कवि चंदबरदाई और उनका ‘पृथ्वीराज रासो’

इतिहास की तारीख़ के हिसाब से देखा जाए तो कवि चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ को हिंदी की पहली रचना होने की इज़्ज़त बख़्शी गई है।

पृथ्वीराज रासो हिंदी का सबसे बड़ा काव्य-ग्रंथ है। इसमें 10,000 से अधिक छंद हैं और उस दौर की सात प्रचलित भाषाओं का इस्तिमाल किया गया है। चंद का पृथ्वीराज रासो अरबी-फ़ारसी शब्दों से भरा पड़ा है। चंद भारत के अंतिम हिंदू सम्राट पृथ्वीराज चौहान के दोस्त और राजकवि थे। पृथ्वीराज ने 1165 से 1192 तक अजमेर से लेकर दिल्ली पर राज किया। तभी चंदबरदाई ने इसे लिखा। चौहान की हमलावर मुहम्मद ग़ोरी से जंग चल रही थी। इस जंग में पृथ्वीराज की वीरता का बखान चंद ने इस रासो में किया है।

यह हिंदी का अब तक का सबसे विवादित महाग्रंथ है। पहली बात तो यह कि ‘पृथ्वीराज रासो’ उस ज़माने की ऐतिहासिक क्रोनोलॉजी से बिल्कुल मेल नहीं खाती। रासो में दर्ज सारी तारीख़ें ग़लत हैं। वे शिलालेखों से मेल नहीं खातीं। रासो के कई वाक़्ये इतिहास में दर्ज घटनाओं से मेल नहीं खाते। रासो की मूल कॉपी अब तक किसी को नहीं मिली है। उसकी जो प्रतिलिपि मिली वह 1664 ई. यानी मुग़लकाल की ‌है। इस रासो में तैमूर और चंगेज़ ख़ाँ के नाम आए जिन्होंने पृथ्वीराज के बहुत बाद में भारत पर हमला किया था। इसलिए गौरीशंकर हीरचंद ओझा जैसे पुराने और मशहूर इतिहासकार संदेह करते हैं कि ‘‘ये रचना 16वीं सदी की किसी भाट की कल्पना भर है।’’ (हिंदी साहित्य का इतिहास, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पृष्ठ : 41)

पृथ्वीराज के राजमहल में कश्मीरी कवि जयानक ने संस्कृत में ‘पृथ्वीराजं विजय’ नाम का ग्रंथ लिखा जो प्रमा‌णिक माना गया है। उसमें वे सभी घटनाएँ दर्ज हैं जो इतिहास में मिलती हैं। उसमें भी कहीं चंद या उसके रासो का ज़िक्र नहीं है। फिर भी विद्वानों ने इस पर ग़ौर इसलिए किया कि इसकी भाषा पुरानी हिंदी के बहुत क़रीब है। ग्रियर्सन कहते ‌है कि ‘‘रासो की प्रामाणिक प्रति न मिलने पर भी ये ग्रंथ इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसमें शुरुआती हिंदी पर रोशनी डालने लायक़ काफ़ी चीज़ें हैं।’’ (मॉर्डन वर्नाकुलर लिट्रेचर ऑफ़ हिंदुस्तान, ग्रियर्सन 1887)

फिर तक़रीबन सभी ने मान लिया कि ‘पृथ्वीराज रासो’ कोई छोटा ग्रंथ होगा जिसमें बाद के भाट कवि कुछ न कुछ जोड़ते चले आए। इस ग्रंथ की ज़बान काफ़ी हद तक 12वीं सदी के आस-पास की है। तो इस किताब से उस पुरानी ज़बान को समझने की थोड़ी कोशिश तो की ही जा सकती है। फिर यह ‌अगर उतनी ही पुरानी रचना है जितना कि इसे बताया जा रहा है तो इस ग्रंथ की भाषा से उस ज़माने की हिंदी का पता चलता है, जो दिल्ली-राजस्थान के इलाक़े में प्रचलित रही होगी। अभी तक दिल्ली की कुर्सी पर किसी मुसलमान शासक का क़ब्ज़ा नहीं हुआ था। लेकिन पिछले कोई दो सौ साल से मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमले हो रहे थे। बड़ी गिनती में मुसलमान भारत में बसने भी लगे थे। कई हिंदू मुसलमान बने थे। ये मुसलमान अपने बेटियों की शादियाँ बाहर से आए मुसलमानों से भी करते थे। जैसे ख़ुसरो की माँ ने एक तुर्क से शादी की थी।

बहरहाल, पृथ्वीराज रासो में चंदबरदाई ने तुर्की, अरबी-फ़ारसी शब्दों का ख़ूब इस्तिमाल किया। चंद को इन विदेशी भाषाओं की अच्छी जानकारी थी, वह इसलिए क्योंकि वह पंजाब के लाहौर में पैदा हुए जहाँ दो सौ साल से मुसलमानों का राज चल था। पौराणिक आख्यानों में लाहौर शहर का नाम भगवान राम के बेटे लव से जोड़ा गया है। लाहौर के बारे में सबसे पुराना प्रामाणिक दस्तावेज़ ‘हुदुद-ए-आलम’ सन् 982 ई. में लिखा गया जिसका अनुवाद व्लादिमीर फ़ेडोरोविच मिनोरस्की ने अँग्रेज़ी में किया था। यानी 10वीं सदी में वहाँ इस्लाम का अच्छा ख़ासा असर था। बावजूद इसके चंद की भाषा में वह खरापन और रवानगी नहीं है, जो अमीर ख़ुसरो की भाषा में था। इस अंतर को हिंदी वालों ने डिंगल और पिंगल में समझाया है।

राजपूताने में दो तरह की भाषाएँ चलती हैं : एक डिंगल यानी अनगढ़ या लट्ठमार भाषा दूसरी पिंगल यानी थोड़ी साफ़-सुथरी और खरी भाषा। चंद की भाषा अनगढ़ भाषा थी। इस भाषा में तमाम शब्द शुरुआती हिंदी के थे।

चंद के रासो की भाषा क्या थी, इसमें विद्वानों में गहरा विवाद है। आचार्य शुक्ल जैसे विद्वान झुँझलाकर इस भाषा को ‘बिला कुल बे-ठिकाने’ की भाषा कह बैठते हैं। (हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ : 44) शुरूआत में इसे पिंगल भाषा की रचना मानी जाती थी। लेकिन डॉ. दशरथ शर्मा ने इसे अपभ्रंश माना, जबकि ग्रिर्यसन, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ. धीरेंद्र वर्मा जैसे विद्वानों ने इसे प्राचीन ब्रज भाषा या प्राचीन पश्चिमी हिंदी कहा। तब से इसे हिंदी की प्राचीनतम या पहली रचना माना जाना लगा। रासो में पाँच भाषाओं के शब्द मिलते हैं। संस्कृत तत्सम, प्रकृत-अपभ्रंश, हिंदी तद्भव, पुरानी राजस्थानी और फ़ारसी अपभ्रंश। फ़ारसी अपभ्रंश इसलिए कह रहा, क्योंकि इसमें फ़ारसी का भ्रष्ट रूप मिलता है, जैसे : रासो अरब को ‘अरब्बी’, ‘आसमान’ को ‘असमान’, ‘कमान’ को ‘कम्मान’, ‘तख़्त’ को ‘तखत,’तुर्क’ को ‘तुरक’ लिखते हैं। ज़ाहिर है कि चंद हिंदू थे और उन्होंने उस ज़माने में हिंदुओं द्वारा बोली जाने वाली फ़ारसी में लिखा।

लेकिन अमीर ख़ुसरो की हिन्दवी तो जैसे 21वीं सदी की हिन्दवी हो। ख़ुसरो की भाषा इतनी सुंदर और साफ़ है कि उनके तराने आज भी लोगों का मन मोह लेते हैं। गाने के लिहाज़ से इसमें लय, सुर, ताल सब है। देखिए :

छाप तिलक सब छीनी रे मोसे नैना मिलाइके
प्रेम भटी का मदवा पिलाइके
मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके
गोरी गोरी बईयाँ, हरी हरी चूड़ियाँ
बईयाँ पकड़ धर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके

अमीर ख़ुसरो और उनसे सौ साल पहले चंदबरदाई की भाषा देखिए :

हरषत अनंद मन मँह हुलस, लै जु महल भीतर गइय
पंजर अनूप नग मनि जटित, सो तिहि मँह रष्षत भइय
तिहि महल रष्षत भइय, गइय खेल सब भुल्ल
चित्त चहुँट्टयो कीर सों, राम पढ़ावत फुल्ल॥

इन दोनों कवियों के बीच सौ साल से भी कम का फ़ासला है। दोनों की ज़बान दिल्ली के आस-पास की है। दोनों ने अपनी कविता में अरबी-फ़ारसी के लफ़्ज़ लिए। फिर दोनों की हिंदी में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ क्यों है? हैरत की बात है कि चंद और अमीर ख़ुसरो के बीच के सौ साल में एक भी ऐसी साहित्यिक रचना नहीं मिलती जो अमीर ख़ुसरो की भाषा के ज़रा भी क़रीब हो। विद्यापति की ‘कीर्तिलता’ बहुत कुछ उसी शैली में लिखी गई थी, जिसमें चंदबरदाई ने ‘पृथ्वीराज रासो’ लिखा था। इसमें संस्कृत ओर प्राकृत के छंदों का जम कर इस्तिमाल हुआ है। ये हिंदी नहीं है। इसे पुरानी हिंदी भी कहना ठीक नहीं है।

इस प्रकार बिना किसी विवाद के नतीजा यह निकलता है कि 13वीं सदी के अमीर ख़ुसरो भारत में हिंदी या कहें उर्दू ज़बान के पहले कवि थे। अमीर ख़ुसरो पर तफ़्सील से अगली कड़ी में…

जारी…

~•~

पिछली कड़ियाँ यहाँ पढ़ें : आया कहाँ से ये लफ़्ज… | अपभ्रंश का दौर | हिंदी का पहला मुसलमान कवि