साक्षात्कार या संवाद के शिल्प में नहीं इस साक्षात्कार या संवाद की शुरुआत आज से क़रीब चार वर्ष पूर्व हुई। मुलाक़ातों और सवालों के सिलसिले इसमें जुड़ते और नए होते चले गए। सवालों के जवाब देने और उन्हें माँजने के लिए यहाँ पर्याप्त वक़्त लिया गया। प्रत्येक जवाब पर एक रचना की तरह कार्य किया गया है। यह प्रयास और धैर्य अपनी ओर से आ रहे शब्दों के प्रति एक रचनाकार की ज़िम्मेदारी और नैतिकता को दर्शाता है। पूछे गए सवालों में पूछने वाले की वे निजी बेचैनियाँ भी हैं, जिनके बारे उसे लगता रहा कि इन्हें किससे और कहाँ साझा किया जाए। जवाबों की विश्वसनीयता के संकट वाले समय में उसे अपने सवालों के कितने ईमानदार जवाब मिले हैं, यह तो अब इस साक्षात्कार की सार्वजनिकता ही साबित करेगी। इस अर्थ में इस सिलसिले को इस रूप में अंतिम मान लेना एक बाध्यता है। योगेंद्र आहूजा (जन्म : 1959) इस साहित्य-समय के एक अप्रतिम हस्ताक्षर हैं, अलग से उनका कोई परिचय यहाँ दरकार नहीं है। ऐसा क्यों है, यह उनके जवाबों से जाना जा सकता है…
— अविनाश मिश्र
6 मई 2015
‘तद्भव’ में आपकी कहानी ‘एक्यूरेट पैथालॉजी’ को आए एक लंबा वक़्फ़ा, क़रीब चार वर्ष बीत गए हैं। गए वर्ष नौ साल बाद आपकी दूसरी किताब यानी दूसरा कहानी-संग्रह ‘पाँच मिनट और अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित हुआ। ‘अँधेरे में हँसी’ के बाद कह सकते हैं कि एक इंतज़ार ख़त्म हुआ तो एक अब भी बरक़रार है। इन अंतरालों या ठहराव के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
पहले तो यह कि क्या तुम साक्षात्कार लेना चाहते हो? तो मैं कहना चाहता हूँ कि साक्षात्कार देना मुझे नहीं आता। एक ख़ास तरह की नक़ली, तकनीकी ज़ुबान में सावधान वाक्य, झूठे वक्तव्य जिनका उदेद्श्य बस यह बताना कि वे जनाब इस नश्वर दुनिया को ख़ुदा का तोहफ़ा हैं—हर क़िस्म की कमज़ोरी या वल्नरेबिलिटी से मुक्त और संशयों से परे। ग़लतियों से भी परे, हमेशा सही, बल्कि सत्य के अभिभावक। मैं ऐसा नहीं कर सकता।
अब तुम्हारे सवाल के बारे में… रुकना, थोड़ा-सा ठहरना, यह तो संगीत का अनिवार्य अंग है। पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की कितनी ही ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें ख़ामोशी के अंतराल उस रचना का अनिवार्य हिस्सा होते हैं। तुमने ‘रज़िया सुल्तान’ फ़िल्म का गाना ‘ए दिले नादाँ…’ सुना है? उसमें ‘यह ज़मीं चुप है…’ और ‘आसमाँ चुप है…’ के बीच जो चुप्पी है, कैसी मानीख़ेज़ है। बाद में गाने से अधिक वह चुप्पी ही याद रहती है।
नहीं यार, यह तो मैं हल्के मूड में कुतर्क गढ़ रहा हूँ, अपने को बहलाने, तुम्हें बहकाने के लिए। यह सीरियसली लेने के लिए नहीं है। न लिखने की कोई माफ़ी नहीं, किसी भी वजह से, किसी भी परिस्थिति में, उसके लिए कोई तर्क नहीं दिया जा सकता, वह भी हमारे वक़्त में, जब इतनी मिसालें मौजूद हैं। युद्धों, जलावतनी, कारावास, अकथनीय तकलीफ़ों में भी रचनारत रहने की… पेंसिल के लेड का चौथाई इंच टुकड़ा कहीं दरी में छुपाए, किसी रद्दी काग़ज़ के टुकड़े पर, दीवारों पर। बीसवीं और उन्नीसवीं सदी में लेखकों की ऐसी अनगिनत मिसालें हैं। शब्द की सत्ता और गरिमा के लिए लेखकों ने अपना सब कुछ दाँव पर लगाया है। दोस्तोयेव्स्की, सबको पता है, को तत्कालीन जार ने, केवल मित्रों के साथ एक बहस में हिस्सा लेने के लिए, जिसे एक भारी-भरकम नाम दे दिया गया, ‘पेत्राशेव्स्की षड़यंत्र’, मृत्युदंड दिया था और गोली से उड़ाए जाने से कुछ ही देर पहले उसे निर्वासन में बदल दिया था। साइबेरिया… जो रूस के माथे पर एक बदनुमा दाग़ है, में उनके चार साल अपराधियों, चोरों, ख़ूनियों के बीच बीतते हैं… सुबह से शाम श्रम करते, ईंटें ढोते, बर्फ़ काटते। वहाँ से लौटकर वह जो किताब लिखते हैं, ‘हाउस ऑफ दी डेड’, वह जैसे रूस को उसकी निद्रा से जगा देती है। तत्कालीन जार भी क्रेमलिन में वह किताब मँगवाता है और रोते-रोते उसे पढ़ पाता है (क्या वही जार जिसने उन्हें मृत्युदंड दिया था?) यह आख़िरी हैरतअंगेज़ जानकारी मुझे पिछली शती के महान जर्मन लेखक स्टीफेन स्वाइग की अद्भुत किताब ‘तीन उस्ताद’ (‘थ्री मास्टर्स’) में मिली जो बाल्जाक, डिकेंस और दोस्तोयेव्स्की के बारे में है। और स्टीफेन स्वाइग… जिनके उपन्यास ‘बिवेयर ऑफ पिटी’ की समतुल्य किताब समूचे विश्व साहित्य में दुर्लभ है, उनका ख़ुद का जीवन…। वह एक समय यूरोप के सबसे लोकप्रिय, सबसे समादृत लेखक थे। हिटलर के सत्ता में आने के बाद उन्हें भिखारियों की तरह मुल्क-दर-मुल्क भटकना पड़ा। मिलकोश राद्नोती, जिनसे फ़ाशीवादियों ने उनकी अपनी ही क़ब्र खुदवाई… बाद में उनकी कुछ अंतिम कविताएँ, ख़ून से सनीं, उनकी जेब से प्राप्त हुईं। कितने लेखक होलोकास्ट में मारे गए, कितने जेलों और श्रम शिविरों में, इसका कोई हिसाब है? ये सब बातें मुझे हमेशा याद रहती हैं।
इंसान की यातना और उसका सर्वश्रेष्ठ सृजन, आर्ट और विचारों की दुनिया में, इनके अलावा दुनिया में भला और क्या है जो सिर नवाने के योग्य हो। किसी शख़्स की मनुष्यता की भी अकेली माप, मेरा मानना है कि यही है… कोई उनके समक्ष कितना विनीत या ख़ामोश हो पाता है।
हर लम्हा जो आप लिखने में लगा सकते थे मगर इतर कामों में ज़ाया करते हैं, वह एक बोझ या क़र्ज़ की तरह आपकी छाती पर लदता जाता है। मुझे तुम्हारे सवाल पर गंभीरता से विचार करना होगा।
ज्ञान (रंजन) जी ने एक साक्षात्कार में न लिखने के बहुत से कारण बताए थे। मैं कोशिश करता हूँ कि एक सचेतक की तरह उन्हें हमेशा याद रखूँ। वे कारण हैं—उसकी ख़ामोशी छिन जाना, कुलवक़्ती लेखक न बन पाना, रिश्तों को लेकर अत्यधिक मानवतावादी प्रपंच में फँसे रहना। एक क्रूर अनुशासन का पालन न कर पाना। शारीरिक श्रम और दुनियादारी की ज़्यादती। पॉलिमिकल स्वाद का, छद्म सार्वजनिकता का, सांसारिकता का शिकार होना। रिलैक्स न करना, वीरानी से भागना। अत्यधिक राजनैतिकीकरण। लिटरेचर और कल्चर की दुनिया की सृजनात्मक गहमागहमी से विमुख होकर आदर्श गृहस्थ हो जाना इत्यादि। ‘मनुष्य से वीरान की तरफ़ आना और वीरान से मनुष्य की तरफ़ जाने की यात्रा एक साधना है’ उसी साक्षात्कार में यह एक अदभुत वाक्य था जो मुझे कभी नहीं भूलता। मगर फ़िलहाल अगली कहानी आने में कुछ देर होने के पीछे इनमें से एक भी कारण नहीं है। शायद रिश्तों वाली और शारीरिक श्रम वाली बात आंशिक रूप से सच हो। मगर असल बात यह है कि जैसी कहानियाँ अभी तक लिखी हैं, वैसी ही लिखना, अपने को रिपीट करना… उबाऊ लगता है। अब अगली कहानी चाहिए, मतलब आगे की कहानी। कुछ असुविधाजनक, कड़वे सचों की कहानी जो बेशक आघात पहुँचाए, तारीफ़ों का कसता घेरा तोड़ दे। अगली कहानी जल्द ही आएगी, मगर यह भी तय है कि रोज़ दो रीफ़िल घिस देने वाला लेखक कभी नहीं बन सकूँगा। मैंने सुना है कि ऐसे लेखक भी हमारे बीच हैं। मगर उससे क्या होता है सिवाय रीफ़िल बर्बाद होने के। 🙂
मगर मैं लेखकों की ख़ामोशी का भी आदर करता हूँ। वह कायर ख़ामोशी नहीं जो कमिट करने या पोजीशन लेने से बचने का नतीजा होती है। कभी-कभी कुछ परिस्थितियों में ख़ामोश रहना अपने में एक अदम्य साहस हो सकता है। पिछली सदी के अद्भुत कथाकार इसाक बाबेल ने कहा था कि अब मैं एक नई विधा का प्रयोग करने जा रहा हूँ… मौन की विधा। उनके देश में उनकी ख़ामोशी को भी बर्दाश्त नहीं किया गया। जब लेखक को लगे कि उसका सच सर्वव्यापी झूठ का हिस्सा बन जाएगा, उसी के हवाले हो जाएगा, तब उसे ख़ामोश रहना चाहिए।
अगर इस संसार में सिनेमा नाम की कोई कला-विधा नहीं होती, तो आपकी कहानियाँ कैसी होतीं?
तुमने मुझे पकड़ ही लिया। सिनेमा का ज़िक्र ले आए। क्षणांश में अनगिनत फ़िल्में ज़ेहन में कौंध गईं।
सिनेमा की लत मुझे बहुत बचपन में ही पड़ गई थी। मन के स्क्रीन पर अब भी, हर वक़्त, एक अनवरत शो चला करता है। एक अनंत फ़िल्म।
बचपन में हम रहते थे काशीपुर (नैनीताल) की रेलवे कॉलोनी में। उस वक़्त वह एक उनींदा शहर था, सोता हुआ छोटा-सा स्टेशन। वह शहर, स्टेशन और वक़्त… अब वह सब नष्ट हो चुका है। वह स्टेशन महीने में एक या दो बार सिनेमा हॉल बन जाता था। वहाँ गिनती की गाड़ियाँ आती-जाती थीं। आख़िरी ट्रेन के जाने के बाद चारपाइयाँ और खटोले, मूढ़े, कुर्सियाँ, स्टूल उठाए अंकल जी, आंटी जी, चाचा जी, सारे लोग स्टेशन पर चले आते थे, वहाँ फोल्डिंग स्क्रीन के आगे (पीछे भी) जम जाते थे। हाजी साहब, बाजी, आपा, ख़ाला, वड्डे भ्राजी, बऊ दी सब। कितना उल्लास होता था, ख़ुशी बरसती थी। वे छोटी-छोटी प्रचार फ़िल्में होती थीं, और फ़ीचर फ़िल्में भी। अब याद करने पर लगता है कि शायद वही मेरे जीवन के सबसे ख़ुशगवार लम्हे थे। वहाँ जो फ़िल्में देखीं, वे आज तक याद हैं, फ्रेम-दर-फ्रेम—‘एक के बाद एक’, ‘परिवार’, ‘सास भी कभी बहू थी’, ‘समाज को बदल डालो’, ‘जागृति’, ‘दीप जले’। ये फ़िल्में काशीपुर स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर पहले देखीं, सिनेमा हॉल बाद में डिस्कवर किए। एक अँग्रेज़ मुझे सबसे पहले सिनेमा हॉल में लेकर गया था।
वह अँग्रेज़ स्टेशन पर आया था, पता नहीं कहाँ से। संभव है वह फ्रांसीसी रहा हो या कहीं और का, मगर हमारे लिए तो उस वक़्त सारे ही गोरे अँग्रेज़ थे न। मैंने पहली बार कोई अँग्रेज़ देखा था। उस वक़्त उस क़स्बे में किसी अँग्रेज़ का आना… वह एक खलबली थी, एक सनसनी थी। हम मरियल, दुबले, नाटे भारतीयों से कितना अलग। पता नहीं कहाँ-कहाँ से लोग निकल आए उसे देखने के लिए। मैं मंत्रविद्ध-सा उसके पीछे-पीछे चलने लगा। वह हरेक से अँग्रेज़ी में कुछ पूछ रहा था, बच्चों के हुजूम में दुकान-दुकान चलता हुआ। उसे दरअसल कॉफ़ी की तलब लगी थी। वह पूछ रहा था कि कॉफ़ी कहाँ मिलेगी। इशारे से कहता हुआ—कॉफ़ी-कॉफ़ी। फिर किसी ने उसे इशारे से ही बताया कि कॉफ़ी पूरे काशीपुर में हरी पैलेस की कैंटीन में मिले तो मिले। ‘थैंक्यू’ कहकर वह चल पड़ा। मैं शोर मचाते बच्चों की भीड़ में उसके पीछे। पता नहीं कितनी दूर, कितनी देर चलने के बाद हरी पैलेस आया। पहली बार मैंने कोई सिनेमा हॉल देखा था। उसकी ऊँची इमारत, पोस्टरों, रोशनियों ने मुझे आविष्ट कर लिया। उन दिनों बिजली घरों तक नहीं आई थी। मैं उसके पीछे-पीछे सिनेमा हॉल में चला गया, जैसे एलिस पहली बार एक सूटेड-बूटेड ख़रगोश के पीछे चलती हुई वंडरलैंड में जाती है। पता नहीं उसे कॉफ़ी मिली या नहीं, मुझे तो जैसे अपना ठिकाना मिल गया। वहाँ की रोशनियों, पोस्टरों और वहाँ की उत्तेजक गहमागहमी ने मुझे अपना ग़ुलाम बना लिया। तब तक़रीबन छह या सात साल का रहा होऊँगा। वहाँ से लौटने का रास्ता मुझे नहीं पता था। पिताजी साइकिल पर न जाने कहाँ-कहाँ मुझे तलाशते रहे थे।
बचपन में देखी फ़िल्में ‘अब दिल्ली दूर नहीं’, ‘हिमालय की गोद में’, ‘बैजू बावरा’, ‘गूँज उठी शहनाई’, ‘देवर’, ‘सिकंदर-ए-आज़म’, ‘शोर’ और अन्य तमाम… ये सब मेरे लिए महान फ़िल्में है। मेरे लिए वे फेलीनी और कुरोसावा और तारकोवस्की की फ़िल्मों से कम नहीं हैं। मेरी अभिरुचि पर तरस खा सकते हो, लेकिन उन्हें एक व्यस्क की क्रिटिकल निगाह से देखना मेरे लिए मुमकिन नहीं। स्टेशन पर नई फ़िल्मों के पोस्टर लगते थे। नई फ़िल्में बड़े-बड़े बक्सों में स्टेशन पर उतरती थीं। पूरे शहर से पहले यह जानने और सबको बताने का सुख अद्भुत था कि अब कौन-सी फ़िल्म लगने वाली है। नई फ़िल्मों के कार्ड्स (सिनेमाघरों में शीशों में प्रदर्शित फिल्मों के स्टिल्स। अब उनका रिवाज नहीं रहा।) देखने के लिए पैदल मीलों चलना, चाहे कड़ी धूप हो या कोहरा, यह बहुत मामूली बात थी। एक अँग्रेज़ी फ़िल्म सुबह के शो में लगी थी जिसका शीर्षक अविस्मरणीय था ‘किस-किस किल-किल’। वह रतन टॉकीज़ में लगी थी। तब सिनेमा के होर्डिंग्स बनाने वाले आर्टिस्ट अलग होते थे। उसने हिंदी में उसका अनुवाद किया था—‘चूमाचाटी और मारामारी’ एक बार ‘जौहर महमूद इन हॉन्गकॉन्ग’ के होर्डिंग में हॉन्गकॉन्ग को हांगहांग लिखा गया था और हम उसकी मूर्खता पर हँसते रहे थे।
‘खेल के दौरान बिजली चले जाने पर पैसे वापस नहीं होंगे। अगले शो में या अगले दिन खेल दिखाया जाएगा…’ यह स्लाइड पिक्चर के पहले और मध्यांतर में दिखाई जाती थी। बिजली अक्सर जाती थी। लोग पर्दे पर टॉर्च की रोशनियाँ फेंकते हुए धैर्य से इंतज़ार करते थे, कभी-कभी घंटों। फिर क़स्बे के जीवन में एक युगांतरकारी घटना हुई, ‘ग्रेट लीप फ़ॉरवर्ड’ सरीखी। वह यह कि हरी पैलेस में पहली बार जेनरेटर लगाया गया। हमारे दिलों में ठंडक छा गई… गहरी तसल्ली कि अब बिजली जाने पर मज़ा किरकिरा नहीं होगा। फिर हम बच्चों में उस जेनरेटर को देखने जाने की होड़ लगी रही। सिनेमाघरों की एक प्रदेशव्यापी तीन हफ़्तों की हड़ताल मुझे याद है। मुझे उस दौरान डिप्रेशन हो गया था।
सिनेमा मेरा पैशन है। सिनेमाघरों के अँधेरे में एक लंबा वक़्त गुज़ारा है। निर्देशक बनने का सपना भी कभी पाला था जो बाद में दम तोड़ गया। बाद में पिछली शताब्दी का काफ़ी सारा महान सिनेमा देख पाया और किताबों से कहीं ज़्यादा, या कम से कम बराबर, सिनेमा से पाया। सभी देशों की फ़िल्में— जापान, इटली, फ्रांस, रूस, जर्मनी, पूर्व यूरोपीय देश, और हॉलीवुड और हिंदी, बंगाली, मराठी, मलयालम फ़िल्में सभी कुछ।
सिनेमा के न होने पर कहानियाँ कैसी होतीं यह कहना मुश्किल है, लेकिन ज़िंदगी बिना शक बेरंग और बेमज़ा और उदास होती। सिनेमा ने मेरे बोध को एक ख़ास तरह से दृश्यात्मक और ध्वन्यात्मक बनाया। कहानी लिखते हुए उसके द्विआयामी दृश्य फ़िल्म के फ्रेम की तरह ही दिमाग़ में आते हैं और पीछे की ध्वनियाँ भी सुन पाता हूँ। लेकिन यह केवल विजुअल्स की बात नहीं। शायद फ़िल्मों के प्रति प्रेम का कुछ असर मेरी यथार्थपरकता की धारणा पर भी है। फ़िल्मों की कहानियाँ और उनके पात्र, वे जीवन से और जीवन के बारे में तो होते हैं, लेकिन जीवन के बराबर नहीं। वहाँ सब कुछ ‘लार्जर दैन लाइफ़’ होता है। हमारी रचनाओं में भी सब कुछ जीवन से निःसृत और उसके बारे में हो, लेकिन वह उससे बड़ा क्यों न हो इसका कोई कारण मैं नहीं देखता। रचना का परपज़ मुझे सिर्फ़ यह नहीं लगता कि वह बुराइयों की सूची पेश करे, बदसूरती की झलक दिखाए। न सिर्फ़ यह कि वह जीवन के बारे में बताए, हमारी जानकारी में इज़ाफ़ा करे। रचनाएँ जो सिर्फ़ इतना ही करती हैं, समाजशास्त्र का हिस्सा होती हैं, साहित्य का नहीं। रचना के माने हैं—सपना, dream. अगर वह किसी बहुत बड़े स्वप्न का हिस्सा या झलक नहीं तो सिर्फ़ रचनाभास है।
कविता से प्रेम और कवियों से मित्रता यह आपके कहानीकार का स्वभाव है। इस पर कुछ बताएँ?
‘दिनमान’ का मुझ सरीखे तमाम लोगों के जीवन में एक बड़ा रोल रहा है। कहते हैं न कि रूस में और फिर सारी दुनिया में यथार्थपरक कहानी गोगोल के ‘ओवरकोट’ से बाहर आई है, वैसे ही हिंदी में पिछली शती के सातवें दशक के कितने ही कवि और लेखक और पत्रकार ‘दिनमान’ के पन्नों से निकले हैं। रघुवीर सहाय जितने बड़े कवि थे, उससे कम संपादक नहीं। हर अंक में ‘आज की कविता’ नाम का पन्ना होता था—दुनिया की तमाम भाषाओं में लिखी जा रही कविता की एक खिड़की। वहीं से जाने पिछली शताब्दी के महान कवियों के नाम। बाद में तलाश करके पढ़ा। शायद ही कोई कवि छूटा हो, ज़्यादा या कम सभी को पढ़ा है। कवियों के गद्य में, काव्येतर चीज़ों में मेरी बहुत दिलचस्पी रही है। पिछली शती की जो श्रेष्ठतम विश्व कविता है, वह हिंदी और उर्दू कविताओं के साथ मेरी चेतना का हिस्सा है। लोर्का, नेरूदा, मयाकोवस्की, ब्रेख्त, नाज़िम हिकमत, अर्नेस्तो कार्देनाल, मिलकोश राद्नोती… कितने नाम लूँ। वास्को पोपा, मिरोस्लाव होलुब, शिम्बोर्स्का, अख्मातोवा, एमिली डिकिंसन, जोजेफ ब्राडस्की, बोरिस पास्तरनाक। शमशेर जी के शब्दों में कहूँ तो—‘दिल के जगमग पावर हाउस के ऑपरेटर्स…’ अभी भी यह जारी है, कविता कहीं खत्म थोड़े ही होती है। पिछले दिनों अख्मातोवा पर मयाकोवस्की की एक कविता जो हिंदी में अनूदित नहीं है, पढ़कर मैं हैरत में पड़ गया—मयाकोवस्की की महानता और विशालता का एक नया आयाम। जानते ही हो, वह रूसी क्रांति की ओजस्वी आवाज़ थे और अख्मातोवा… लेकिन यह चर्चा तुम्हारे सवाल से दूर ले जाएगी।
कवियों से मित्रता… इसमें संयोग और इस बैकग्राउंड दोनों का हाथ रहा होगा। एक शख़्स जो ख़ुद कविता नहीं लिखता, लेकिन उस पर थोड़ी-बहुत बात कर सकता और कविताएँ कोट कर सकता है, उन्हें अपने क़रीब लगता होगा। हाँ, तमाम कवि मित्र हैं… हमारे वक़्त के सर्वश्रेष्ठ कवि। मेरी काफ़ी एजुकेशन उन्हीं के संग, उन्हीं की सोहबत में हुई है। लेकिन वही नहीं, बहुत सारे कहानीकार भी हैं… मगर उनसे मित्रता की वजह उनका कवि या कहानीकार होना नहीं है। असली चीज़ यह है कि वे शानदार लोग हैं। एक लेखक होने के, हिंदी लेखक… यही थोड़े-बहुत इनामात हैं। आप बहुत सारे शानदार लोगों के संपर्क में आते हैं, हरदम बहुत से अदृश्य दोस्तों की संगत में रहते हैं।
एक कम्युनिस्ट होने के लिए ईश्वर पर अविश्वास ज़रूरी क्यों है?
यह कैसा सवाल है। तत्वमीमांसा कोई लेखक का फील्ड थोड़े ही है। अगर वह इस पचड़े में पड़ने लगे तो यह उसके लिए घातक, एक हादसा भी हो सकता है। मगर तुम्हारे सवाल में ‘कम्युनिस्ट’ के मायने क्या हैं? क्या वह शख़्स कम्युनिस्ट होता है जो मार्क्स की किताबों से स्मृति के सहारे कोट कर सकता है? जीवन और व्यवहार में, आचरण में उसकी कोई कसौटी होती है या नहीं? अश्लील तनख़्वाहें लेते हैं, मगर किसी ग़रीब विद्यार्थी की शिक्षा का भार लेना, कभी उन्हें सपने में भी इसका ख़्याल नहीं आता। वे तो अख़बार भी पड़ोसी या सहयात्री का पढ़ना चाहते हैं। अपना मुसला हुआ अख़बार फोल्ड करके घर ले आते हैं कि कोई ग़रीब उस पर रोटी रखकर न खा ले। बुर्जुआ से नाभिनालबद्ध हैं। आपके और उसके जीवन में रत्ती भर फ़र्क़ नहीं। क्रांति के लिए अग्रिम दस्तख़त दे चुकने के बाद अब जीवन में जातिवादी फ़ैसले करने, पूरे लेन-देन के साथ शादियाँ करने, नवरात्र के व्रत रखने के लिए स्वतंत्र हैं। आपसी बातचीत में क्षेत्रीयता, प्रांतीयता, मुस्लिम द्वेष, दलित द्वेष, दिल्ली के ऑटो चालकों के प्रति द्वेष, सब कुछ टप-टप टपकता है। जातीय एकता दर्शाने को दक्षिणपंथी समजाति किताब का लोकार्पण करने सहर्ष जाते हैं। अपने हिस्से से ज़्यादा हड़पने को हमेशा तत्पर, जीवन में कुछ त्यागना नहीं, छोड़ना नहीं, कुछ नुक़सान न उठाना, किसी से कुछ शेयर न करना। यह कितना घृणास्पद है, छोड़ो यार। हमारी हिंदी में हर शख़्स कितनी आसानी से कम्युनिस्ट या वामपंथी कहलाने का दावा कर लेता है। यहाँ तो ‘शोले’ और ‘दीवार’ और ‘ज़ंजीर’ जैसी व्यक्तिगत बदले की हिंसा से भरी फ़िल्में, ऐसी फ़िल्में जिन्हें बनाना और दिखाना किसी समाजवादी देश में निषिद्ध होगा, लिखने वाले भी अपने को कम्युनिस्ट कहलाते और मनवाते हैं। ‘एक के बाद ख़ुदा एक चला आता था…’ कैफ़ी आज़मी की एक नज़्म में है यह लाइन। यहाँ ख़ुदाओं की भरमार है। न एक राइटर की और न एक लेफ्टिस्ट की मेरी परिभाषा इतनी आसान है। सारे भोग-विलास चाहिए, और अनैतिक पैसे से भी परहेज़ नहीं मगर राइटर कहलाएँगे और उसके ऊपर वामपंथी। जैसे मानवता का चिराग़ उन्हीं से प्रकाशमान है।
सॉरी यार, शायद मैं कुछ ज्यादा कटु हो गया। एक सही कम्युनिस्ट हो पाना, भीतर तक, अंतर्तम तक… वह मनुष्यता का शिखर छू लेना होगा, ऐसा मेरा मानना है। इसका निर्णय किसी की उद्घोषणा से नहीं हो सकता। असगर वजाहत की एक कहानी ‘होज वाज पापा’ पढ़ लें, वह इसी बारे में है। जब तक सोवियत संघ का वजूद था, वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टी के लाखों सदस्य थे। उन्हीं में लेखक संघों के पदाधिकारी भी होंगे, लेखकों को उनका ‘दायित्व’ और ‘कार्यभार’ बताते हुए। बदले निज़ाम में वे ही कंपनियों के, कॉरपोरेट्स के, बिजनेस हाउसेज के मालिक हैं। यदि फिर निज़ाम बदल जाए तो वे फिर पोलित ब्यूरो में नज़र आएँगे। कुछ लोग हमेशा सिर्फ़ सत्ता के साथ होते हैं, किसी विचार के नहीं। ऐसे लोगों के बारे में दोस्तोयेव्स्की बताते हैं अपने उपन्यास ‘द इंसल्टेड एंड ह्यूमिलियेटिड’ (‘अपमानित और अवमानित’) में कि वे हाड़-मांस से नहीं, ‘कार्क’ से निर्मित होते हैं। कैसे भी तूफ़ान आएँ, सभ्यताएँ उलट-पुलट हों, उनकी कार्क-काया हमेशा ऊपर ही रहती है।
ऐसा नहीं कि सही वामपंथियों का एकदम अकाल है। वे भी यहीं हैं, हमारे आस-पास, अपना काम करते हुए, चमक-दमक और रोशनियों और ‘फेसबुक’ से दूर। अपने एकांत में या अपने संघर्षों में वे अपनी प्रतिबद्धता और समझ की लौ को बुझने नहीं दे रहे होंगे। लेकिन वे बहुत कम तो हैं ही। पता नहीं किसने कहा था यह, बहुत पहले, कि किसी कम्युनिस्ट को देखता हूँ तो लगता है, वह हमारा भविष्य चला आ रहा है हमसे हाथ मिलाने। वे बातें कहाँ चली गईं। कभी आपने जीती थी एक दुनिया, मगर फिर गँवा दी। और अभी भी आप आत्मविश्लेषण नहीं करते। अपने आपसे कोई सवाल नहीं करते।
तुम्हारे सवाल का एक अधूरा, अस्फुट, आरज़ी जवाब देने की कोशिश कर सकता हूँ। मार्क्सिज्म एक भौतिकवादी दर्शन है। जीवन में, नेचर में और हिस्ट्री में जो कुछ घटता है, उसकी व्याख्या वह भौतिक आर्थिक कारणों से करता है, बिना किसी आधिभौतिक सत्ता को बीच में लाए। लेकिन सिर्फ़ इतना कहना, यह तो इतनी सतही, भोंडी बात है। पदार्थ और चेतना… वे गत्यात्मक और विकासमान हैं और उनमें पदार्थ ‘आद्य’ है, अंतिम रूप से निर्णायक—लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि चेतना का वजूद ही नहीं है या वह निष्क्रिय है। हमारे कुछ मित्र अतिरिक्त रूप से सजग रहते हैं कि उनके समाजार्थिक एनेलिसिस में कहीं भूल से भी ‘मन’ या ‘मनस’ या ‘चेतना’ का, मनुष्य के मनोवेगों का ज़िक्र न आ जाए। उन्हें लगता है कि ऐसा होने पर विश्लेषण व्यक्तिनिष्ठ हो जाएगा या कम वैज्ञानिक रह जाएगा। मन में जो इतनी विराट शक्तियाँ हैं, बहुत सारी डार्क फोर्सेज, अशुभ शक्तियाँ भी, उन्हें परे हटा देना, यह तो इंसानी वजूद का आधा ग़ायब कर देना है। इंसान के मनोवेग… करुणा, नफ़रत, न्याय चेतना—वे अपने आप में शक्तियाँ क्यों नहीं हैं, निश्चय ही अंतिम रूप से निर्णायक नहीं, फिर भी। और इश्क़ जिसमें पड़कर व्यक्ति क्या-क्या कर गुज़रता है, वर्गों, धर्मों और देशों के परे—क्या वह अपने में एक ताक़त नहीं है? ग्राम्शी ने कहा था कि ग्लानि एक क्रांतिकारी विचार है। उनका आशय ताक़त से ही होगा क्योंकि ग्लानि कोई विचार नहीं है। इसी तरह शोक भी एक ताक़त है या हो सकती है। जैसे जीवन में वैसे ही इतिहास में मनोगत कारण होते हैं और संयोग भी… बेशक आर्थिक शक्तियों के दायरे में और उनके अंतर्गत ही। कभी-कभी किन्हीं निर्णायक पलों में, चंद लम्हों में जैसे शताब्दियों की शक्तियाँ, इतिहास का सारा आवेश सिमट आता है। कोई एक ग़लत फ़ैसला, इंकार, विश्वासघात, कोई दुर्भाग्यपूर्ण देरी या जल्दीबाज़ी, बीमारी या अप्रत्याशित मौत बाजी पलट दे सकते हैं। स्टीफेन स्वाइग की किताब है ‘शूटिंग स्टार्स’—विश्व इतिहास के ऐसे बारह दृष्टांत, जिनमें शताब्दियों का संघर्ष पलों में सिमट आया है, उनका निपटारा जिस ख़ास तरीक़े से हुआ, उसके विपरीत तरह से होना भी उतना ही संभावित था। ऐतिहासिक भौतिकवाद में, इतिहास की गति के निश्चित नियमों में मेरा पूरा यक़ीन है। लेकिन वह न्यूटन की फिजिक्स या यूक्लिड की ज्यामिति जैसा ‘निश्चयवाद’ नहीं है। उसके मायने किन्हीं ऐतिहासिक ‘होनियों’ में धार्मिक क़िस्म का यक़ीन नहीं। यह मार्क्सवाद की स्पिरिट से बेमेल बल्कि उलट है—सब धर्मों को रिज़ेक्ट करने के बाद मार्क्सवाद को ही एक धर्म बना लेना और इतिहास को उसकी देवी।
फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’ की लाइनें हैं—‘लाज़िम है कि हम भी देखेंगे… जो लौह-ए-अजल पर लिखा है…’ मेरी विनम्र राय है कि किसी ‘लौह-ए-अजल’ या शाश्वत पटिया पर पहले से कुछ नहीं लिखा है। जो इंसान लिखेगा, उस पर वही लिखा जाएगा।
द्वितीय विश्वयुद्ध में सोवियत जनता के अविश्वसनीय त्याग और क़ुर्बानियाँ, 1941-42 में स्तालिनग्राद पर क़ब्ज़े के 200 दिन… एक-एक इंच ज़मीन के लिए नागरिकों, औरतों, सैनिकों, मज़दूरों, छात्रों, बच्चों का मर्मांतक संघर्ष। बमबारी में शहर तबाह हो चुका है… एक-एक कारख़ाना, स्कूल, अस्पताल, सड़कें, बिजलीघर, पानी की टंकियाँ। जर्मन सेना और सोवियत नागरिक इतने क़रीब हैं कि एक दूसरे की साँसों की आवाज़ सुन सकते हैं। ठंड के कारण ज़मीन इतनी सख़्त हो चुकी है कि शवों को दफ़नाने के लिए उसे खोदना भी आसान नहीं। जीरो से भी कम तापमान में एक-एक मकान, सड़क, चौक, जीने, चबूतरे के लिए जान की बाज़ी लगती है। आज तक का सबसे ख़ूनी युद्ध। उस शहर की जनसंख्या साढ़े आठ लाख से घटकर बस डेढ़ हजार रह जाती है, लेकिन कुछ भी हो, फ़ाशीवाद को शिकस्त दी जाती है। महाकाव्यीय हैं इस लड़ाई के ब्यौरे, हिस्ट्री में बिखरे हुए हैं। जानकार बताते हैं कि हिटलर एक वक़्त युद्ध में जीत जाने, सोवियत संघ को बूटों तले कुचल देने, प्रथम समाजवादी राज्य को ख़ून में डुबो देने की ख़तरनाक हद के क़रीब पहुँच गया था। ऐसा हुआ होता तो उसके बाद का वक़्त, राजनीति, हम सबका जीवन क्या हुए होते, इसकी कल्पना ही दिल दहला देती है। वह कोई और दुनिया होती, यह नहीं।
यह दुनिया अपने नियमों से चलती है, ईश्वर उसमें हस्तक्षेप नहीं करता। ईश्वर मनुष्य की रचना है न कि उसके उलट। यह चेतना हमारे भीतर ईश्वर से जुड़े कर्मकांड, नियतिवाद, कर्मफल, पुनर्जन्म, जन्नत, दोज़ख़ जैसी धारणाओं का ख़ात्मा करती है। इसके बाद विवेक और तर्क तले जीवन का पुनर्निर्माण शुरू होता है।
लेकिन इसके बाद भी थोड़ा-बहुत ईश्वर संस्कारों में बचा रह सकता है। वह तानाशाह जैसा पारंपरिक आसमानी ईश्वर नहीं जो विचार से परहेज़ करता, सिर्फ़ स्तुति या भक्ति चाहता है। शायद कोई दोस्त जैसा ईश्वर, जिससे हाथ मिला सकते हो। एक आधुनिक चेतना का ईश्वर से जो रिश्ता है या संभव है, उसे शायद तर्क की जगह कविता की भाषा में बेहतर तरह से कहा जा सकता है। शमशेर जी की यह लाइन उसे सर्वोत्तम तरीक़े से कहती है—‘ख़ुदा भी है मेरा ही इस्म, गो नहीं वह मैं…’
‘चाँद का मुँह टेढ़ा है’ की भूमिका में शमशेर बताते हैं कि मुक्तिबोध अंतिम पलों में, कोमा में राम राम, राधे कृष्ण… कह रहे थे। यांत्रिक मार्क्सवादी इसे शायद कुछ और मानें, मेरे लिए यह मानवीय मन की जटिलता का उदाहरण है जिसके बारे में आधुनिक मनोविज्ञान ने अभी जानना शुरू ही किया है। यह इंसान की सरलीकृत परिभाषाओं से आगाह करता है। किसी परिवार में मृत्यु के बाद परिजनों को सांत्वना के शब्द कहने के लिए ईश्वरीय शब्दावली मैंने भी अक्सर इस्तेमाल की है। यह कहते हुए मैं यह नहीं कह रहा कि मार्क्सिज्म ऐसे पलों में काम नहीं आता। मगर उसके लिए बहुत उन्नत चेतना चाहिए। ‘स्पार्टाकस’ और ‘माई ग्लोरियस ब्रदर्स’, ‘सिटिजन टॉम पेन’ जैसी महान किताबों के लेखक हावर्ड फास्ट किन्हीं मुश्किल घड़ियों में 2500 वर्ष पहले हमारे यहाँ हुए कपिलवस्तु के राजकुमार का स्मरण करते हैं, और ध्यान की जापानी पद्धति ‘ज़ेन’ के बारे में एक छोटी-सी किताब लिखते हैं। उन्होंने यहूदी जाति का इतिहास और पैगंबर मूसा की जीवनी भी लिखी। ऐसे ही सवालों के बारे में मुक्तिबोध का एक पत्र, वीरेंद्र कुमार जैन के नाम जो मुक्तिबोध रचनावली में शामिल नहीं है, महत्त्वपूर्ण है।
कथाकार मित्र अनिल यादव से, जो ‘विपश्यना’ के साधक हैं, इस बाबत मेरा वार्तालाप चला करता है। मेरे जीवन में भी मार्क्स और बुद्ध (और कबीर और औलिया) साथ-साथ हैं, न्यूनाधिक। मगर सबसे असहमत हो सकने, सवाल करने, आलोचना के अधिकार के साथ।
एक ख़ास तरह की रहस्य-भावना शायद मनुष्य स्वभाव की प्रकृति है। उतनी ही नेचुरल, जितना अन्याय के प्रति क्रोध। उसका ईश्वरीय या आध्यात्मिक होना आवश्यक नहीं। जेनेवा की CERN प्रयोगशाला में हुए प्रयोग के बारे में जो सबसे अच्छा लेख मेरी नज़रों से गुज़रा, उसमें परमाणु के भीतर के उप परमाणविक कणों का नृत्य लेखक को शिव के तांडव के सदृश जान पड़ता है। परमाणविक रचना उन्हें ‘नटराज’ की आकृति की याद दिलाती है। इसके लेखक हैं सीताराम येचुरी। आधुनिक खगोलशास्त्र हमें कायनात की रचना, असंख्य आकाशगंगाओं, समय और स्पेस में उसके विस्तार, कृष्ण विवर इत्यादि के बारे में जो बताता है, उसमें से रहस्य और विस्मय के एहसासों को जुदा करना मुझे भी मुश्किल लगता है।
नए लेखकों में क्या समस्याएँ नज़र आती हैं आपको? या प्रश्न यह भी हो सकता है कि आप हिंदी की अद्यतन युवा रचनाशीलता को कैसे देखते हैं?
नई पीढ़ी के लेखकों और कवियों की मेधा का मैं मुरीद हूँ। वे तो जन्म से ही कपास साथ लाते हैं। किसी भी विषय में उनसे बात करो, हर किताब उन्होंने पढ़ी होती है, हर फ़िल्म देखी होती है, हर नए विचार का उन्हें पता होता है। इक्कीसवीं सदी की अतिमेधावी युवा पीढ़ी… वे हरेक छद्म और दरार दूर से ही देख लेते हैं। और उनकी रचनाएँ… पहली दूसरी रचना में ही उनका विन्यास और नैरेशन इस क़दर निर्दोष होता है कि आश्चर्य होता है। मेरा संवाद उन्हीं से है और उनका इतना प्रेम मिला है कि क्या बताऊँ। प्रेम की बारिश… लगातार। हो सकता है कि मैं इसी वजह से उनका पक्षपाती हूँ। मगर जो भी है, मैं उन्हीं के संग हूँ, बल्कि अनुगामी। आलोकधन्वा अपनी एक कविता ‘युवा भारत का स्वागत’ में कहते हैं, ‘मुझे उनसे बार-बार घिर जाना राहत देता है…’ उन्हीं की एक पुरानी कविता ‘मैटिनी शो’ भी याद आ रही है, मोटर में तेल भरकर, चक्के बदलकर वे तैयार हैं। इलाके के युवा ‘रंगरूट’ प्रेमी जब भागना चाहें तो उनके लिए।
ऐसा नहीं कि उनसे कोई असंतोष या आलोचना के बिंदु नहीं। लेकिन उनसे जवाबतलबी का हक़ किसी को नहीं, न नीति-निर्देश देने का। उनसे सवाल वे करें जिन्होंने अपने जीवन में किसी उच्चतर नैतिकता का सबूत दिया हो। सवाल होने हैं तो पहले उन दिग्गजों, शीर्षस्थानीयों से हों, जो अब अपने ही क़दमों में गिरा धूल का ढेर नज़र आते हैं। जीवन भर जिस विचार से मान और आजीविका पाते रहे, बदली परिस्थितियों में जब वे उससे दग़ा करते हैं, क्या उन्हें एहसास है कि नई पीढ़ी किस तरह छला गया महसूस करती है। कमाल की है उनकी हाथ की सफ़ाई। ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ देखते ही देखते ‘गीता’ में बदल जाती है। उनसे यही कहने की इच्छा होती है कि वे जो चाहें करें, लेकिन युवा पीढ़ी को अपने से मुक्त रखें।
मैं फिर अतिरेकपूर्ण हो गया। इसे उन वरिष्ठों की अवमानना नहीं समझा जाना चाहिए, भूल से भी, जो आख़िर तक अविचलित और अटूट रहे। युवा लेखकों के बारे में इल्ज़ाम की तरह नहीं, सिर्फ़ ऑबजरवेशंस की तरह कुछ बातें… उनकी रचनाएँ कई बार अत्यधिक योजनाबद्ध लगती हैं। विन्यास और लहजा और तलफ़्फ़ुज़ सब दुरुस्त मगर ऐसी नहीं कि उन्हें पढ़कर लगे कि लेखक के अंदर कोई आग है, अन्याय के विरुद्ध कोई तड़प है। अगर कहीं वह नज़र आती भी है तो एक अदा या मैनरिज्म की तरह। व्यूह सरीखी (लेबिरिंथाइन) लंबी-लंबी रचनाएँ हैं और सुरंग सरीखी भी। रचनाएँ कई बार शोध-प्रबंध सरीखी लगती हैं, विदेशी लेखकों और दार्शनिकों के दहकते हुए आप्त वाक्यों से लदी-फँदी। वह विक्षुब्ध रचना जो अपनी सच्चाई से चकाचौंध कर दे, बक़ौल काफ्का, हमारे भीतर की उदासीनता को इस तरह तोड़ सके जैसे कुल्हाड़ी जल के ऊपर जमी बर्फ़, वह कहाँ है? उस रचना के आने का वक़्त यही है। उसे लिखने वाले भी कहीं अंतरिक्ष से नहीं आएँगे।
हमारा विकास एक अलग साहित्यिक परिवेश में, अलग तरह के साथियों और लेखकों के बीच हुआ था। पिछले दो तीन दशकों में जीवन-मूल्यों में बहुत बदलाव आए हैं। अब लेखक होने के मानी शायद वह नहीं जो प्रेमचंद, निराला, नागार्जुन, शमशेर के वक़्त में थे। क्षरण की एक प्रोसेस बहुत पहले शुरू हो गई थी। मुक्तिबोध की वह टिप्पणी याद करें जिसमें वह लिखते हैं कि आज के साहित्यकार का आयुष्य क्रम है—विद्यार्जन, डिग्री, कुछ साहित्यिक प्रयास, घर, सोफ़ासेट, अरिस्टोक्रेट लिविंग, श्रेष्ठ प्रकाशकों के द्वारा पुस्तकों का प्रकाशन, सरकारी पुरस्कार, चालीसवें वर्ष के आस-पास अमेरिका या रूस जाने की तैयारी, अनुवाद और ऊँची नौकरी। यह वर्ग क्या तो यथार्थवाद प्रस्तुत करेगा और क्या आदर्शवाद। वह इसके आगे विवेकानंद के हवाले से कहते हैं कि उच्चतर वर्ग नैतिक रूप से मृतक हो गए हैं। ये शब्द कड़वे हैं, लेकिन उनकी सच्चाई से कौन इंकार कर सकता है? वह प्रोसेस हमारे वक़्त में जैसे पूरी हो गई है। लेखक अब उसी उच्चतर वर्ग का हिस्सा हैं या उसमें प्रवेश के लिए लालायित। लेखन अब सिर्फ़ एक कॅरियर है। तमाम ऐसी रचनाएँ हैं जो यथास्थिति का उत्सव मनाती नज़र आती हैं। उनमें विचारधारा के परास्त होने का एक प्रच्छन्न उन्माद भी है। कलावाद को दुबारा जीवन मिल गया है। भाषाई खेल और कौतुक वाली रचनाएँ पहले गर्हित और निंदित होती थीं, अब वे समादृत नज़र आती हैं। सामाजिक सरोकार अवश्य विरल हुए हैं।
ये सिर्फ ऑबजरवेशंस हैं, सवाल नहीं। वह भी लिटरेचर के एक छोटे हिस्से के बारे में। यह समूचा दृश्य नहीं है। हमारे समय में ही जनजातियों से, दलितों से, हाशिए से आए लोगों का एक लोकतांत्रिक उभार संभव हुआ है। वह बहुत आशाजनक है। वे हर पुराने विचार की अपने नज़रिए से पुनर्परीक्षा कर रहे हैं। हर महान और केंद्रीय को प्रश्नांकित कर रहे हैं। वे पूर्व-व्याख्याओं और सुनिश्चित अर्थों को रद्द कर रहे हैं, और हर एक उपदेश या निर्देश की अवहेलना।
फ़ाशीवाद फैल रहा है। हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक जीवन में एक क्रूरता का घेरा है जो कसता जा रहा है। जिस विवेकवाद को एक लंबे ऐतिहासिक प्रक्रम में इतनी मुश्किल से पाया गया, उस पर तेज़ हमला है। तमिल लेखक पेरूमल मुरुगन के साथ जो कुछ हुआ वह एक बहुत स्तब्ध करने वाली घटना है। उसे एक अकेली घटना या अपवाद मानना आत्मघाती होगा। यह सिलसिला तेज़ होने वाला है। इस वक़्त केवल इज़हार की आज़ादी नहीं, सारा विवेकवाद, तर्कबुद्धि, सारी मानवीयता दाँव पर लगी है।
युवाओं को इन सवालों पर सोचना, अपने जवाब पाने हैं।
उनसे सिर्फ़ एक बात… आप अतिशय समय ‘फेसबुक’ पर ज़ाया करते हैं। वहाँ के झूठे लाइक्स और बेमतलब की वाहवाही आपको उस ज़रूरी आत्मसंघर्ष से दूर ले जाते हैं जिसका कोई विकल्प नहीं। आप त्वरित प्रतिक्रियाओं के आदी हो जाते हैं, वहीं से अनुमोदन और सत्यापन की उम्मीद करने लगते हैं। इसमें ऊर्जा का क्षरण होता है जिसे गंभीर काम में लगना था। मेरे ही कुछ मित्र हैं जिनका सारा सोच-विचार और सृजन अब ‘फेसबुक’ पर होता है। आधे घंटे के भीतर उन्हें 20 लाइक्स और 10 तारीफ़ें न मिलें तो वे बेचैन हो जाते हैं। मुझे मरीना स्वेतायेवा की एक कविता याद आती है। पता नहीं उन्हें वह कैसी लगेगी :
‘‘किताबों की दूकानों में, धूल में सनी, बिखरी हुई,
और कभी किसी के द्वारा न ख़रीदी गईं
फिर भी मूल्यवान मदिराओं की मानिंद,
मेरी कविताएँ
इंतज़ार कर सकती हैं
उनका वक़्त आएगा।’’
आप एक उपन्यास कब लिखेंगे?
उपन्यास विधा का कोई विकल्प नहीं। बहुत लंबी कहानियाँ भी नहीं। है मेरे मन में एक उपन्यास। वह जल्द ही आएगा। मैं उम्मीदवान हूँ।
आज के वक़्त में एक रचनाकार के लिए स्मृति का क्या अर्थ है?
स्मृति… इंसान के मायने ही हैं उसकी मेमोरी। स्मृति से ही उसके वजूद की निरंतरता बनती है। क्या तुम्हारे मायने पर्सनल स्मृतियों से हैं, जीवन के दुखद प्रसंग, मुश्किल मौक़े, असफलताएँ, नाकाम प्रेम इत्यादि। उनका क्या किया जाए यह तो हर शख़्स को ख़ुद ही तय करना होता है। मगर शायद तुम्हारा सवाल सामूहिक स्मृतियों… जातीय, ऐतिहासिक स्मृति के बारे में है।
मिलान कुंदेरा नाम के बाज़ारू लेखक को मैं बिल्कुल पसंद नहीं करता। लेकिन इस बात से सहमत हूँ कि किसी भी अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष दरअसल विस्मरण के विरुद्ध संघर्ष होता है। उत्पीड़ितों के मन में अत्याचारों की स्मृति… हर सत्ता उनसे ख़ौफ़ खाती है। स्मृतियाँ मिटाने के तमाम उपक्रम जारी हैं। याद रखना एक लगातार चलने वाला आत्मसंघर्ष है। ‘अब तो भूलने की भी बड़ी क़ीमत मिलती है…’ यह बहुत सारगर्भित वाक्य है।
‘भूलना’ सत्ता के साथ होना नहीं तो उसके फंदे में फँसना ज़रूर है। राइटर की यह पहली ज़िम्मेदारी है —स्मृतियों को ज़िद की तरह पकड़े रहना, उनके ख़ाली स्थानों को भरना, याद दिलाते रहना… इस सजगता के साथ कि उसकी मौलिकता अप्रतिहत रहे। उसे वाक्य अपने ही लिखने होते हैं, मेमोरी में पड़े हुए वाक्य नहीं जो न जाने कितनी चेतनाओं से घिसटकर आते हैं। हाँ, इस सजगता के भी साथ कि नॉस्टेल्जिया की चपेट में न आएँ। याद रखने और अपने गोशे में एक कसक के साथ यादों के मंज़र देखने, इन दोनों में बहुत फ़र्क़ है।
मैं जिस इलाक़े में रहा हूँ, गंगा और यमुना के बीच का दोआब, वहाँ 1857 की कुछ बची-खुची स्मृतियाँ तो हैं, लेकिन विभाजन के समय की दरिंदगी, बंगाल के अकाल और ‘उलगुलान’ की नहीं। इस इलाक़े के लिए, यहाँ के बौद्धिकों के लिए भी, जो यहाँ नहीं हुआ वह जैसे हुआ ही नहीं। ऐसे में होलोकास्ट और स्तालिनग्राद की महान लड़ाई… उनकी तो बात करना गुनाह है। वे हँस देंगे बिना यह जाने कि उन लड़ाइयों का नतीजा कुछ और होता तो यह हँसना न उन्हें नसीब होता, न उनकी संततियों को।
दिल्ली में, जहाँ हिस्ट्री की इतनी तहें और पर्तें हैं, रज़िया सुल्तान, मोमिन, ज़ौक़ और रहीम और बेदिल के घर और मक़बरे कहाँ हैं, यह लेखकों में भी बहुत कम जानते हैं। इब्बार रब्बी को ज़रूर एक-एक गली, चबूतरे और खिड़की और झरोखे का इतिहास पता है। औलिया की दरगाह के अहाते में शाहजहाँ की बेटी जहाँआरा कहाँ सो रही है, यह उन्होंने ही मुझे बताया था। सलीमगढ़ के क़िले में भी रब्बी जी ही मुझे ले गए थे।
‘विचारधारा’ की ज़रूरत को आप बतौर एक लेखक कैसे देखते हैं?
विचारधारा से तुम्हारी मुराद मार्क्सवाद से ही है न। शमशेर जी ने कहा था कि मार्क्सवाद ऑक्सीजन जितना ज़रूरी है। यह सिर्फ़ एक आकर्षक जुमला नहीं है। 1991-92 में जब साम्यवादी सत्ताओं का पतन हुआ तो साम्राज्यवादी शिविर में कैसा उन्मादी शोर था। गहरी तसल्ली कि शताब्दियों के वैचारिक संघर्ष का अंतिम रूप से निपटारा हुआ, उनके पक्ष में। अंत अंत अंत की उद्घोषणाएँ।
समाजवाद का, विचारों का, सपनों का, लेखक का, सबका अंत। लेकिन एक छोटे से शिथिल वक़्फ़े के बाद मार्क्सवाद नए सिरे से प्रासंगिक होने लगा, पहले से भी ज़्यादा जीवंत। मार्क्स की और मार्क्सवाद विषयक किताबों के पाठक, पूरी दुनिया में, बढ़ते ही जा रहे हैं। इसके बारे में मुझे अब महसूस होता है कि सोवियत संघ और पूर्व यूरोपीय सत्ताओं के पतन ने मार्क्सवाद को भी एक प्रकार से मुक्त किया। वहाँ वह सत्ता के क़ब्ज़े में था, चीज़ों को विश्लेषित करने की पद्धति नहीं, एक पूजा की चीज़, रस्मों और नारों में सीमित। उसकी तयशुदा पूर्वनिश्चित व्याख्याएँ थीं। उत्तर पुस्तिकाओं में मार्क्स के कौन से कोटेशंस दिए जाएँगे, यह भी नियत था। मार्क्सवाद का केंद्रीय तत्व है—आलोचना और आत्मालोचना, सवाल करना और संदेह करना, लेकिन संदेह पर भी संदेह करना। वह सवाल करने से ही वजूद में आया और उसने सही सवाल करना सिखाया। जब आप सवाल, असहमति, आलोचना को असंभव बना देते हैं तो आपके पास जो बाक़ी बच रहता है, वह कुछ और होता है, मार्क्सवाद नहीं। किसी एक शब्द, वाक्य, मामूली से कथन, जो शासकीय नज़रिए से मेल न खाए, के लिए कवि या लेखक को कारावास या मृत्युदंड दे दिया जाए, उसकी अभिव्यक्ति के रास्ते बंद कर दिए जाएँ, यह मार्क्सवाद का विद्रूप ही नहीं, उसका भयानक अपमान था। अख्मातोवा, पास्तरनाक, ब्राडस्की, स्वेतायेवा जैसे कवियों के साथ सोवियत सत्ता ने जो किया उस पर गर्वित होना संभव नहीं है। वे सब ऐसे कवि थे जिन पर कोई भी भाषा गर्व करती, लेकिन वे निकृष्ट कवि होते तो भी यह शर्मनाक होता। किसी समाज की हालत जाँचने का एक पैमाना वहाँ स्त्रियों की हालत है, ऐसा कहा जाता है। इसकी सच्चाई से किसे इंकार हो सकता है। लेकिन वह केवल एक पैरामीटर है। उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि वे समाज और राज्य अपने लेखकों और कवियों से कैसा सुलूक करते हैं। इज़हार की आज़ादी के सवाल पर कोई समझौता नहीं हो सकता, न सौदेबाज़ी। पेरूमल मुरुगन, वेंडी डोनिगर, ए. के. रामानुजन, राजकुमार हिरानी और पास्तरनाक, अख्मातोवा, ब्राडस्की… सबकी आज़ादियाँ, और मेरी अपनी भी, उनसे असहमत होने, कटु आलोचना करने की, अविभाज्य हैं। ‘मैं मुरुगन हूँ’ कहना बेमानी है, अगर उसी साँस में यह न कहा जाए कि वह अख्मातोवा भी है।
यह कैसे हुआ कि सर्वाधिक उन्नत और वैज्ञानिक विचारधारा के बावजूद वहाँ की समस्याएँ मुँह बाए खड़ी रहीं। आइंस्टाइन ने 1949 में समाजवाद की अनिवार्यता के बारे में अपने प्रसिद्ध निबंध में उससे प्रतिश्रुति प्रकट की थी। साथ ही कुछ आशंकाएँ भी व्यक्त की थीं। वे सब वहाँ मौजूद थीं। सत्ता का अत्यधिक केंद्रीकरण, एक विकराल नौकरशाही, नागरिक आज़ादियों का अभाव। मार्क्सवाद में ही उनका समाधान था, हो सकता था, मगर उस मृत मार्क्सवाद में नहीं।
1991-92 में समाजवाद के पराभव के बाद पूँजीवाद अपनी कल्याणकारी केंचुल उतारने लगा। वह अपने निर्दय, आदिम रूप की ओर लौटने लगा। वह वैसे ही व्यवहार करने लगा जैसे मार्क्स के विश्लेषण में था। उसे समझने के लिए फिर वही अचूक विचार काम आया। मार्क्सवाद के बिना विश्व राजनीति, अंतरराष्ट्रीय अर्थतंत्र और देशों का व्यवहार, साम्राज्यवादी कुचक्र कुछ समझ न आते। एक एकध्रुवीय विश्व-व्यवस्था में हमें देखने पड़ रहे हैं—शक्ति का स्वैराचार, वैश्विक वित्तीय संस्थानों के मैनेजरों के पास विकराल ताक़त का जमाव, उपभोक्तावाद और बाज़ार की संस्कृति का फैलाव। साथ ही रोज़गार के साधनों का छिनते जाना, लाखों किसानों की आत्महत्याएँ, लोगों की अपने घरों और ज़मीनों से बेदख़ली। मार्क्सवाद के बिना यह सब कुछ एक अराजक दृश्य होता जिसे मुर्दा आँखों से देखते रहना होता, बिना कुछ समझे।
आप बहुत कम लिखते हैं। प्रदीर्घ अंतरालों के बाद आपकी लंबी कहानियाँ शाया होती हैं और अब तक किताबें भी केवल दो। ऐसा क्यों?
इसे लेकर कोई गौरव का भाव नहीं है मेरे भीतर, बल्कि शर्म ही है। लिखना एक कठोर अनुशासन का, बहुत परिश्रम का काम है, सिर्फ बौद्धिक नहीं, शारीरिक भी। उसे साध पाने में कमी रही होगी, और क्या। मैं कवियों की बात नहीं जानता, लेकिन गल्प लेखकों को कहाँ-कहाँ से वक़्त चुराना होता है, अपने भीतर एनर्जी की एक-एक बूँद बचानी होती है। सर्दियों की धूप में लेटना, दुपहर की नींदें, शराब की महफ़िलें, यारबाशी, व्यर्थ यहाँ-वहाँ आना-जाना ये अय्याशियाँ उसके डी.यू. और जे.एन.यू. के प्रोफ़ेसर दोस्तों के लिए हैं। उसके लिए वे वर्जित हैं। जीने में वक़्त बर्बाद करना उसके लिए वर्जित है। एक ही जीवन में जीना और लिखना, दोनों नहीं हो सकते। जब कोई कहानी मन में तैयार हो तो उन दिनों मित्रों से रूड भी होना होता है। पत्नी से लड़ाई करनी होती है। अहंमन्य या आत्मकेंद्रित समझे जाने का ख़तरा उठाना पड़ता है। शब्दों में कहीं थोड़ी-सी मानवीयता बचाने के लिए उसे असल जीवन में अमानवीय होना होता है।
क्या तुमने जैक लंडन की कहानी ‘मैक्सिकन’ पढ़ी है? एक अद्भुत, महान कहानी। उसमें एक दुबला-पतला, कुछ रहस्यमय युवक है, मैक्सिकी क्रांति का एक सिपाही। क्रांति के लिए धन की व्यवस्था करने वह सीमा से अमेरिका में अवैध रूप से घुसता है। वहाँ शिकागो की गलियों में मुक्केबाज़ी के शो होते हैं, पहले से तय। उसे पेशेवर गुंडे मुक्केबाज़ों से मुक़ाबला करना है। वहाँ हर मुक्का बिकाऊ है, हर पिटाई बिकी हुई है। हर हार या जीत का दाम तय है। खेल के नियम, रेफ़री, माहौल सब कुछ उसके ख़िलाफ़ है। वह कमज़ोर और कुपोषण का शिकार है। मगर उसके पास जो ताक़त है, उसकी वे पेशेवर गुंडे कल्पना भी नहीं कर सकते—एक विचार की और एक सपने की ताक़त।
उसे अपने भीतर ऊर्जा का एक-एक कतरा बचाना है। हिसाब लगाते हुए कि सासेज का एक बासी टुकड़ा कब खाएगा, वह कितनी देर के बाद उसे कितनी ऊर्जा देगा। उस वक़्त कौन-सा राउंड होगा, सामने के बॉक्सर की कितनी ताक़त ख़र्च हो चुकी होगी, कितनी बाक़ी होगी। निर्णायक पल आने तक उसे ऊर्जा का हर क़तरा, हर बूँद बचाते हुए केवल पिटना है, लहूलुहान हो जाना है। वह जब चाहे अपनी पिटाई के दाम वसूलकर मुक़ाबले के बाहर हो सकता है। लेकिन उसे इनाम की सारी रकम चाहिए, या कुछ भी नहीं। वह आख़िरी क्षण में वार करेगा अपनी सारी ऊर्जा, सारी ताक़त समेटकर, बेहोश होने के एक पल पहले। या तो ख़त्म हो जाएगा या सारा इनाम पाएगा।
कहानी लिखना ऐसा ही है।
फिर भी यार, दस्ताने टाँगने में अभी देर है।
हिंदी में आलोचक नाम के प्राणी को आप कैसे देखते हैं?
आलोचक? रिल्के ने तो एक युवा कवि को लिखे पत्र में कहा था कि आलोचना हमेशा रचना का एक कुपाठ होती है, कम या ज़्यादा। वह रचना को छूने की भी हैसियत नहीं रखती। यह एक अतिवादी बात है, बेशक। लेकिन मुझे यह रहस्यपूर्ण लगता है, हमेशा से, कि कोई इस कर्म में क्यों प्रवृत्त होता है। अन्य लेखकों की रचनाओं के गुण-दोषों का आकलन करने की जगह अमूल्य समय और एनर्जी ख़ुद वैसा रचने में क्यों नहीं लगाता। यदि वह उसके बस का नहीं तो क्या उसकी आलोचना इसी से ख़ारिज नहीं हो जाती? इस तरह क्या आलोचना अपने में एक self defeating कर्म नहीं है? 🙂
आलोचना करने का अधिकार केवल उसे है जो रचना से इश्क़ करता है। जो पहले एक दीवाना पाठक होता है। मैंने एक अविस्मरणीय क्षण में जो हमेशा मेरे साथ रहेगा, विश्वनाथ (त्रिपाठी) जी को ‘त्यागपत्र’ की मृणाल को किसी निजी प्रसंग में याद करते, आँसू रोकते हुए देखा है। आलोचकों के बीच वह एक दुर्लभ अपवाद हैं, शायद इसलिए कि वह केवल आलोचक नहीं। जो दीवाना पाठक नहीं, वह सिर्फ़ रचना की राजनीति करने के लिए या किन्हीं अन्य फ़ायदों के लिए आलोचना में उतरता है। हमारी भाषा में आलोचना में जो सर्वश्रेष्ठ है वह रचनाकारों का है, विशुद्ध आलोचकों का नहीं। जैसे ‘कामायनी’ पर मुक्तिबोध की आलोचना और अपने साथी रचनाकारों पर शमशेर के लेख। वे काव्य-मर्मज्ञता के अतिरिक्त उदारता, सहानुभूति और संवेदनशीलता की भी अनूठी मिसाल हैं। एक विशाल हृदय से उत्प्लावित बेजोड़ गद्य, एक साथ आलोचना और आत्मालोचना, एक साथ अन्य को और अपने को संबोधित। जैसे वे औरों में अपने को खोजना चाहते हों। उसे बार-बार पढ़ने की इच्छा होती है। विशुद्ध आलोचक हमेशा दूसरों को संबोधित होता है, उन्हें कटघरे में खड़ा करने के लिए, लेकिन अपने आपको कभी नहीं। वह फ़ैसला सुनाता, श्रेणीकरण करता रहता है और रचना का मर्म उसकी उँगलियों से फिसल जाता है।
हिंदी में कविताओं की आलोचना अब हमेशा एक-सी रूढ़, उबाऊ, तकनीकी भाषा में लिखी जाने लगी है। अँग्रेज़ी में उसके लिए शब्द है—gobbledygook. लगता है जैसे एक आधार आलेख हो जो थोड़े बहुत हेर-फेर के साथ सभी कवियों पर लागू हो जाता है। कई बार वे रचना में उन मानियों की भी ईजाद कर लेते हैं जो वहाँ होते ही नहीं। रचना के मानियों को उजागर करने की जगह वे मनोवांछित मानी भरने लगते हैं। कई बार वे ऐसी जिंघासा या ख़ूँरेज़ी के साथ आक्रमण करते हैं कि विरोधी विचार को ही नहीं, विरोधी को भी नष्ट कर देंगे, अगर वह भूल से उनके दृष्टिपथ में आ जाए।
दिल्ली में आपने एक तवील वक़्त गुज़ारा है, ऐसा क्या है इस भारतीय राजधानी में जो आपको सबसे बेहतर लगता है?
हमारा परिवार उनमें से है जिन पर इतिहास जैसे टूटकर गिरा था। वह विभाजन के बाद अविभाजित भारत के उस पार के हिस्से से उजड़ कर आया था, पाकिस्तान के ‘डेरा इस्माइल खाँ’ इलाक़े से जो सिंधु नदी के किनारे है। अपनी जगह से बलात विस्थापन इंसान की चेतना में क्या तब्दीलियाँ ले आता है, इसकी कल्पना वे कभी नहीं कर सकते जो इस त्रासदी के शिकार नहीं हुए। आपके बहुत सारे सुकून हमेशा के लिए छिन जाते हैं। हमेशा एक अस्वस्ति एहसास बना रहता है।
पिता जी की और अपनी नौकरी के सिलसिले में बहुत से शहरों में रहना हुआ—काशीपुर, बरेली, देहरादून, ख़लीलाबाद, फ़ैज़ाबाद, मेरठ…। सब जगहों पर मेरे आत्मीय मित्र हैं और मुझे सब जगहों से इश्क़ है। फिर भी मैं त्रिलोचन की तरह गर्वीले भाव से यह नहीं कह सकता कि किस जनपद का हूँ। अन्य लेखकों के पास उनके पहाड़, छिंदवाड़ा, काफलपानी, पटना, इलाहाबाद और बेगूसराय हैं। उनके समतुल्य मेरे पास सिर्फ़ काशीपुर की (अब) उजाड़ रेलवे कॉलोनी है।
दिल्ली कोई एक शहर नहीं, इसमें तो तमाम शहर हैं। यहाँ औलिया की दरगाह है, रहीम का मक़बरा है, जहाँआरा, रज़िया सुलतान, इल्तुतमिश, अमीर खुसरो न जाने किन-किनकी हड्डियाँ हैं। यहाँ क़दम-क़दम पर इतिहास है, कहानियाँ हैं। चाँदनी चौक, निज़ामुद्दीन बस्ती और हौज़ख़ास, ये सब बहुत रोमांचक जगहें हैं। पुरानी दिल्ली की गलियाँ हैं जिनके बारे में लोग कहते हैं कि वे रोम और इस्तांबुल की गलियों सरीखी हैं। इसी को रब्बी जी के साथ बार-बार नापते रहना है।
आप आजीविका के लिए लेखन या किसी साहित्यिक गतिविधि या पढ़ने-पढ़ाने के कार्य से जुड़े हुए नहीं हैं। साहित्य से क़तई जुदा एक जॉब आप करते हैं। इससे आपके लेखक को क्या फ़ायदे-नुक़सान होते हैं और इस बहुत व्यस्त जॉब के बीच कैसे आप एक साध वाली अविस्मरणीय लंबी कहानियाँ संभव करते हैं?
नुक़सान तो हैं ही। लिखने-पढ़ने के लिए पर्याप्त वक़्त न मिल पाना। उसके लिए वक़्त चुराना एक लगातार चलने वाली लड़ाई बन जाता है। लेकिन इसके अपने लाभ भी हैं। आप साहित्य में बहुत कुछ अनावश्यक, निरर्थक पढ़ने से बच जाते हैं। इस तरह बचे समय का इस्तेमाल आप इतिहास, मनोविज्ञान, आधुनिक भौतिकी और खगोलशास्त्र की किताबें या जासूसी उपन्यास, रहस्य-रोमांच की पुस्तकें पढ़ने में कर सकते हैं। हमेशा बौद्धिकों के बीच न रहने का लाभ यह है कि आप झूठी तारीफ़ों और विद्वेषपूर्ण आलोचनाओं दोनों के ख़तरों से बरी रहते हैं।
सच्ची सराहनाएँ तो आपके पास पहुँच पाने का कोई रास्ता निकाल ही लेती हैं। यह याद रहता है कि साहित्य के बाहर भी एक विशाल दुनिया है। अहंकार का शमन होता है, आप साधारण रह पाते हैं। यह अपने में कोई साधारण बात नहीं। लिखने-पढ़ने की दुनिया में आने पर जिस ताज़गी और स्फूर्ति का एहसास होता है, वह शायद तब न होता जब लिखना नौकरी का ही एक विस्तार होता। लेकिन यह नुक़सान अपने में कम नहीं कि ऊर्जा का क्षरण अन्य कामों में हो जाता है। रोज रात्रि को आँखें मुँदने के क्षण में सोचता हूँ शायद कल चंद वाक्य लिख सकूँ। ‘गान विद द विंड’ फ़िल्म भी याद आती है, उसका अंतिम वाक्य, उसकी नायिका स्कारलेट ओ हारा का आख़िरी ख़्याल, ‘टुमारो इज एनदर डे…।’
कोई एक कवि? कोई एक किताब? और कोई एक फ़िल्म?
इस तरह तो मैंने कभी नहीं सोचा। किसी एक कवि या किताब या फ़िल्म से कैसे काम चल सकता है। एक किताब से काम उन धार्मिकों का ही चल सकता है जो पढ़ने की जगह उसे चूमते, आँखों से लगाते हैं। एक कवि से तुलसीभक्तों का चल सकता है, एक फ़िल्म से गाँधी जी का। उन्होंने जीवन में एक ही फ़िल्म देखी थी—‘रामराज्य’। एकाकीत्व अमानवीय है। जैसे इंसानों को अन्य इंसान चाहिए, वैसे ही कवियों को अन्य कवि, किताबों को अन्य किताबें, फ़िल्मों को अन्य फ़िल्में।
तुम अगर पूछो कि सभी देशों, कालों, संसार के सारे एपिक्स, लेखकों, पुराणों, महान उपन्यासों को शामिल करते हुए, सर्वश्रेष्ठ किताब कौन-सी है तो मैं कहूँगा—‘महाभारत’। मगर काफ़ी तो वह भी नहीं है, भले ही वह ऐसी किताब है जिसे पूरा पढ़ पाने के लिए एक उम्र नाकाफ़ी है। केवल वह किताब होती और दुनिया में और कोई किताब न होती तो जीवन कितना दूभर, कितना दरिद्र होता। ‘एलिस इन वंडरलैंड’ भी अपनी जगह बहुत ज़रूरी है और हैंस क्रिश्चियन एंडरसन की परी-कथाएँ भी। उनकी ‘राजा नंगा है’ कहानी क्या कोई मामूली कहानी है? वह कितनी जगहों पर बार-बार प्रकट होती है।
आप निर्मल वर्मा के क़रीब रहे। उनके द्वारा आपको लिखे बहुत आत्मीय पत्र ‘अकार’ के एक अंक में पढ़े गए हैं। उनसे अपने जुड़ाव के बारे में कुछ बताएँ।
निर्मल जी के संपर्क में आने, उन्हें जानने का मौक़ा तब मिला था, जब छात्र ही था। तब यह भी नहीं पता था कि साहित्य में उनका क़द क्या है। मैं बरेली कॉलेज, बरेली में पढ़ता था, साहित्य नहीं, साइंस। वे लिखने-पढ़ने और दुनिया देखने की शुरुआत के दिन थे। उनकी कहानियों का, भाषा का असर जादुई था। इतनी नाज़ुक भाषा कि जैसे एक सख़्त हाथ लग गया तो खँरोच लग जाएगी या ख़ून निकल आएगा। पत्रों के आदान-प्रदान के बाद बहुत सारी मुलाक़ातें हुईं। छुट्टियों में दिल्ली आने का एक बड़ा आकर्षण यह होता था कि उनसे मुलाक़ात होगी। मंडी हाउस और उसके आस-पास की सड़कें, आजकल वे कितनी जनाकीर्ण हैं, तब सुनसान हुआ करती थीं। गर्मियों की शामों को वहाँ टहलने, उनकी बातें सुनने या यूँ ही ख़ामोश चलने का सुख अद्भुत था। अधिकतर मुलाक़ातें तो उनके करोल बाग़ के घर की बरसाती में ही हुईं। वह धीमी आवाज़ में रुक-रुककर बोलते थे, हमेशा चिंतनरत रहते थे, बोलते हुए गुम हो जाते थे। अब याद करने पर मुझे लगता है कि संभवतः वह हर समय लिखते थे, उनके दिमाग़ में हर वक़्त वाक्य बनते थे। वह ‘पल दो पल के शाइर’ नहीं, हर वक़्त के लेखक थे। हमारी बातचीत के बीच में लंबी चुप्पियाँ आती थीं। लेकिन संवाद उस ख़ामोशी में भी जारी रहता था।
उनका जीवन बहुत सादा था। लेखकों के पास गाड़ियाँ आज जितनी तो नहीं, लेकिन उस वक़्त भी दुर्लभ नहीं थीं। वह बसों की भीड़ में ठुँस कर मज़े से आते-जाते थे। उनकी आय अनिश्चित ही होगी, लेकिन कभी उन्होंने मुझे एक रुपए भी ख़र्च नहीं करने दिया। कितनी बार ऑटो में साथ आना-जाना हुआ, रेस्त्राँओं में बैठे, कुछ नाटक साथ-साथ देखे। साथ पीने के कुछ मौक़े भी आए। कहीं भी नहीं। वे मेरी बेरोज़गारी के दिन थे। अनिश्चित भविष्य की चिंताओं में वह मेरे साथ थे। बाद में वैचारिक दूरियाँ आईं। तकलीफ़ के मौक़े आए, ख़ामोशी के अंतराल भी। फिर भी इन बातों को भुलाना संभव नहीं। ये छोटी, क्षुद्र, मामूली लग सकती हैं, लेकिन जीवन में छोटी बातें ही बड़ी होती हैं।
मैं अपनी लिखी चीज़ें उन्हें दिखाता था। वह ध्यान से पढ़ते, फिर बेमुरव्वती से ख़ारिज कर देते थे। यह ज़रूर ध्यान रखते हुए कि मेरा दिल न दुखे। मगर फिर भी मेरे प्रति वह स्नेहिल थे। यहाँ मैं रेखांकित करना चाहता हूँ कि वह मुझे अपने जैसे लेखन और लेखकों से दूर धकेलते थे। एक ख़ास तरह का आत्मपरक लेखन, अपने में गुम। मैं इसके लिए उनका आज भी शुक्रगुज़ार हूँ। मैंने औरों से सुना है कि वह पीने के बाद बहुत निर्मम और क्रूर हो सकते थे। ज़रूर ऐसा होगा। लेकिन मैं एक क्षण के लिए भी यक़ीन नहीं कर सकता कि वह कभी फूहड़ या भदेस हुए हों। उनकी अपनी एक ऊँचाई थी।
बाबरी मस्जिद का ध्वंस हुआ तो ‘डेढ़ इंच ऊपर’ के लेखक से, जिन्होंने ‘चुनी हुई चुप्पियों’ पर भी एक तीखा, सारगर्भित आलेख लिखा था, एक स्पष्ट भर्त्सना का इंतज़ार ही करता रहा। कोई बात या बयान या महज़ एक शब्द। उन मुश्किल घड़ियों में उन्होंने भी अपने लिए एक चुप्पी ही चुनी।
अब तक जिए गए जीवन में कोई अफ़सोस?
अफ़सोस और असंतोष… वे बहुत सारे हैं। उनके बिना क्या कोई ज़िंदगी पूरी होती है? वे तो बढ़ते ही जाते हैं। सबसे पहला, सबसे बड़ा तो यही है, उतना काम न कर पाना जिसका वादा अपने आपसे किया था। इसके बाद… उर्दू अदब के संपर्क में बाद में आना। कोशिश करके भी उर्दू लिपि न सीख पाना। प्राचीन संस्कृत साहित्य, संस्कृत के आचार्यों के चिंतन और उर्दू अदब के ख़ज़ाने जो हिंदी में उपलब्ध नहीं… से महरूम रहना। पठन-पाठन हिंदी और अँग्रेज़ी तक सीमित रहा, लेकिन उसमें भी बहुत कुछ छूटा हुआ है।
मुक्तिबोध और रेणु मेरे होश सँभालने से पहले दिवंगत हो गए थे। लेकिन शमशेर, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, शिवदान सिंह चौहान और हजारीप्रसाद द्विवेदी से भी मिल पाने का कोई अवसर नहीं आया। अज्ञेय जी से तो मिलने की हिम्मत ही कौन कर सकता था। 2013 में इलाहाबाद जाकर भी अमरकांत जी से न मिल पाना, यह भी एक बड़ा अफ़सोस है। उसके कुछ ही समय के बाद उनका देहांत हो गया।
रेणु जी की दोनों पत्नियों से मिल पाने की, उन्हें देख पाने की एक भावुक-सी तमन्ना पूरी न हो पाने का भी अफ़सोस है—हृषिकेश सुलभ से एकाधिक बार तय होने के बावजूद।
यह तो सब जानते हैं कि जगत में, जीवन में सब कुछ परिवर्तनशील है। लेकिन सब कुछ प्रत्यावर्तनीय भी है, यह उस तरह सर्वमान्य नहीं। ज्ञानी कहते हैं कि सब कुछ अपने स्रोत की ओर, मूल की ओर आकर्षित होता है। हर चीज़ अपने घर वापस जाना चाहती है। शायद यह कोई सांइटिफिक सच नहीं है, लेकिन मेरे साथ ऐसा होता है। हर चीज़, कृत्य, लफ़्ज़ लौटकर आता है। अनजाने में भी किसी से कोई कठोर, अप्रिय शब्द कहूँ तो वह बार-बार लौटता रहता है। वे एक ही बार हर्ट हुए होंगे, उनसे कई गुना मैं ख़ुद होता हूँ, बार-बार, बरसों। उदय प्रकाश जी और अपने मित्र महेंद्र मिश्र, जो अब न जाने कहाँ खो गया है, और एक अन्य मित्र जिसका उपनाम ही मुझे याद रह गया है, मिनोचा, से कभी कहे ऐसे कुछ शब्द हैं। शायद अपने मित्र विजय गौड़ से भी, अनजाने में।
कवि वेणु गोपाल से अनायास एक छोटी-सी मुलाक़ात एक लिफ्ट में हुई थी। वह व्हील चेयर पर थे। मेरे साथ जो मित्र थे, वह उनके भी परिचित थे। मेरा नाम सुन कर वह मेरी एक कहानी की इतनी तारीफ़ करते रहे। मैं उनकी व्हील चेयर देखता रहा। मुझे उनकी विकलांगता का पता नहीं था। मैं इस क़दर आघात में, स्तब्ध था कि एक लफ़्ज़ भी नहीं कह सका, न नमस्कार, न शुक्रिया, और मुलाक़ात ख़त्म हो गई।
‘संगमन’ के एक कार्यक्रम में युवा लेखक वरुण ग्रोवर की एक कहानी की आलोचना काफ़ी तीखे शब्दों में की थी। पता नहीं कैसे, मुझे याद ही नहीं रहा कि वह युवा था, उसने लिखने की शुरुआत ही की थी। अब याद करने पर लगता है कि एक मासूम हृदय दुखाकर कौन-से साहित्यिक मूल्यों को बचाना चाहता था। पिछले दिनों फिल्म ‘आँखों देखी’ के क्रेडिट्स में उसका नाम देखकर मुझे सुकून हुआ। I am very very sorry, Varun, if you happen to read this. Please pardon me.
उदय प्रकाश की एक छोटी-सी कहानी है जो मुझे बहुत प्रिय है। शायद वह उनके बचपन की कोई सच्ची घटना है, लेकिन वह मुझे अपने ही बारे में लगती है। उस कहानी में वह कोई ग़लती करते हैं जिसका इल्ज़ाम विकलांग बड़े भाई पर डाल देते हैं। बड़े भाई की जमकर पिटाई होती है। बहुत बरसों के बाद, बड़े होने पर, ग्लानि का बोझ असहनीय होने पर वह यह घटना याद दिलाकर उनसे माफ़ी माँगना चाहते हैं। भाई को लेकिन कुछ भी याद नहीं। यह सब तू अपने मन से गढ़ रहा है, वह कहते हैं। इसलिए माफ़ी का प्रश्न ही कहाँ पैदा होता है? कहानी का अंतिम वाक्य है, मैं इस अपराध से कैसे मुक्ति पा सकता हूँ।
मैंने बचपन में शकील के नौ अंक काट लिए थे। दर्ज़ा आठ में कामचोर अध्यापक ने चार-पाँच मेधावी माने जाने वाले छात्रों को छमाही इम्तिहान की गणित की कॉपियाँ जाँचने को दे दीं। मेरे दोस्त शकील की कॉपी मेरे पास आई। मेरे अपने अंक 90 आए थे और उसके 98 आ रहे थे। मैंने बेईमानी की, उसके नौ अंक काट लिए। यह जानकारी शकील को हो गई और उसने धमकी दी कि वह पूरे स्कूल के सामने मेरा यह कृत्य उजागर कर मुझे कलंकित करेगा। सार्वजनिक अपमान से बचने के लिए मैंने उसकी कॉपी टुकड़े-टुकड़े करके स्कूल के पीछे झाड़ियों में फेंक दी।
अब याद करता हूँ तो आश्चर्य होता है। बच्चे सिर्फ़ मासूम नहीं होते, वे बहुत क्रूर, हिंसक और अन्यायी भी हो सकते हैं। एकलव्य से द्रोणाचार्य ने जो सुलूक किया था उसके लिए चिरस्थायी नफ़रत रखने वाला, मैं, कैसे इस प्रसंग में एक साथ द्रोणाचार्य और अर्जुन दोनों हो गया। अब शकील मुझसे यही कहता है कि उसे कुछ भी याद नहीं, शायद मुझे शर्मिंदगी से बचाने के लिए। वह कहता है कि अपनी कल्पनाशक्ति को कहानियाँ लिखने में इस्तेमाल करो, उससे इतर नहीं। वह अब भी मेरा दोस्त है। काशीपुर में वह एक जिम चलाता है। ऐसा नहीं कि बचपन की यह बात याद कर ग्लानि से गलता रहता हूँ। लेकिन मुझे वह याद हमेशा रहती है।
एक रोते हुए फटेहाल ग्रामीण बूढ़े का चेहरा आँखों के सामने आता रहता है। देहरादून की कचहरी में किस काम से जाना हुआ था यह याद नहीं। एक वाहन उसके पैर की उँगलियाँ कुचलता चला गया था। वहाँ ख़ून भल-भल बह रहा था। तमाशबीनों की भीड़ में वह दर्द से दोहरा, मेरी ओर उम्मीद से देखता हुआ चीख़ रहा था कि वह ऋषिकेश से आया है, कोई उसे वहाँ पहुँचा दे। उसे कुछ रुपए देकर और ऋषिकेश जाने वाली बस में बिठाकर मैंने कर्तव्य निभाने की तसल्ली हासिल कर ली। अपने को मानवीय और सेंसिटिव होने का तमगा अलग से दे दिया। लेकिन बाद में जब मैंने इस घटना को मन में दुहराया तो अपने आप पर हैरान रह गया। बस में बिठाने से पहले मैं उसे डॉक्टर के पास क्यों नहीं ले गया। उस वक़्त उसके पैर पर बैंडेज करवाना सबसे पहली ज़रूरत थी। क्यों नहीं सोचा कि टपकते ख़ून के संग वह भीड़ और धूल में कैसे और कब घर पहुँचेगा। इस चूक की ग्लानि गहरी है। फ्रायड को काफ़ी पढ़ चुकने के बाद अब यह भी जानता हूँ कि ऐसी कोई चूक बेसबब नहीं होती। वह बूढ़ा अब ज़िंदगी भर कहीं नहीं मिलेगा। उससे जो माफ़ी माँगनी है, वह मैं अपने दोस्तों और पाठकों से ही माँग सकता हूँ।
कोई ऐसी बात जो आप कहना चाहते हों, लेकिन जो मेरे सवालों के दायरे मैं न आ सकी हो। मसलन, हमेशा महसूस होने वाली कोई गुह्य बात, विचित्र अनुभव या उलझन या कुछ ऐसा जो अजीब लगता हो।
यह तो उससे मिलता-जुलता सवाल है जो ‘महाभारत’ में यक्ष ने युधिष्ठिर से किया था। सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है? इसके उत्तर में युधिष्ठिर ने जो कहा था, मुझे नहीं लगता कि उससे अलग या आगे कुछ कह पाना किसी के लिए भी संभव हो सकता है। मैं केवल उसी को आधुनिक शब्दावली में दुहरा सकता हूँ, आधुनिक खगोलशास्त्र का सहारा देकर।
हमारी कायनात का विस्तार है लगभग 93 बिलियन प्रकाश वर्ष और वह भी स्थिर नहीं। वह निरंतर प्रसारशील है। कायनात की परिधि पर इसके फैलने की रफ़्तार प्रकाश की रफ़्तार से भी अधिक है। कायनात की आयु 14 बिलियन वर्ष। हमारा सौरमंडल जिस आकाशगंगा में है, उसका व्यास है 1 लाख प्रकाशवर्ष। 100 से 120 बिलियन तक आकाशगंगाएँ हैं और हर आकाशगंगा में 100 से 120 बिलियन सूर्य। और यह सिर्फ़ एक कायनात, हमारी कायनात की बात है। वे कहते हैं कि गिनते जाओ मगर वे ख़त्म न हों, चाहे आपकी सख्याएँ ख़त्म हो जाएँ।
देखिए, आते हुए लिटरेचर के ‘विद्वान’ प्रोफ़ेसर साहिब। और वे लेखक जी, चेहरे पर चमक और पीठ पर पुरस्कारों की लदनी लिए। उनके संग जो हैं, वे हिंदी के इस्टबेलिसमेंट के सर्वेसर्वा हैं। पाँच सौ मीटर चलने में वे हाँफ जाते हैं। तीसरी मंज़िल तक जाने के लिए उन्हें लिफ्ट चाहिए। चश्मा उतार देने पर दुनिया उनके लिए कोहरे में डूब जाती है। जीवन का वक़्फ़ा इतना छोटा कि कुछ समझ पाने, जान सकने से पहले ही बीत जाए। क्या यह मुमकिन है कि दुनिया भर की जानकारियों से लदे-फँदे, वे इतना भी प्रारंभिक खगोलशास्त्र न जानते हों। फिर उनकी बॉडी लैंग्वेज ऐसी क्यों। यह व्यर्थ की अकड़ क्यों। आपकी विनम्रता कहाँ गई। उसे वे उन मौक़ों के लिए रिज़र्व रखते हैं, जब वे ताक़तवरों के सामने होंगे। बस यही अजीब लगता है।