहाँ वह अपनी इस उपलब्धि के साक्ष्य स्वरूप कोई धागा या कपड़ा बाँध आते हैं। हिमालय की यात्रा करने पर आपको एक ख़ास क़िस्म के धागे या कपड़े ऊँचाई पर स्थित मंदिरों के सामने बँधे दिखाई देंगे। ख़ैर, स्वाभाविक रूप से ग़ैर-धार्मिक लोग भी ऐसी जगहों पर पहुँचकर इन रीति-रिवाजों का पालन करते हैं; क्योंकि आख़िरकार यह सिर्फ़ एक आडंबर नहीं है बल्कि एक दुर्गम यात्रा पूरी करने की स्वीकृति भी है, दुर्गम यात्रा के अंत पर प्राप्त हुई तृप्ति का साक्ष्य है।

दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ना मुहावरों में झंडे गाड़ना ही है तो यथार्थ में भी वहाँ झंडे गाड़ना अपनी तृप्ति को एक दृश्य देना है। पिछले दिनों ऐसे ही एक दुर्गम पहाड़ पर चढ़ने का संयोग बना।

हमने होती भोर में चोपता से चंद्रशिला उत्तुंग पर चढ़ने की यात्रा प्रारंभ की। अँधेरे में ऊपर चढ़ते हुए हमें अपने साथ अन्य तमाम लोग मिले। हम सभी एक यांत्रिक गति से ऊपर चढ़ रहे थे, एक ऐसे रास्ते पर जिसका ओर-छोर हमें नहीं पता था, हम सिर्फ़ और सिर्फ़ अपनी टॉर्च से ज़मीन पर बने गोल टुकड़े में पैर रखते हुए बढ़ रहे थे। पहाड़ पर ऊपर चढ़ना आसान काम नहीं था, ख़ासकर तब जब आप शहरों की निर्जीव जीवन शैली के आदी हों और ऐसी यात्राओं का अनुभव न हो। लेकिन हम जैसे-जैसे बर्फ़ से ढके हुए रास्ते पर ऊपर की ओर बढ़ते गए, हमें यह एहसास तो हो गया था कि किसी जादुई दुनिया में प्रविष्ट होने वाले हैं। ठहरकर नीचे देखने पर छोटी-छोटी बत्तियों से ढके हुए सुप्त शहर और गाँव दिखाई देते थे तो ऊपर की ओर धवल नभ में बर्फ़ की तरह टिमटिमाते हुए सितारे, ऐसा धवल आसमान प्रदूषित शहरों में तो अब कभी दिखने से रहे… और हमारा उद्देश्य था—सूर्योदय से पहले चोटी पर यानी चंद्रशिला पहुँचने का।

जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर चढ़ते गए, हमने देखा कि कई लोग बीच रास्ते से वापस लौट रहे थे, हमारे साथ के कई लोग हमसे पीछे छूट रहे थे तो ऐसा भी हो रहा था कि हमारे साथ के कई लोग हमसे लगातार आगे निकले जा रहे थे।

जब तक हम ऊपर पहुँचे सूर्योदय हो आया था और दूर-दूर तक सफ़ेद बर्फ़ में ढके हुए पहाड़, कुछेक पर्वतारोही और सूर्य की रौशनी से दीप्त चौखम्बा पर्वतशिला का सफ़ेद हिस्सा स्पष्ट दिखाई देने लगा था। पर्वत के शीर्ष पर था शिव का मंदिर जो संभवतः सबसे अधिक ऊँचाई पर स्थित शिवमंदिर है।

आस्था मनुष्य के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। आस्थाहीन जीवन दुष्कर होता है। शीर्ष पर पहुँचकर उन प्राचीन ऋषि-महर्षि, राजा-महाराजाओं की ओर बरबस ही ध्यान चला गया जिन्होंने कभी इन जगहों की पहली यात्रा की होगी और यहाँ पहुँचकर मिली तृप्ति को साक्ष्य बनाने और दूसरों को यहाँ आने हेतु उत्साहित करने के लिए मंदिर बनवाए, ऊँचाई पर झंडे गाड़ने का अनवरत सिलसिला शुरू किया हो।

पर्वत के शीर्ष पर पहुँचते-पहुँचते हम पस्त हो गए। मेरे साथी ने मुझसे कहा कि मैं तो अब पस्त हो गया। यानी हम एक और मुहावरे पर पहुँच चुके थे। साथी ने हँसकर कहा कि आज समझ में आया कि इस मुहावरे का अस्ल अर्थ क्या है। वह फिर बोले कि अरे एक और मुहावरा याद आया—’रोम-रोम दर्द करना।’ चोपता पहुँचने से पहले ही रस्ते में मुझे एक बाँध दिखा था, जब मुझे ‘सब्र का बाँध टूटना’ याद आया था। उस समय बस में बैठे-बैठे बैठने को लेकर मेरे सब्र का बाँध टूटने की कगार पर पहुँच चुका था। पर्वत पर मुहावरे पिघल रहे थे और हमें दृश्य होने लगे थे।

मैंने अपने साथी से कहा—अरे ये तो मुहावरों भरी यात्रा बन गई!

पर्वत पर एक यात्री या एक तीर्थयात्री की तरह कुछ दिनों के लिए जाना, वहाँ के सौंदर्य से अचंभित होना और वहाँ का बाशिंदा होने की तुलना में बहुत आसान है। पर्वतीय गाँव-शहरों में रहने वालों के लिए मूलभूत सुविधाओं का भयानक अभाव है। ऊपर से तीर्थ-यात्रा और सीमा-सुरक्षा के नाम पर लगातार बनती रोड, पुल आदि हिमालय के कच्चे पहाड़ों के लिए अत्यंत घातक हैं। अभी बहुत दिन नहीं हुए जब उत्तराखंड के तमाम हिस्सों में ग्लेशियर के पिघलने से भयानक तबाही हुई थी और उस आपदा से हमने क्या सीखा? कुछ नहीं। हिमालय के प्राकृतिक संसाधनों का दुरुपयोग बदस्तूर जारी है। कॉर्पोरेट के लिए ऐसे हर नए क्षेत्र जहाँ नए प्लांट लगाना या नए निर्माण कार्य शुरू करना उनके लालची मालिकों के लिए धन-संचय की एक नई संभावना भर है।

पहाड़ मनुष्य के कचरों से भरे हुए हैं।

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बर्फ़ से ढके हुए रास्ते पर जोसेफ़ के. की बग्घी बढ़ी चली जा रही थी जब के. एक लैंड सर्वेयर के रूप में एक अनजान गाँव पहुँचता है, शुरू में ही उसे लगने लगता है कि वह किसी अदृश्य ताक़त के चंगुल में फँसता जा रहा है और फिर उस अदृश्य ताक़त के चंगुल में फँसते जाने की एक पूरी कहानी है—फ़्रांत्स काफ़्का का उपन्यास ‘दी कासल’ जिसके बारे में रॉबर्तो कलासो की लिखी पंक्तियाँ इस लेख के प्रारंभ में दी हुई हैं। जाने क्यों बर्फ़ भरे ऊँचे-नीचे रास्तों से गुज़रते हुए इस प्रकरण और इस उपन्यास की याद हो आई, जैसे अचेतन में बैठी जाने कौन अमूर्त बात दृष्टि के सामने झिलमिलाने लगी हो।

पहाड़ों के चक्राकार रास्ते, बर्फ़, थकान और वर्ष के इस मोड़ पर समूचा अतीत एक कोलाज की तरह आँखों के सामने दिखने लगा जिसकी पृष्ठभूमि में है—एक कठिन मैराथन और अनिश्चित वर्ष। बर्फ़ में धँसते पाँवों ने स्मृति और अवचेतन के उन बंद कपाटों को खोल दिया था जिनके बंद होने से मेरा ख़ुद से संबंध-विच्छेद जैसा हो गया था; मनुष्य चाहे कैसी भी परिस्थिति में रहे, उसका ख़ुद से संबंध बरक़रार रहना चाहिए क्योंकि यह एक अकेली ऐसी पिच है जिस पर वह खेल सकता है। बर्फ़ की चादर पर ठक-ठक गिरती कुल्हाड़ी जिसे काफ़्का ने साहित्य का अस्ल उद्देश्य कहा है… साहित्य का उद्देश्य यह होना चाहिए कि वह आपके अवचेतन पर जमी बर्फ़ की परत को तोड़ सके। इस बर्फ़ीले पर्वतीय यात्रा ने मेरे लिए कुछ वैसा ही काम किया, साहित्य से मेरे ख़राब हो रहे रिश्ते को फिर से स्थापित करके और जाने-अनजाने मैं काफ़्का को याद करते हुए उन ऊँचे-नीचे पहाड़ों पर चलने लगा। पहाड़ की यह यात्रा सिर्फ़ एक भौतिक यात्रा भर नहीं थी, एक आंतरिक यात्रा भी थी; अपने अंदर का रास्ता भूले हुए भटके हुए राही की तरह।

हमारी सभी यात्राएँ उस अदृश्य शून्य की दिशा में तय की गई यात्राएँ हैं जो हमें कहीं नहीं ले जातीं। हम सुख-दुःख, जय-पराजय, सबमें एक अदृश्य शक्ति के चंगुल में फँसते जाते हैं। हम एक म्लान सार्वभौम के नागरिक हैं—काफ़्का का साहित्य हमें उसी म्लान सार्वभौम की आंतरिक यात्रा पर ले जाता है। फिर किसी दुर्गम आंतरिक यात्रा से गुजरते हुए उस सार्वभौम को याद क्यों न किया जाए? यह म्लान सार्वभौम आंतरिक भी है और बाह्य भी।

लगभग सौ वर्ष पुरातन इस जर्मन साहित्यकार के पास लौटना मेरे लिए एक थकाऊ यात्रा से मेरे अपने घर लौटकर अपने बिस्तर पर सोने जैसा है।

लेकिन साहित्य, मुहावरों और पहाड़ की यात्रा का क्या अंतर्संबंध है?

यह अंतर्संबंध बाह्य न होकर आंतरिक है। यह संबंध यात्रा का निचोड़ न होकर यात्री के सुप्त अवचेतन का प्राकट्य है, लेकिन यात्री के जटिल मनोवस्था की भूलभुलैया में गुम होने से पहले हमें अपनी ज़मीन पर लौटना ज़रूरी है।

पहाड़ की दुर्गम और तृप्त कर देने वाली यात्राओं को आस्था के शिखर में तब्दील कर देना एक बुद्धिमानी भरा फ़ैसला रहा होगा। वरना दुर्गम और मुश्किल रास्तों वाले पहाड़ों पर चढ़ने के लिए आमतौर पर कोई तैयार नहीं होता। इन तृप्त कर देने वाली यात्राओं को तीर्थस्थलों में तब्दील कर देने से एक धर्म विशेष के लिए ये स्थल पवित्र स्थल बन गए और जिन ऊँचाइयों पर ये तीर्थस्थल स्थित हैं, वहाँ पहुँचकर एक पवित्र तृप्ति की ही तो प्राप्ति होती है! लेकिन फिर धीरे-धीरे ये स्थल भीड़ के क्रीड़ास्थलों में तब्दील हो गए।

इन पवित्र ऊँचाइयों को भी मनुष्य ने अपने मलबे और कचरों से पाट दिया है। प्रकृति का छूटता हुआ हाथ और इसके फलस्वरूप हुई शारीरिक और मानसिक त्रासदी इस सदी के मनुष्य के अस्तित्व में बहुत प्रकट दिखाई देता है। आस्था के झूठे प्रतीकों में भटका हुआ मनुष्य भी अंततः आस्थाहीन है—लगभग नैरात्म। वर्तमान सभ्यता सही मायनों में एक नैरात्म सभ्यता है—आत्म-विनाशी सभ्यता। लेकिन यह सब लिखते हुए क्या मैं उस भीड़ से भिन्न हूँ? क्या मैं इस सभ्यता का तटस्थ निर्णायक हूँ? नहीं, मैं इस अपराध में उतना ही शामिल हूँ।

भाषा आस्था का प्राथमिक माध्यम है। जैसे शब्द है—‘मंदिर’। अगर दुर्गम ऊँचाई पर स्थित मंदिर को एक आवश्यक भौतिक और मानसिक लक्ष्य मान लें तो सत्ता द्वारा उसका दुरुपयोग देखिए, मंदिर के साथ जुड़ा हुआ ईश्वर उसकी यात्राओं में सहयोगी नहीं बनता बल्कि सिर्फ़ एक प्रतीक तक पहुँचने का भाषाई यंत्र भर बनकर रह जाता है। यहाँ मंदिर और ईश्वर दोनों महज़ प्रतीक हैं, यहाँ तक कि अध्यात्म भी। क्या इन शब्दों का प्रतीकों के इतर कोई उपयोग नहीं? मेरी समझ में यदि मनुष्य अपनी बाह्य और आंतरिक यात्राएँ बिना किसी पूर्वाग्रह के, सत्ता प्रतिष्ठानों के प्रतीकों से मुक्त होकर करे तो इन सभी यात्राओं का भौतिक और आध्यात्मिक दोनों महत्त्व है—मनुष्य के जीवन को निर्मल करने की एक प्रभावकारी प्रक्रिया।

हिमालय पर चारों धाम की यात्राओं के लिए लगातार सड़क और पुल बन रहे हैं—हिमालय के कच्चे पहाड़ हमारी मूर्खताओं की भेंट चढ़ रहे हैं। क्या हम ये दुरूह यात्राएँ थोड़ा कष्ट उठाकर नहीं कर सकते? ऐसी दुरूह यात्राओं में हमें इन रास्तों में अधिक समय व्यतीत करने का मौक़ा भी मिलेगा, लेकिन सत्ता हमें यह दिखाना चाहती है कि उसे हमारी आस्थाओं की बहुत परवाह है। जबकि इस प्रक्रिया में वह कॉर्पोरेट घरानों को उन पहाड़ों की हत्या करने का ठेका दे रही है, उन पहाड़ों की आयु घटा रही है जिन सुंदर और विकासशील पहाड़ों की गोद में ये सुंदर गाँव, शहर और मंदिर आदि बसे हैं।

इन दुर्लभ उत्तुंगों पर अवस्थित इन प्रतीकों के हत्यारे धीरे-धीरे करके इनके नजदीक पहुँच रहे हैं।

और मुहावरे?

हमने अपनी आँखें खोल देने वाली संक्षिप्त यात्रा में हिंदी भाषा के कई मुहावरों को चरितार्थ होते देखा। और मुहावरों से खुलकर भाषा और दृश्य का सवाल मेरे सामने आया। भाषा और दृश्य के संबंध पर हमने पहले बात की है। मनुष्य दृश्य देखकर भाषा को समझता है, लेकिन भाषा में रची हुई कलाकृतियाँ कल्पना का अंतहीन उड़ान होती हैं जिनमें विचारों और प्रतिरोध का सबसे ठोस रूप दिखाई देता है।

मैदानी इलाक़ों में वापस आने के बाद ये यात्राएँ, ये मुहावरे, ये प्रतीक और ये चिंताएँ सभी एक अंतहीन चक्र में घट रही हैं और ऐसा महसूस होता है वे दुर्गम उत्तुंग हमें आवाज़ दे-देकर पुकार रहे हैं—आधी रात का वह धवल आसमान, थोड़े और क़रीब दिखते तारे और बर्फ़ीले रास्ते। बर्फ़ में धँसे हुए पैर, सभ्यता के अभिशाप से बँधी हुई देह और इन सबसे निकलकर मुक्त होने की इच्छा में पगा हुआ मन!