रोज़-रोज़ मुक्तिबोध

उस कमरे में उस रात गहरी चली खोज में ताखे से झाँकती दिख पड़ती है एक बीड़ी और मैं साथी को आवाज़ लगाता हूँ कि आ गए हैं मुक्तिबोध। हम स्तुति-पाठ करते हैं—‘हम घुटने पर नशा-देवता (मुक्तिबोध ने नाश-देवता लिखा है) बैठ तुझे करते हैं वंदन—तेरे अग्निकणों से जीवन…’

‘मैं ऊँचा होता चलता हूँ’

यह लेख उनके लिए नहीं है जो मुक्तिबोध को जानते हैं, यह लेख उनके लिए है जो मुक्तिबोध को जानना चाहते हैं…

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