रोज़-रोज़ मुक्तिबोध

देर रात की ‘तलब-उद्विग्नता’ में उस एक चीज़ की तलाश में एक रोज़—दो परित्यक्त दीवारों वाले उस साझा कमरे में। वही कमरा जहाँ दो पुरुष आत्माएँ—उनमें एक ‘अब-तक-होमोफ़ोबिक’, अपने-अपने हिस्से की दीवार में क़ैद रहती हैं। उनके पास दिल बहलाने को उनके शब्द होते हैं। वे अपने-अपने हिस्से में अपने-अपने शब्दों से खेलते रहते हैं, जब अकेले खेलते-खेलते ऊब जाते हैं तो कुछ शब्द एक दूसरे की ओर उछाल देते हैं—वहाँ जहाँ एक दिन किसी गहरी हुई ऊब में दोनों ने उछाल दिए कुछ शब्द, जब एक बेटी जैसी कविता बनी।

उस कमरे में उस रात गहरी चली खोज में ताखे से झाँकती दिख पड़ती है एक बीड़ी और मैं साथी को आवाज़ लगाता हूँ कि आ गए हैं मुक्तिबोध। हम स्तुति-पाठ करते हैं—‘हम घुटने पर नशा-देवता (मुक्तिबोध ने नाश-देवता लिखा है) बैठ तुझे करते हैं वंदन—तेरे अग्निकणों से जीवन…’

मेरे बूर्जुआ अस्तित्व को बिना मुक्तिबोध कविता में मुक्ति कहाँ मिलनी है। दबाव में ही लिखता हूँ कि यह जो शीत में खड़ा है किसान और यह जो बीड़ी फूँकता लेटा हुआ है मुक्तिबोध (कवि), उसे कविता में रोटी कैसे मिले? फिर अपने खाँसने को प्रतिरोध और कविता कहना और हँसना ख़ुद पर कि अँधेरे कमरे की दीवार पर कुछ शब्द खोंस वह कवि हो रहा है।

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तस्वीर : शायक अलोक

अमावस है। मध्यमा अनामिका के बीच मैंने एक मोमबत्ती रखी है और तस्वीर का शीर्षक रख दिया है—अँधेरे में। प्रतीक्षारत हूँ। पाठक-प्रतिक्रिया का ‘अद्भुत’ अब बस मुझे डुबोएगा कि ‘चैलेंज’ कर देता हूँ—प्रथम प्रतीति यह है कि मैं कवि मुक्तिबोध के प्रति प्रेमपूर्ण कृतज्ञता रखता हूँ और यह श्रद्धा का उपक्रम है। लेकिन पृष्ठभूमि यह है कि वस्तुतः मैं कवि आत्मा हूँ और फ़ोटोग्राफी मेरा कला-पूर्वग्रह है—बिजली का जाना, अँधेरे का उगना, चराग़ जलना, आर्ट दिखना, हाथ का हस्तक्षेप।

मुक्तिबोध का आना तो उसके बाद की घटना है।

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हरिजन गलियों में
लटकी है पेड़ पर
कुहासे के भूतों की साँवली चूनरी—
चूनरी में अटकी है कंजी आँख गंजे-सिर
टेढ़े-मुँह चाँद की।

मैं बलपूर्वक कहता हूँ कि और देखो महानगर में किसी ने चाँद का मुँह तोड़ दिया है।

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प्रेयसी ने नीली साड़ी पहनी है। शमशेर और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की काम की पंक्तियाँ अभी ही काम आएँगी। लेकिन संगीत मैंने बीथोवेन (Beethoven) का बजा रखा है जो उन्होंने एलिस के लिए रचा है, कविता मैं मुक्तिबोध की पढ़ रहा हूँ :

मुझको तो बेचैन बिजली की नीली
ज्वलंत बाँहों में बाँहों को उलझा
करनी है उतनी ही प्रदीप्त लीला
आकाश भर में साथ-साथ उसके घूमना है मुझको
मेरे पास न रंग है बिजली का गौर कि
भीमाकार हूँ मेघ मैं काला
परंतु, मुझमें है गंभीर आवेश।

हम कविता नहीं समझते, हम शब्दों पर ठिठकेंगे, अंतिम शब्द पर ठहरेंगे, निढाल ढल जाएँगे।

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नया हुआ कवि अभिजात हिंदी स्वर में मान्य करता है कि आप किशोरी अमोनकर को नहीं सुनते तो मुक्तिबोध को नहीं समझ सकते। मैं हँसता हूँ, फिर खाँसता हूँ, फिर ‘खाँहँसने’ लगता हूँ।

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बोध आवारगी में कह दूँगा एक दिन कि मुक्तिबोध का कविता को स्थायी योगदान यह रहा है कि तमाम ‘टूटी हुई, बिखरी हुई’ पंक्तियों के एक सुदीर्घ संग्रहण को कविता कहे जाने पर कोई आपत्ति समाप्त हो गई है। शमशेर फिर बच जाएँगे, शमशेर फिर शिकार होंगे।

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इतर शरारत के लिए एक दिन मुआफ़ी माँग लूँगा महाकवि से।

(कौआ का मुँह काला है)
काग एक निरीव अंधकार विनत
प्रफुल्लित-अति ओज से
समयापूर्व गा रहा साँवला
उद्भ्रांत शब्दों के नए आवर्त में
दिशा;
सदिश पूर्व भान लिए हुए मत्त
चिरसत्त अति!
अतिप्रिय मुझे घुघ्घुओं व
चमगादड़ों
पिशाचों बेतालों से झुकी घनी डाली के
शीर्षकोण पर विक्षोभित अधीर
एक काग बैठा
ऐंठा

मेरे हाथ औज़ार
सहस्रशिराओं-धमनियों का बल
दुनिया एक मशीन की धौंकनी
चमकते हैं अँधेरे में हाथ
यही हाथ
सात सात साथ साथ
करेंगे पूर्वसंकेत
एक अंत का मिलता जुलता शब्द अनिकेत
हह ध्वनि संग उठ भोररात्रि
सियाह में उड़ा देंगे साँवले को!!

जिन किन साँकलों को खटखटा
नीलाभ रक्त मनों में बसे

निस्तब्ध मध्यभोर के सुनसान अँधियाले तल में
देदीप्य चेतपूर्व चेतना का घड़ा
या अथवा
रख दूँगा उपमान प्रतीक रूपक संग
वहीं चीख़ते भयानक दीखते साँवरे कंकड़
स्याह उठा उसे पाषाण-नलिका आदिम मुख से
सहसा
अरे! अरे! बोध रचेगा
मैं अतिउद्विग्न
द्युति-काग रिक्त शेष बचेगा…

[अचानक ट्रैक बदलते हुए]

क्षमायाचना सहित, महाकवि
आग्रह मेरा
रोज़मर्रा के विलक्षण सपाट में
कि
किसी कविता में कौआ आ जाए तो
उसे उड़ाने
मार भगाने के बजाय
बोधकथा का घड़ा और कंकड़ रख दें।