कविता का आधुनिक रहस्य

भगवान चित्रगुप्त ने स्मृतिशेष कवि प्रकाश को देखकर उत्सुकतावश पूछा—‘‘हे उज्ज्वलकीर्ति! आप जिस संघर्ष, शोषण और विपन्नता को जीते रहे, कविता में उसकी कोई व्यथा-कथा क्यों नहीं कहते थे?’’

प्रकाश ने विनीत स्वर में बुदबुदाना शुरू किया—‘‘कायस्थकुलभूषण! मैं अपनी कथा कहना चाहता था। लेकिन कथा शुरू करते ही पहले शब्द पर आकर बैठ जाती थी एक चिड़िया। जब तक मैं उस चिड़िया को हड़काता था, दूसरे शब्द में आकर बैठ जाती थी एक हरी पत्ती। पत्ती से निबटने की सोचते ही तीसरे में चला आता था हँसता हुआ गुलाब। इस पर मुझे हँसी आ जाती थी। मेरी अपनी कोई कथा थी ही नहीं।’’

चित्रगुप्त ने मुस्कराते हुए कहा—‘‘कविश्रेष्ठ ! मैं लेखाकार हूँ,आप मुझसे भी कविता कर रहे हैं, अच्छा बताइए आप भगवान से कभी प्रार्थना क्यों नहीं करते थे?’’

प्रकाश धौंस में आ गए और उनकी बुदबुदाहट ज़्यादा बढ़ गई—‘‘देव! मैं उसके विराट ललाट को एकटक देखता था। मैं उसका तिलक करना चाहता था। मैं हाथ बढ़ाता था—सामने पृथ्वी का मस्तक उठ आता था। मैं ठिठक कर रुकता था। फिर तिलक को हाथ बढ़ाता था कि अंतरिक्ष का मस्तक सामने झुक आता था। मैं रुक कर उसके मस्तक को निहारता था कि शून्य का विराट ललाट दिख जाता था। फिर हँस कर मैंने अपने ही संक्षिप्त ललाट पर तिलक कर लिया। अब पृथ्वी, अंतरिक्ष और शून्य लालच से मेरा ललाट निहारते थे…’’ प्रकाश अपनी रौ में बहे जा रहे थे कि चित्रगुप्त के मुखमंडल पर नज़र पड़ी, मुखमंडल पर खीझ देखकर उनकी बुदबुदाहट नकनकाहट में डूबकर अश्रव्य हो गई। चित्रगुप्त ने प्रकाश को साश्चर्य आँकते हुए पावती पर मुहर मार दी—ठक्क!

बातें मुँह-कान—मुँह-कान चलती हुई बदल-बदल जाती हैं, इसलिए क्या पता प्रकाश ने यह गवाही चित्रगुप्त के बजाय अपनी कविताओं में ही दी हो! जो भी, जैसे भी हो, लेकिन बात सौ फ़ीसद सच्ची है। उनकी ज़िंदगी निम्नमध्यवर्गी दुश्वारियों, दुश्चिंताओं, अपेक्षाओं, उपेक्षाओं और शोषण से उसी तरह भरी हुई थी जैसे इस वर्ग के अधिसंख्य लोगों की है; बल्कि प्रकाश अपनी दुश्वारियों की चर्चा किसी सामान्य व्यक्ति से ज़्यादा ही करते थे। अख़बारनवीसी की पिछली बातें, केंद्रीय हिंदी संस्थान के अधिकारियों द्वारा उत्पीड़न, अपकार व अपमान की बातें और अपने अवसाद व तत्संबंधी दवाओं का विवरण इतना लंबा खींचते थे कि सुनने वाला उकताहट, खिन्नता और निराशा से छूटकर भाग खड़ा होता था। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है। उनके और मित्रों का अनुभव भी इससे अलग नहीं है। लेकिन प्रकाश की कविताओं को इस सबकी छाया तक नहीं छू पाई।

राजनीतिक-सामाजिक जनरव की बात छोड़ दीजिए, इनमें ज़ाती जिंदगी की कश्मकश भी नहीं है। इससे ऐसा लगता है कि प्रकाश की कविताएँ किसी अज्ञात समानांतर समय की कविताएँ हैं। मानो यह व्यक्ति दो समानांतर दुनियाओं में रहता है, जिनमें कोई सीधी आवाजाही नहीं दिखती। न उनके नीरव उदात्त काव्य में जीवन की विपन्नता और बेचारगी का प्रवेश है, न जीवन में कविता के अप्रतिम धैर्य, निरुद्विग्नता और गहनता का। सामान्यतः पाठक कविता के रंगों से कवि की शख़्सियत का एक मनश्चित्र बनाता है और उसकी दुनियावी शख़्सियत से कविताओं में रंग भरता है। परंतु प्रकाश की कविताएँ अपने पाठकों को इस बात की सुविधा नहीं देतीं। बल्कि पाठक को अनेकश: अपने अनुभवों, स्मृतियों और इतिहासबोध से भी इस काव्य-संसार में प्रवेश की कोई ख़ास सहूलत नहीं मिलती।

आवाज़ में झर कर │ स्रोत : राजकमल प्रकाशन

प्रकाश के काव्य-संसार में आप अपने समकालीन काव्य-अनुभवों के सहारे नहीं पहुँच सकते। यह कवि पूरे काव्य-परिदृश्य को पीठ दिए हुए कविता के मद्धम आलोक में आत्मावगाहन कर रहा है। यहाँ वह निज चेतना की गतियों का पीछा करते उधर जाता दिखाई पड़ता है, जहाँ चेतना स्मृतियों व इतिहास को पार करती हुई जड़-चेतन-समरस होकर सार्वभौम होने लगती है। फलतः अपनी गहनता के कारण अनभ्यस्त पाठकों को यह काव्योपलब्धि रहस्याभासी लग सकती है। परंतु अवधानपूर्वक देखने पर मिलेगा कि ये कविताएँ रहस्य की अनुभूतियाँ नहीं हैं, बल्कि इनमें अनुभूतियों का वह रहस्य है, जिसे हिंदी कविता में पहले कभी खोजा नहीं गया।

आप ध्यान दें तो पाएँगे कि हमारा अस्तिबोध हमारे विचार-प्रवाह से जुड़ा हुआ है। विचार-प्रवाह थमते ही हमारा अस्तिबोध भी थम जाता है। मसलन, गहरी नींद में सोते ही हमारा स्वबोध समाप्त हो जाता है। और नींद में स्वप्न-प्रवाह शुरू होते ही हमारा अस्तिबोध फिर से लौट आता है। तथापि स्वप्न का अस्तिबोध और जागरण का अस्तिबोध एक-सा नहीं होता। कारण कि स्वप्न और जागरण का विचार-प्रवाह एक-सा नहीं होता। कहने का अर्थ यह है कि हमारे अस्ति पर हमारा विचार-प्रवाह निर्भर नहीं करता, बल्कि विचार-प्रवाह पर हमारे अस्तिबोध का स्वरूप निर्भर करता है। इस तरह अगर हम अपने विचारों और अनुभूतियों को निर्लिप्त ढंग से समझ सकें तो अपने ‘स्वरूप’ को भी समझ सकते हैं। अध्यात्म और समाज विज्ञानों से अलग अस्तिबोध तक पहुँचने का यह प्रकाश की कविताओं का अपना विशिष्ट रास्ता है। प्रकाश अपने अस्ति तक पहुँचे हुए नहीं हैं, और पहुँच भी कौन सकता है? हुआ जा सकता है, पहुँचा नहीं जा सकता : ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति। इसलिए प्रकाश की हर कविता निज अनुभूतियों की जड़ों की ओर अनुगमन करते हुए अस्ति की खोज है। उनकी हर कविता एक अंतर्यात्रा है और कविता की हर पंक्ति टूटी-बिखरी पगडंडियाँ।

प्रकाश की कविताओं में विनम्रता, अकिंचनता व तीव्र प्रणति भाव है। यह समकालीन कविता का विरल और प्रकाश के काव्यबोध का अविरल जीवद्रव्य है। वर्तमान परिदृश्य में यह सार्थक कविता के इदारे से खदेड़ दिए जाने के लिए पर्याप्त था, परंतु हिंदी का यह अदना-सा युवा कवि अपूर्व काव्य-साहस लेकर पैदा हुआ था। सर्वस्वीकार्यता का लोभ त्यागकर उसने वही कहा जो कहने के लिए वह आया था और फिर चुपके से बिना किसी शिकायत के लौट गया। उसकी यह प्रणति आत्यंतिक रूप से लौकिक है।

कोई कहीं था या नहीं कौन जाने,
यद्यपि मैं था
अतः प्रार्थना में मैं हर कहीं झुकता था
हर बार!

प्रकाश की यह प्रणति किसी सृष्टि-वाह्य सत्ता के प्रति नहीं, इस स्वयंभू महार्घ सृष्टि के प्रति है, इसके विस्मय और रहस्य के प्रति है। यह अकारण नहीं है कि प्रकाश ने अनेक कविताएँ पंच महाभूतों—पृथ्वी, जल, अग्नि, हवा, आकाश—पर सीरीज़ में लिखी हैं। ये सारी कविताएँ भी उसके अस्तिबोध तक जाने का ही रास्ता हैं। इस काव्य-संसार के सारे रास्ते घूमकर उस तक ही लौटते हैं। अपनी कविताओं में सबसे बड़ा रहस्य वह स्वयं है। उसकी कविताएँ अपने होने के रहस्य तक खींच-खींचकर लाती हैं। कवि जानता है कि जब तक ‘होना’ ब्राह्मण, हिंदू, मुस्लिम, साहिब, मुसाहिब होने को व्यंजित करता है; तब तक इससे कोई गहन अर्थ संभव नहीं है, इसलिए वह अनुभूति-प्रक्रिया में उतरता है।

पेड़ पर नीला आकाश झुकता था
मैं झुके आकाश पर कान धरता था

यह कोई दृश्य या ठहरी हुई अनुभूति नहीं है, अनुभूति की प्रक्रिया है। इस कविता में एक तरफ़ हरे पत्ते, डालियाँ और वृक्ष है। दूसरी तरफ़ द्रष्टा है। द्रष्टा पहले सरसब्ज़ पत्तों को देखता है। फिर देखता है कि वे पत्ते हिल रहे हैं, इसलिए अपनी दृष्टि को एक तल और नीचे, हिलते हुए पत्तों पर केंद्रित करता है। फिर उसे हिलते पत्तों के हरितवर्ण पत्तों की उत्फुल्लता और सौंदर्य देखता है, अतः हिलते हुए उल्लसित हरितवर्ण पर ध्यान देता है। उसने अपनी अंतर्दृष्टि से देखा कि ये पत्ते अवश परिवर्तनशील होकर भी अपने सौंदर्य से हमारी स्मृतियों में अमर हैं।

प्रकाश अपनी अनुभूति प्रक्रिया का अनुगमन करते हैं। वह घंटे के अनुनाद में नीचे उतरते हुए, अनुनाद में अक्षर के गूँजने के ठीक पहले के निर्ध्वनि में उतरना चाहते हैं। वह ध्वनियों के अनुवर्तों के सहारे आरंभ से पूर्व के अंतिम निःशब्द क्षण में पहुँचना चाहते हैं। ऐसा लगता है कवि किसी कुएँ में बोधपूर्वक विस्मित उतर रहा है। कुएँ में मानो एक के नीचे एक मुँडेर का क्रम हो, जिसमें उतरते हुए एकबारगी उसे लगता है कि कुएँ का सोता तो उसके आत्म के भीतर है! परंतु वहाँ पहुँचकर लगता है कि यह अनाहत ध्वनि किसी आश्चर्यलोक से आ रही है। बोधपूर्वक वह देखता है कि हरितवर्ण गूँज उसके कानों से टकराकर जिन अस्थियों में उतर रही है, वे अस्थियाँ उस हरे पेड़ की डालियाँ हैं। वह स्वयमेव हरित अस्थि-शाखाओं वाला पेड़ है। लेकिन यहाँ भी कुएँ का अंतिम तल नहीं है। यहाँ भी आरंभ से पूर्व का वह अंतिम क्षण नहीं है। यह अनुरणन विस्मय और अनंत से आता है :

पेड़ पर नीला आकाश झुकता था
मैं झुके आकाश पर कान धरता था

यह अनुभूतियों का अनात्मवाद है। कोई कल्पनाशील व्यक्ति कैसे कह सकता है कि अनंत और विस्मय से घिरी हुई सब्ज़-ओ-शादाब पृथ्वी एक विराट वृक्ष नहीं है? कहना न होगा कि सृष्टि-वृक्ष की यह उदात्त कल्पना हमारी परंपरा में रही आई है।

प्रकाश का यह काव्यबोध आधुनिक अहंकेंद्री विश्वदृष्टि से अलग समरस और अभेदवादी है। इन कविताओं में आधुनिकतावादी दृष्टि की तरह विषयी (Subject) और विषय (Object) ठोस विरोधी-द्विचर नहीं हैं, अपितु विषयी तो इतना महीन और पारदर्श है कि उसका आभास ही नहीं होता। विषय इतना आत्मसंबद्ध है कि ममेतर नहीं लगता। इसलिए पारंपरिक दृष्टि में अगर यह रहस्याभास की धुंध पैदा करे तो आश्चर्य की बात नहीं है, बल्कि इससे ज़्यादा रहस्यदर्शी आधुनिक कविताएँ आपको आस्वाद-अनुकूलन के चलते सहज-सामान्य लग सकती हैं।

अगर प्रकाश की कविताओं को आधुनिक रहस्यदर्शी कविताओं के सामने रखें तो इन कविताओं में विन्यस्त नवीन बोध का उद्भास होगा। आधुनिक रहस्यदर्शी कविताएँ निस्सीमता, शून्यता और एकत्व की अनुभूति कराने के लिए तहदार बिंबों के बहुवर्णी संसार के पीछे एकाएक खिड़की खोलती थीं। भाषा पर बिंबों की सलवटें डालकर रचे गए मोहक संसार के पीछे वह आगम शून्य झलक उठता था। जैसे कोई घंटा बजाने के निमिष भर बाद उस पर हाथ रखता हो और स्वयमेव अनुरणन के अंतराल में डूब जाता हो।

कविताएँ रूप-रंग, झंकार-पुकारों की एकाएक यति में ही संसृति की अगम्यता का आभास देती थीं। यह सबसे आज़माया हुआ काव्यात्मक तरीका था। ऐसी अनगिनत पंक्तियाँ और कविताएँ मिल जाएँगी। ये कविताएँ उस निरपेक्ष शून्यता का आभास इस रंगारंग अनुभूत संसार के सापेक्ष देती थीं। ये उधर जाती नहीं, बस एक झरोखा खोलती हैं और पाठक खुद-ब-ख़ुद उस शून्यता का अनुनाद सुन लेता था। जैसे बादलों से ठसा हुआ आसमान क्षण भर के लिए दरक जाए और सूरज की रोशनी के साथ निस्सीम नीला आकाश आपको भर जाए।

यह अमूर्त शून्यता, कुछ और नहीं, बल्कि आधुनिकता के भीतर रचे गए ठोस अहं के पीछे की अगम्य अस्पष्टता है। प्रकाश ने इसे तोड़ दिया। इसे घँघोल दिया। विषयी और विषय के द्विचर-विरोध को मिलाकर एक बना दिया, और अहं के पीछे की शून्यता की अनुभूति के बजाय अनुभूति-प्रक्रिया को कविता बनाया। यहाँ द्रष्टा-दृश्य द्वैत शेष नहीं रहा—दोनों एकीभूत हो गए। लेकिन फिर एक दार्शनिक प्रश्न रह जाता है, वह कौन है जो इस अनुभूति-प्रक्रिया का साक्षी बन रहा है? यह कविता है। जो अनुभूति-प्रक्रिया की अनुवर्ती है, इसलिए कविता अनुभूतियों को भूतकाल में दर्ज करती है। प्रकाश की सारी कविताएँ अन्य पुरुष और भूतकाल में लिखी गई हैं।

इस संकलन को पंच महाभूत के रूपक पर पाँच खंडों में संयोजित किया गया है। सारी कविताएँ शैली में लगभग सामान, आकार में छोटी, परंतु अपनी अनुगूँज और प्रभाव में बड़ी हैं। कविताएँ बाहर की तरफ़ नहीं खुलतीं, अंदर की तरफ़ लौटती हुई एक दार्शनिक दीप्ति पैदा करती हैं। प्रकाश के इस संग्रह की कविताएँ चपटी हो चुकी यथार्थवादी दृष्टि को थोड़ी और गहराई तक झाँकने के लिए उत्प्रेरित करती हैं। अगर आप हिंदी कविता से मौलिक अस्वाद की अपेक्षा रखते हैं तो आपको यह संग्रह पढ़ना चाहिए।

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