कवित्व का निराला विवेक

तब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक का छात्र था। हिंदी विभाग की पत्रिका के आवरण पर एक कविता छपी थी—‘मैं लौट रहा हूँ’ :

अपने ही प्रिय युद्ध-क्षेत्र से
अपने न पहचाने जाने की
नि:स्वार्थ अनंत इच्छाओं के साथ
मैं लौट रहा हूँ
दोनों हाथों से चेहरे को छिपाए
पिछले कर्मों पर
लीपा-पोती करता हुआ।

ये पंक्तियाँ कविता की अंतिम पंक्तियाँ थीं। इसके ठीक नीचे लिखा था—विवेक निराला। यह नाम अपने उत्तरपद के भार से कुछ उलार-सा लगा, फिर भी याद रह गया। मैंने इसका कुल मज़मून यह समझा कि कोई युवा कवि अपरिचित रह जाने के दुख और पराजयबोध के साथ कविता की दुनिया छोड़ रहा है। इसका करुण प्रभाव मेरे मानस पर जमा रह गया। क़रीब साल भर बाद यूनिवर्सिटी रोड पर अपने कुछ वरिष्ठों के साथ चाय पी रहा था तो किसी ने कहा विवेक निराला आ रहे हैं। मैंने उत्सुकता से देखा… धरती धकेल चाल, झब्बेदार मूछें, हाफ बुश्शर्ट, दोहरा खाने के लिए मिले हुए मुँह से जबरिया बोलते हुए—‘‘क्या प्यारे! सुबोध (शुक्ल) और सूर्यनारायण जी नहीं आए?’’ पूछते हुए क़रीब आ गए। उनकी यह धज देखकर मेरे काव्य-प्रभाव और व्यक्तित्व-कल्पना का ध्वजभंग हो गया। जैसे कोई ‘द प्रोफ़ेट’ पढ़ने के बाद खलील जिब्रान का खल्वाट देख ले। परंतु मिलने के बाद जो वास्तविक प्रभाव पड़ा, वह ज़्यादा स्थायी और आत्मीय था।

ध्रुव तारा जल में │ स्रोत : राजकमल प्रकाशन

विवेक निराला में एक निर्भार क्रीड़ा-वृत्ति है। यह बात उनका कविता-संग्रह ‘ध्रुव तारा जल में’ पढ़ते हुए भी महसूस होती है। शायद मैंने उनका परिचय ग़लत जगह से शुरू कर दिया, इसे सूर्यनारायण जी या फिर सुबोध जी पर बात करते हुए शुरू होना चाहिए था। इन दोनों लोगों के बिना विवेक जी पर कोई बात करना बिना तुलसी के निछान रजनीगंधा खाना है। हम इन्हें इलाहाबाद का त्रिदेव कहते थे। कुछ लोग दुष्टत्रयी कहते थे। ये इसे जानते थे, और कहने वालों कभी निराश नहीं करते थे। इन तीनों में गज़ब का कलात्मक कौतुक है। सुबोध जी सूक्ति खोजते हैं। सूर्य नारायण जी संबंध। विवेक जी शब्द। शब्द-खोजी कहना तो कवि-व्यभिचारी-चोर में से कविमात्र का वैशिष्ट्य बताना हुआ। दरअस्ल, वे बेतुकेपन का तुक खोजते हैं और तुकों से चीज़ों के बेतुकेपन को अभिव्यक्त करते हैं।

कविता में तुक का उपयोग, पदांतिक ध्वनिसाम्य या अक्षर-मैत्री का उपयोग, छंद और लय साधने के लिए होता था। स्वातंत्र्योत्तर कविता में रघुवीर सहाय, धूमिल, श्रीकांत वर्मा जैसे कवियों ने इसे समकाल की विडंबनात्मक अभिव्यंजना के लिए प्रयोग किया। परंतु उसके बाद इस काव्य-युक्ति का प्रयोग विरल जान पड़ता है। विवेक निराला की पीढ़ी में तो यह क्रीड़ा-वृत्ति दुर्लभ ही है। समकालीन लोगों में अशोक वाजपेयी और राजेश जोशी कविता में क्रीड़ा-वृत्ति पर बहुत ज़ोर देते हैं। परंतु अशोक वाजपेयी के लिए यह बालविनोद-सा लगता है। राजेश जोशी के लिए यथार्थ की हदों को पार कर स्वप्न के बेहद में जाने का तरीक़ा। विवेक निराला इन समकालीनों के बजाय धूमिल और श्रीकांत वर्मा से सीखते हैं। कुछ जोड़ते भी हैं। विवेक निराला का कौतुक सोद्देश्य और ज़िम्मेदार है। उनके लिए यह न तो बालविनोद है, न किसी काल्पनिक बेहद में छलाँग… उनके लिए यह अपने ही समकाल के हिंसा, हादसों और कोहराम को उद्घाटित करने का तरीक़ा है :

स्त्री के अपने दुख थे
दुख की थोड़ी स्मृतियाँ थीं
स्मृतियों का अपना जल था
जल था—थल था, कुछ दलदल था।

~•~

वहाँ अमन है
एक अजब ठंडापन है
जम्हूरियत का कलाम है
वतनपरस्ती का सलाम है।

~•~

किसानों के पास क़र्ज़ था
और उद्योगपतियों के पास मर्ज़ था
सरकार को न किसी से हर्ज था।

ध्यान से देखिए तो ये तुक स्थितियों की असंगति, विसंगति और अयुक्तता की अनुभूति को तीव्र करते हैं। जल-थल के पदांतरिक तुक के बाद दलदल में ‘ल’ की आवृत्ति जीवन में विडम्बनाबोध को और गहन करती है। ‘अमन’ के बाद ‘अजब ठंडापन’ शांति को अवसन्न्ता में बदल देता है। क़र्ज़, मर्ज़, हर्ज की वर्ण-संगति सामयिक असंगतियों की गतिशील संबद्धता है। इस संग्रह की बहुसंख्यक कविताओं में यह क्रीड़ा-वृत्ति है।

इस संग्रह की एक कविता ‘नई वर्णमाला’ हमारे अवचेतन के वर्ण-ज्ञान, बारहखड़ी, वर्णयोग आदि की प्राथमिक गहन बाल स्मृतियों से खेलते हुए उन्हें सामयिक वास्तविकता के सामने वैसे ही रख देती है, जैसे कोई नैतिकता और आदर्श को यथार्थ के सामने कर दे।

विवेक जी के एक आत्मीय युवा कवि ने बातचीत में कहा कि ‘विक्की भैया में भावाकुलता नहीं है।’ शायद ठीक कहा उन्होंने, बस ठीक संदर्भ से नहीं कहा। विवेक निराला न चीज़ों से भावाविष्ट होते हैं, न भावाकुल करना चाहते हैं। वे वस्तुओं और स्थितियों के पीछे की परिस्थितियों, कारणभूत संदर्भों और राजनीति को खोलना चाहते हैं। पाठक को उसके गिर्द की शतध: प्रवहमान दुनिया का एहसास कराना ही इनका अघोषित काव्य-प्रयोजन है।

भावुक कविताएँ चिल्लर संवेदना की अपेक्षा रखती हैं : दाता मुक्त, याचक ख़ुश। दोनों की अवस्थिति यथास्थिति बनी रहती है।

विवेक निराला कविता की ज़िम्मेदारी को बढ़ाते हैं। वह पाठक से भावाकुलता नहीं चाहते, उसका अवधान चाहते हैं। कविता से जैसे ही उसका चित्त मिलता है, कविता उसे विडम्बनात्मक यथार्थ के सम्मुख ले जाकर छोड़ आती है। जहाँ से वह उत्तर-आधुनिक महावन में अपने दायित्वों की स्वयमेव पुनर्खोज करता है। ऐसे में उसकी क्रीड़ा-वृत्ति कई काम करती है। वह पाठक का ध्यान पाती है, भावुकता को तोड़ती है और कविता को पठनीय बनाती चलती है। इस संग्रह की ‘निष्ठा’ शीर्षक कविता समकालीन विष्ठा पर है, लेकिन शीर्षक निष्ठा है। कविता पढ़ते हुए स्मृतियों में धूमिल का एक प्रश्न बजता है—‘क्या मैं व्याकरण की नाक पर रूमाल लपेटकर निष्ठा का तुक विष्ठा से मिला दूँ?’ और शीर्षक अलग से व्यंग्यार्थक हो जाता है :

वह औरत जिसके सिर पर
टोकरी भर मल है, आत्मा से निर्मल है
मगर, हृदय से विकल।
उसकी काया में अनगिनत वैदिक घाव हैं।
सिर पर पीढ़ियों का बोझ है
जिससे पौराणिक दुर्गंध है।

यहाँ तक पहुँची है
वह औरत किसी शास्त्रीय रास्ते
से हाँफते और काँपते हुए।

यह कविता सिर पर मल उठाए स्त्री के प्रति सहानुभूति लेकर धन्य नहीं है, बल्कि उसकी जीवन-स्थितियों के कारणभूत सूत्रों को ‘आर्यावर्त की पौराणिक-ऐतिहासिक रुग्णताओं’ तक खोजती है। अगर आपको याद हो, प्रयाग में ही प्रधानमंत्री ने महिला सफ़ाईकर्मी का पैर धोकर झक्क सफ़ेद तौलिए से पोंछते हुए उसके कार्य को आध्यात्मिक कार्य बताया था। यह सनातन का अधुनातन प्रयोग है। इस आध्यात्मिक जादू से हिंदू धर्म का वर्णवाद न्यायोचित हो जाता है और सरकारी ज़िम्मेदारियाँ भी छिप जाती हैं। विवेक निराला की यह कविता उस पाखंड से पहले की है। कविता देखती है (कविता ही देख सकती है) कि उसकी काया पर अनगिनत वैदिक घाव हैं। कविता सूँघ लेती है कि उससे उठती दुर्गंध पीढ़ियों के पौराणिक बोझ से पैदा हो रही है। कविता खोज लेती है कि उसे आदिम युग से यहाँ इस लोकतंत्र तक विकट शास्त्रों के रास्तों से लाया गया है।

कविताएँ राजनीति और समाज-विज्ञान में पूर्व-उपलब्ध ज्ञान का अभिकथन नहीं करतीं। कविताएँ इस ज्ञान का उपयोग करती हैं, लेकिन मानवीय संवेदना के योग से वास्तविक स्थितियों के नवीन पहलुओं का उद्घाटन करती हैं। संपत्ति और व्यक्ति का स्वबोध जुड़ा हुआ है। उसके स्वबोध और आत्मपहचान को रचने वाली जितनी भी चीज़ें हैं, वे संपत्ति का रूप हैं। संपत्ति के अभाव में व्यक्ति व्यक्तित्त्वहीन होकर अपनी आत्मपहचान ही खो देगा। उसका अहंकार संपत्ति के प्रवाह और स्वरूप से आवयविक ढंग से बँधा हुआ है। जिसके साथ बँधा हुआ है, उसका सुख-दुख और उसकी विकलता। इस संग्रह की ‘पासवर्ड’ शीर्षक छोटी-सी कविता इस प्रक्रिया को बहुत सरलता से खोलती है :

मेरे पिता के पिता के पिता के पास
कोई संपत्ति नहीं थी।
मेरे पिता के पिता को अपने पिता का
वारिस अपने को सिद्ध करने के लिए भी
मुक़द्दमा लड़ना पड़ा था।
मेरे पिता के पिता के पास
एक हारमोनियम था
जिसके स्वर उसकी निजी संपत्ति थे।
मेरे पिता के पास उनकी निजी नौकरी थी
उस नौकरी के निजी सुख-दुःख थे।
मेरी भी निजता अनंत
अपने निर्णयों के साथ।
इस पूरी निजी परंपरा में मैंने
सामाजिकता का एक लंबा पासवर्ड डाल रखा है।

जैसे संपत्ति लगातार संपत्ति जोड़ने में लगी होती है, वैसे ही इच्छाएँ लगातार इच्छाएँ पैदा करती हैं। इच्छाओं का यह नैरंतर्य गतिशील स्वबोध और निजता की अनुभूति पैदा करती है। परंतु निजता की इस निस्सीम खोज में व्यक्ति सामाजिकता से कटता जाता है। छोड़िए, बातें ज़्यादा उलझ रही हैं, कहना यह है कि विवेक निराला वैरागी नहीं हैं। वह संपत्ति को माया नहीं मानते। वह जानते हैं कि संपत्ति त्यागने का प्रवचन वास्तव में व्यक्तित्त्व त्यागने की भूमिका है। परंतु संपत्ति का संचय उसे आत्मबद्ध और समाज विमुख बनाता है, वह इस द्वंद्व को भी समझते हैं।

इस तरह की ही एक और कविता है—‘तबला’, जो दिखती हुई चीज़ों का अदृश्य पार्श्व खोलती है। वह पार्श्व जहाँ अँधेरे में बिलखते कितने चेहरों पर चमकता एक चेहरा होता है। कितनी भूखों पर किसी भरे पेट की डकार। कितनी विसंवादी ध्वनियों को दबाकर सुर पैदा होता है। यह कविता उस अँधेरे, भूख और विसंवादी पार्श्व को खोलती है। इसी संग्रह की ‘जूठा-झूठा’ शीर्षक कविता अपनी मार्मिकता से झकझोर देती है। परंतु इसमें भी कारणभूत संदर्भों को ढककर कुछ नहीं होता, बल्कि इसकी अंतिम पंक्तियाँ आत्मा में जो चिलक पैदा करती हैं, वह उस कारणभूत संदर्भों के आलोक में ही संभव हुआ है :

आओ माई! देखें-बूझें
आँखों से क्या अब रिसता है
यह ज़ंजीर टूट जाने तक
इसे कौन-कौन घिसता है!

इन पंक्तियों में मजबूरी, निस्संगता और न जाने कितने अकथ भाव घुल गए हैं। ‘निषाद कन्या’, ‘बूढ़े’, ‘मेरा कुछ नहीं’ आदि इसी तरह की कविताएँ हैं।

संग्रह के उत्तरार्द्ध में तीन लंबी कविताएँ हैं : ‘स्मृतियों के भीतर-बाहर’, ‘बिरासत का सवाल’, ‘चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत’। ‘चार पुरुष और स्वर्ण युगों पर शोकगीत’ इस कविता-संग्रह की सबसे बड़ी, बढ़ी और महत्त्वाकांक्षी कविता है। इसे लंबी कविताओं की परंपरा में देखने पर कुछ मौलिक युक्तियों का प्रयोग मिलता है। ख़ास तौर पर चार चरित्रों का प्रयोग; जो वृहत्तर यथार्थ के अनेक पहलुओं को सामने रखते हैं और कविता को गति और पठनीयता देते हैं। इससे कविता में सुसंबद्धता और अन्विति भी आती है। परंतु कविता का संवेदनात्मक तनाव कुछ ढीला-सा है, जिससे यह एक ज़िम्मेदार सांस्कृतिक विमर्श बनकर रह जाती है। संग्रह की कुछ अन्य कविताओं में भी, जहाँ संवेदनात्मक गहनता नहीं है, वे प्रदर्शनप्रिय कौशल बनकर रह गई हैं। और भला किस संग्रह की सारी कविताएँ एक कैंड़े की होती हैं?