प्रेत को शांत करने के लिए
‘‘मनहूसियत का काम मत करो।’’—नानी ने जिन शब्दों में कहा था, उसके पीछे की भावना मैं बरसों खोजता रहा। नहीं मिली। न तो वो क्रोध था, न क्षोभ, न पीड़ा, न सलाह, न तंज़, न हँसी।
मैं किसी की ख़रीदी ‘मनोहर कहानियाँ’ के किसी अंक से पुष्कर पुष्प की कहानी के पन्ने फाड़कर लाया था और छत पर बने कमरे की किवाड़ के एकांत में खड़ा होकर जल्दी-जल्दी पढ़ रहा था। नानी की आवाज़ किसी गहरे कुएँ से आई लग रही थी। जैसे कोई प्रेतात्मा मेरे और उनके बीच खड़े होकर उनसे यह बात बुलवा रही हो। एक अजीब-सी सनसनाहट हुई जैसे सूरज के साथ ब्रह्मांड भी डूब रहा हो अंधकार में। बिना वजह मैंने झूठ बोला : ‘‘इंसपेक्टर नवाज़ की कहानी है, रहस्य रोमांच की।’’
नवाज़ सत्यकथा में आता था। मुझे लगा रहस्य को बालपन का रोमांच समझा जा सकता है। लेकिन बोलते हुए मेरी आवाज़ एकदम पतली और कमज़ोर हो गई थी।
‘‘अपने परिवार में ही देखा है—लोगों को बर्बाद होते हुए—इन पन्नों की ख़ातिर। इंसान पन्नों में डूबता है तो फिर वो पेड़ों का कटना नहीं देखता।’’—नानी ने धीरे से कहा। यह वात्सल्य से भरी आवाज़ थी। मन को थोड़ी शांति मिली। लेकिन प्रेतात्मा ने मेरे अंदर परकाया प्रवेश कर लिया था।
साहित्य पढ़ता है, उपन्यास पढ़ता है, कहानियाँ पढ़ता है—यह सुनते ही हमारे घरों में मुर्दनी छा जाती थी। प्रतीत होता था कि कोई हत्या करके आया है। साहित्य ने हमारे परिवारों को ऐसा तोड़ा था कि सबको इन पन्नों से डर लगता था—एक प्रेत की तरह। फिर भी किताबें घरों में पड़ी रहीं, ख़रीदी भी जाती रहीं। ठीक वैसे ही जैसे किसी की हत्या के बाद एक परिवार उस व्यक्ति के प्रेत को अपने ही घर में पानी चढ़ाता है। घर के किसी कोने में टँगे भीगे कपड़े से लगातार पानी टप-टप गिरता रहता है।
प्रेत ने पीछा नहीं छोड़ा।
वह डर परमानेंट बैठ गया।
प्रेत को शांत करने के लिए किताबें रखना ज़रूरी है। उन्हें पढ़ना और ज़्यादा ज़रूरी। चाहे उसके लिए नींद का ही त्याग क्यों न करना पड़े। पढ़ने के लिए अकेलापन ज़रूरी है। चाहे उसके लिए निर्दयी ही क्यों न बनना पड़े। वह मनहूसियत प्रेतात्मा को तारी रखती है।
लेखक ने सूअर के बारे में लिखा है? खाना खाते समय नहीं पढ़ूँगा। लेकिन जब पढ़ा तो थर-थर काँपने लगा। वह प्रेत और बड़ा हो गया। अट्टहास करने लगा। मैंने उँगलियों पर गिना : कैल्विनो, बालजाक, मॉरीसन, फ़्रायड… पाँचवीं उँगली पर रखा—जे एस राजपूत। एनसीईआरटी फ़ेमिलियर टेरिटरी के लिए। इतनी किताबों में सूअर नज़र नहीं आया? आया था, लेकिन उनका राइटर वाल्मीकि नहीं था। प्रेत ने वह दर्पण तोड़ दिया जिसमें साहित्य ख़ुशनुमा नज़र आता था। अब एक अतीव दुर्गंध भरा कमरा नज़र आई रही थी यह दुनिया—बंद—जिसमें से निकलने का कोई रास्ता नहीं था।
मनहूसियत की काट मनहूसियत ही होती है। प्रेत को भगाने के लिए प्रेत का सहारा लेना पड़ता है। काँटे को फूल से नहीं निकाल सकते, काँटे से ही निकालेंगे। महकते भीगे कपड़े पर कोई इत्र काम नहीं करता, उसे पानी में धोना ही पड़ता है। इसलिए लिखना शुरू किया। यह प्रेत सिद्धि की तरह था। ख़ुद ही श्मशान, ख़ुद ही कापालिक और ख़ुद ही भैरवी। जितना ख़ून डालता, कुंड की लौ उतना ही भड़कती। जिस दिन पूर्णाहुति थी, उस दिन प्रेत ने कान में सरगोशी की : ‘‘प्रेत के साथ अभिसार नहीं कर सकता, रक़ीब ही रहेगा।’’ समझा, तांत्रिक प्रेतों से प्रेम ही करते हैं। लेकिन कभी तृप्त नहीं हो पाते। और कोई वजह नहीं कि दुनिया छोड़कर घाट-घाट उनके पीछे भागते रहें।
दुनिया दुर्गंध से भरा एक कमरा है, जिसमें कोई पूछता तक नहीं। जीने के लिए उस कमरे में थोड़ी किताबें चाहिए। ऐसे में जिनका कंधा किसी ने कभी थपथपाया नहीं, उनको किताबें बहुत अच्छी लगती हैं। ख़ास तौर से वे कंधे जिन पर प्रेत बैठते हों। फिर उँगलियाँ चलने लगती हैं ताकि कंधों से फिसलकर वह प्रेत गिर जाए।
उपन्यास लिखते हुए कभी-कभी लगता है कि ख़ुद के लिए लिख रहा हूँ। किसी-किसी दिन लगता है कि पाठकों के लिए लिख रहा हूँ। किसी दिन लगता है कि लिखने के लिए लिख रहा हूँ। कभी-कभी कोई शब्द इतना ख़राब लगता है कि सर्च ऑल करके डिलीट कर देता हूँ। कभी-कभी कोई शब्द इतना अच्छा लगता है कि ज़बरदस्ती उसे कहीं न कहीं फ़िट करता हूँ। कभी-कभी जानबूझकर पूरा ड्राफ़्ट डिलीट हो जाने देता हूँ और फिर उसे रिट्रीव करने की झूठी कोशिश करता हूँ। गूगल पर हज़ारों फ़र्ज़ी तरीक़े हैं—इसके लिए। कभी-कभी ग़लती से सही में डिलीट हो जाता है। प्रेत मुस्कुराता है। तब वह और भयावह लगता है। यह पब्लिक में बताना ज़रूरी हो जाता है। शायद इससे डर कम होता है।
समझ आया, मुझे लिखने से ज़्यादा पढ़ना बहुत पसंद है।
रात के अकेलेपन में पढ़ना बहुत अच्छा लगता है। लिखना सबसे ज़्यादा अच्छा तब लगता है जब मुझसे थोड़ी दूरी पर दो लोग आपस में धीरे-धीरे बातें कर हँस रहे हों। तब अकेलेपन में लिखना बहुत नक़ली लगने लगता है। कभी-कभी अकेलेपन में ही कुछ ऐसा लिख लेता हूँ जिसे याद कर कई दिन हँसी आती है। फिर उसे कट-पेस्ट कर एक अलग फ़ोल्डर में सेव कर लेता हूँ जो सिर्फ़ मेरे लिए है—बाद में पढ़ने के लिए। दुनिया की मार खाकर जब प्रेतों की दुनिया में विचरण करते हैं तो लगता है कि यह मेरा प्रेत है। लेकिन रात में प्रेत जगते हैं। लिखने नहीं देते। किताबें खोजनी पड़ती हैं—पढ़ने के लिए।
तिब्बती मानते हैं कि मरने के बाद इंसान बारदो में प्रवेश करता है। बारदो—यानी मृत्यु और पुनर्जन्म के बीच की अवस्था। बुद्ध की तरह पूछता हूँ प्रेत से : ‘‘मैं तो बारदो में ठहर गया, तू कब ठहरेगा?’’ प्रेत हँस पड़ता है—कृष्ण की तरह : ‘‘तू मुझमें देख, सकल ब्रह्मांड। देख कि तिब्बत ख़ुद ही बारदो में है, लेकिन फ़िसल रहा है—रोज़। जब तिब्बत नहीं ठहरा, तू क्या ठहरेगा।’’
ख़ुद को सामान्य करने के लिए वे कहानियाँ, वे उपन्यास याद करता हूँ जिनमें हास्य था। एक सरलता थी। एक सामान्य जीवन था, जिसमें कुछ भी बुरा घटता ही नहीं था—अकबर-बीरबल, तेनालीराम, बाँकेलाल की कहानियों की तरह; चंदामामा की कहानियों की तरह। उस बूढ़े को याद करता हूँ जो मेरा बाबा था और जिसे मैं उसके नाम से बुलाता था—एक दोस्त की तरह। दादा और नाती-पोते दोस्त होते हैं।
मैं ऑक्सफ़ोर्ड की डिक्शनरी लेकर बैठता और उससे शब्दों के अर्थ पूछता। बुढऊ को सारे मतलब पता थे। मैं रोज़ इसी निश्चय के साथ बैठता कि आज कोई शब्द मिलेगा जिसमें बुढ़ऊ को फँसाऊँगा। धीरे-धीरे ढिबरी का किरासन कम होते जाता। फिर सब सोने चले जाते। एक दरवाज़ा, एक गलियारा, एक कमरा, एक आँगन और फिर वो कमरा जहाँ मुझे सोना था। भागते हुए जाता था, पर ख़याल रखना था कि ढिबरी बुते नहीं। मुझे नहीं मालूम था कि जिन प्रेतों से उस वक़्त डरता था, वे सही में होते हैं। बाबा कभी-कभी सपने में आते हैं। ऑक्सफ़ोर्ड की डिक्शनरी लेकर। पूछने की बारी उनकी है। मैं काँप जाता हूँ।
एक कहानी पढ़ी जिसमें पीली मुसंबियों का ज़िक्र था। एक लड़की मर जाती है, तो लड़का मुसंबियों के पत्ते देखता है। लड़की की क़ब्र होती है वहाँ। उस कहानी का फिर कुछ पता नहीं चला। खोजता रह गया। फिर कादंबिनी में एक कहानी मिली—‘लोला, मेरी आधी मंगेतर’। वह कभी समझ नहीं आई। बाद में समझ आया कि ये सारे उसी प्रेत से पीड़ित हो सकते थे। थोड़ी राहत मिली। इस्लाम में श्रोडिंगर्स कैट के बारे में क्या कहा गया है? हमारी नफ़रत की रेडियोएक्टिव लाइफ़ कितनी है? तूतेनख़ामेन की तरह घर में ही मारे जाएँगे और तीन हज़ार साल बाद अपनी ही क़ब्र के आस-पास घूमते रहेंगे—संगीत बजाते हुए।
कभी-कभी हूक उठती है कि स्पेस और टाइम के कॉन्सेप्ट में इतनी चीज़ें हो रही हैं, विज्ञान ने इतनी प्रगति कर ली है, फिर एक प्रेत का इतना दबाव क्यों है? पास्कल का नियम काम क्यों नहीं करता? तब तक बेंजामिन लाबातूत ने अपनी किताब में लिख दिया कि ब्लैकहोल में स्पेस और टाइम का कोई कॉन्सेप्ट नहीं है। बेंजामिन ने यह बात खोजी नहीं थी। वह भी प्रेतों को पानी चढ़ाते-चढ़ाते यह समझ पाया था। उसकी किताब में मैथेमेटिशियन अलेक्ज़ेंडर ग्रोथेनडाइक का प्रेत मिला जो अपने गणित को युद्ध का आधार मान बैठा और जिस गणित में उसने अपना एक तिहाई जीवन लगाया था, उसे नष्ट करने के लिए बाक़ी जीवन लगा दिया। अपनी पाँडुलिपियाँ जला दीं, पद-प्रतिष्ठा छोड़ी, जेल गया, ग़ायब हो गया। फ़्रांस की पहाड़ियों में, गाँवों में प्रेत बनकर घूमता रहा—वियतनाम के पीछे। मरा कब? 2014 में। एक गणितज्ञ का भूत युद्ध के ख़िलाफ़ पचास साल तक घूमता रहा, इस बीच अमेरिका ने इराक़, अफ़ग़ानिस्तान, लीबिया और सीरिया पर भी हमला कर दिया।
अमेरिका ब्लैकहोल है या फिर अलेक्ज़ेंडर ग्रोथेनडाइक जैसा गणितज्ञ? जहाँ एब्सट्रैक्शन ही गुम हो जाता है और इतिहास का प्रेत वर्तमान में भी चला आता है। लगता है कि वह कभी गया ही नहीं था और न कभी जाएगा। पढ़ना मजबूरी है—उस प्रेत को शांत करने के लिए। जो स्पेस और टाइम से मुक्त है, जो चढ़ावा न पाकर किसी ब्लैकहोल में फेंक देगा। अगर यह अंधविश्वास है तो अंधविश्वास ही सही। क्योंकि कोई और रास्ता नहीं है। जीवन बारदो की मनहूसियत ही है जिसे हिंदू प्रेत कहते हैं।