यादों के कवि की याद में
विस्मरण या भूलना एक स्वाभाविक मानसिक क्रिया है। हमारे मष्तिष्क की कार्य-पद्धति ऐसी है कि वह पुरानी होती स्मृतियों को भुलाता जाता है, और इस प्रकार नई स्मृतियों के लिए स्थान बनाता जाता है। हालाँकि जिन स्मृतियों को मष्तिष्क भुला देता है, वे भी पूर्णतः नष्ट नहीं होतीं; बल्कि काफ़ी समय तक अवचेतन में विद्यमान रहती हैं। फिर अक्सर कुछ महत्त्वपूर्ण स्मृतियों को चाहे वे कितनी भी पुरानी पड़ जाए, मष्तिष्क याद रखता है, लेकिन अन्य स्मृतियों को भुलाता जाता है।
भुलाते जाने की यह प्रक्रिया मष्तिष्क में कितनी तेज़ी से घटित होगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जीवन में परिवर्तन की गति कितनी तेज़ है। अगर परिवर्तन की गति धीमी है, तो जीवन में एकरसता या एकरूपता बनी रहेगी। ऐसे में जब एक बात, एक व्यवहार आदि से बार-बार सामना होता रहेगा; तब उन्हें भूलने की गुंजाइश ही नहीं है। इसलिए हम देखते हैं कि पुराने समय में वाचिक परंपराओं के ज़रिए ही स्मृतियाँ सैकड़ों वर्षों तक पीढ़ी दर पीढ़ी स्थानांतरित होती रहती थीं, क्योंकि नए के निर्माण की, परिवर्तन की गति बहुत ही धीमी थी। लेकिन उस समय भी स्मृतियों को बचाए रखने के लिए और आगे की पीढ़ियों के लिए उन स्मृतियों को साहित्य के साँचे में ढाल दिया जाता था—मसलन, गीतों में या क़िस्से-कहानियों, लोक-कथाओं के रूप में। इस वजह से ही साहित्य में हज़ारों साल पुरानी स्मृतियाँ आज भी ज़िंदा हैं।
दूसरी तरफ़ अगर जीवन-जगत में परिवर्तन की गति बहुत तेज़ हो तो भूलने की गति भी बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए आधुनिक या कहें नए समय को देख सकते हैं। यहाँ अगर हम जन-स्मृति की बात करें तो स्थिति और गंभीर है। कहा जाता है कि public memory is very short. लेकिन परिवर्तनों की तीव्र गति ने इसे और छोटा बना दिया है। इसके साथ ही सामूहिक स्मृति के संदर्भ में तो कई बार सत्ता अपने फ़ायदे के लिए कुछ विशेष स्मृतियों को—जिनसे सत्ता की शक्ति, प्रभाव, विस्तार और निरंतरता को ख़तरा हो—सामूहिक मानस से मिटा देना चाहती है।
वस्तुतः सामूहिक विस्मरण सत्ता के लिए बहुत उपयोगी होता है। लगभग प्रत्येक समय की सत्ता चाहती है कि सामूहिक जनमानस बहुत कुछ भूल जाए। वह उन यादों को सामूहिक स्मृति से मिटा देने की इच्छा रखती है जो सत्ता के शोषण या आमनवीय व्यवहार या प्रकृति की अभिव्यक्ति से जुड़ी होती हैं या जो सत्ता के लिए चुनौती या संकट उत्पन्न कर सकती हैं। इसके विपरीत सत्ता अपने नैरंतर्य को बनाए रखने वाली यादों का सृजन और संरक्षण करती रहती है। वर्चस्व और शक्ति-संरचना के बने रहने के लिए यह ज़रूरी है कि वर्चस्व और शक्ति-संरचना की शोषणकारी यादों को जनता भूलती रहे।
जब-जब सत्ता ऐसा करने में सफल होती है, तब-तब समाज की भारी क्षति होती है। यहाँ कहना यह है कि निजी और सामूहिक जीवन में विस्मरण के कई ख़तरे हैं।
कहा जाता है कि हमारी स्मृति ही हमारी अस्मिता का आधार है। हम वही और उतना ही हैं, जो और जितना हमें याद है। इसका अर्थ हुआ कि हमारी अस्मिता/पहचान उतनी ही व्यापक और गहरी होगी, जितनी व्यापक और गहरी हमारी स्मृति होगी। आज ऐतिहासिकता के और वर्तमान के निरंतर बढ़ते दबावों के कारण हम पीछे का बहुत कुछ बहुत तेज़ी से भूलते जा रहे हैं। विस्मरण की यह प्रक्रिया अंततः हमारी पहचान और अस्मिता के संकुचन का कारण बन रही है।
मनुष्य की उत्तरोत्तर विकास-यात्रा ग़लतियों से सीखते रहने और आत्म-परिष्कार करते रहने की यात्रा रही है। विकास और उत्थान के लिए यह ज़रूरी है कि हम ग़लतियों से सीखें और उन्हें पुनः दुहराने से बचें। लेकिन यह तब ही मुमकिन है, जब हम ग़लतियों को याद रखेंगे।
विस्मरण के कारण एक और बड़ा ख़तरा उत्पन्न हो रहा है। वह है शब्दों के अर्थवृत्त या अर्थ के दायरे के संकुचित होते जाने का। शब्द मनुष्य की सबसे क़ीमती सामूहिक अमानत हैं। भाषा की शक्ति और सामर्थ्य शब्दों के अर्थवृत्त के विस्तार से ही उत्पन्न होती है। शब्दों के अर्थ भी सामूहिक स्मृति का एक रूप हैं। प्रत्येक शब्द के अर्थ की एक लंबी विकास यात्रा होती है। इसलिए यदि हमारी स्मृति का दायरा सिमट जाएगा तो हम न केवल कई शब्द खो देंगे, बल्कि धीरे-धीरे शब्दों के अर्थ के दायरे भी सिमटते जाएँगे। इसका परिणाम होगा कि हमारे पास जो भाषा बचेगी; उसकी शक्ति, सामर्थ्य, संभावनाओं और प्रभावकारिता में भारी कमी आ जाएगी। फलतः हम अभिव्यक्ति के संदर्भ में एक प्रकार की अपंगता का अनुभव करेंगे और एक सुदीर्घ व श्रमसाध्य विकास-यात्रा से शब्द व भाषा की समृद्धि के रूप में अर्जित उपलब्धियों से हाथ धो बैठेंगे। यह सामूहिक विडम्बना ही होगी।
साहित्य इन सब ख़तरों से भली-भांति परिचित है। चूँकि, साहित्य स्वयं स्मृति का भी व्यापार है, इसलिए वह स्मृति के महत्त्व को समझकर उसे बचाए रखने की प्रतिज्ञा लेकर चलता है। साहित्य यह प्रतिज्ञा लेकर चलता है कि वह हमें भूलने नहीं देगा। लेकिन सवाल है कि स्मृतियों को सहेजने का काम तो इतिहास भी करता है, तब ऐसे में साहित्य द्वारा स्मृतियों को सहेजे जाने की प्रक्रिया की क्या विशेषता होती है? साहित्य के मूलभूत स्वभाव और प्रकृति को समझने के लिए यह एक ज़रूरी और बुनियादी सवाल है। अपूर्वानंद अपने एक लेख में कहते हैं : “साहित्य या कविता जीवन को उसके ‘अनावश्यक’ ब्योरों में पहचानने का उपक्रम है। वह सूत्रीकरण के लोभ से संघर्ष है।” इस उद्धरण से हमें ऊपर के सवाल को समझने के संकेत मिलते हैं। इतिहास एक ख़ास दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण और ज़रूरी स्मृतियों को ही पहचानता, दर्ज करता और सहेजता है। अर्थात् इतिहास की दृष्टि जीवन को कुछ ख़ास, ज़रूरी और तथाकथित बड़े तथा आवश्यक ब्योरों में ही पहचानने का उपक्रम करती है। कहा जा सकता है कि जीवन को पहचानने का यह अधूरा और अपूर्ण तरीक़ा है।
दूसरी तरफ़ साहित्य जीवन को उसके अनावश्यक ब्योरों में पहचानने का उपक्रम है। लेकिन यहाँ विचारणीय है कि क्या ये अनावश्यक ब्योरे सच में अनावश्यक होते हैं? वस्तुतः जीवन में उपयोगितावादी मानसिकता प्रासंगिकता के साथ मिलकर हमारी दृष्टि को संकीर्ण करती रहती है। इस संकीर्ण दृष्टि से जो वस्तु, व्यक्ति, घटनाएँ आदि हमें आवश्यक लगती हैं, प्रायः उन्हीं पर हमारी नज़रें टिकी होती हैं और उन्हीं के ज़रिए हम जीवन को पहचानते और व्याख्यायित करते हुए जीवन की अर्थवत्ता की खोज करते हैं। लेकिन यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि साहित्य स्मृतियों को बचाने वाला अजायबघर या संग्रहालय नहीं है। वह स्मृतियों को जीवंत तरीक़े से यथार्थ की पूरी जटिलताओं और मानवीय स्पंदनों के साथ बचाए रखता है। वह स्मृतियों को बचाकर संवेदना की विकास-यात्रा का मार्ग प्रशस्त करता है।
यही वह व्यापक पृष्ठभूमि है जिसमें मंगलेश डबराल के काव्य-संसार के एक बड़े हिस्से को समझा-परखा जा सकता है। वह आज के समय में विस्मृति के बरअक्स स्मृति की स्थापना के पुनीत संकल्प का निर्वाह करने वाले हमारे प्रतिनिधि कवि हैं। उनकी कविताई का एक बड़ा हिस्सा कुछ ‘अनावश्यक’-से लगने वाले साधारण-सामान्य ब्योरों की स्मृतियों के सौंदर्य और आत्मीयता को मार्मिक अनुराग, संवेदनशीलता और कलात्मकता के साथ सहेजने से संबंधित है :
याद रखने पर हमला है और भूल जाने की छूट है
मैं अक्सर भूल जाता हूँ नाम
अक्सर भूल जाता हूँ चेहरे
एक आदमी मिलता है बिना चेहरे का एक नाम
एक स्त्री मिलती है बिना नाम का एक चेहरा
कोई पूछता है आपका नाम क्या है
उसे यक़ीन नहीं होता
जब मैं भूला हुआ कुछ याद करने की कोशिश करता हूँ
कुछ देर किसी के साथ बैठता हूँ
तो याद नहीं आता उसका नाम
जो कभी झंडे की तरह फहरता था उस पर
उसका चेहरा लगता है
जैसे किसी अनजान जगह की निशानदेही हो
यह भूलने का युग है जैसा कि कहा जाता है
नौजवान भूलते हैं अपने माताओं-पिताओं को
चले जाते हैं बड़ी-बड़ी गाड़ियों में बैठकर
याद रखते हैं सिर्फ़ वह पता वह नाम
जहाँ ज़्यादा तनख़्वाहें हैं
ज़्यादा कारें ज़्यादा जूते और ज़्यादा कपड़े हैं
बाज़ार कहता है याद मत करो
अपनी पिछली चीज़ों को पिछले घर को
पीछे मुड़ कर देखना भूल जाओ
जगह-जगह खोले जा रहे हैं नए दफ़्तर
याद रखने पर हमले की योजना बनाने के लिए
हमारे समय का एक दरिंदा कहता है—
मेरा दरिंदा होना भूल जाओ
भूल जाओ अपने सपने देखना
मैं देखता रहता हूँ सपने तुम्हारे लिए।
उनकी एक और कविता देखें :
रोज़ कुछ भूलता कुछ खोता रहता हूँ
चश्मा कहाँ रख दिया है
क़लम कहाँ खो गया है
अभी-अभी कहीं पर नीला रंग देखा था
वह पता नहीं कहाँ चला गया
चिट्ठियों के जवाब देना क़र्ज़ की क़िस्तें चुकाना भूल जाता हूँ
दोस्तों को सलाम और विदा कहना याद नहीं रहता
अफ़सोस प्रकट करता हूँ कि मेरे हाथ ऐसे कामों में उलझे रहे
जिनका मेरे दिमाग़ से कोई मेल नहीं था
कभी ऐसा भी हुआ जो कुछ भूला था
उसका याद न रहना भूल गया
माँ कहती थी उस जगह जाओ
जहाँ आख़िरी बार तुमने उन्हें देखा उतारा या रखा था
अमूमन मुझे वे चीज़ें फिर से मिल जाती थीं और मैं ख़ुश हो उठता
माँ कहती थी चीज़ें जहाँ होती हैं
अपनी एक जगह बना लेती हैं
और वह आसानी से मिटती नहीं
माँ अब नहीं है सिर्फ़ उसकी जगह बची हुई है
चीज़ें खो जाती हैं
लेकिन जगहें बनी रहती हैं
जीवन भर साथ चलती रहती हैं
हम कहीं और चले जाते हैं—
अपने घरों लोगों अपने पानी और पेड़ों से दूर
मैं जहाँ से एक पत्थर की तरह खिसक कर चला आया
उस पहाड़ में भी एक छोटी-सी जगह बची होगी
इस बीच मेरा शहर एक विशालकाय बाँध के पानी में डूब गया
उसके बदले वैसा ही एक और शहर उठा दिया गया
लेकिन मैंने कहा यह वह नहीं है
मेरा शहर एक ख़ालीपन है
घटनाएँ विलीन हो जाती हैं
लेकिन वे जगहें बनी रहती हैं जहाँ वे घटित हुई थीं
वे जमा होती जाती हैं साथ-साथ चलती हैं
याद दिलाती हुईं कि हम क्या भूल गए हैं
और हमने क्या खो दिया है।
इस तरह की अंतर्वस्तु वाली कविताएँ मंगलेश डबराल के कविता-संसार में हमें बार-बार दिखती हैं। ये कविताएँ सीधे तौर पर स्मृतियों को स्थापित करने और उनके सहेजने का कलात्मक उपक्रम हैं। इन कविताओं में हम साफ़ तौर पर देख सकते हैं कि इनमें स्मृतियों का कितना वैविध्य और विस्तार है, इनमें स्मृतियों के कितने सूक्ष्म रंग और रूप हैं, इनमें स्मृतियों की कितनी छवियाँ और गतियाँ हैं। ऐसा लगता है कि मानो ये कविताएँ अनावश्यक-से लगने वाले ब्योरों से युक्त स्मृतियों का सर्जनात्मक और कलात्मक उत्सव हैं। ऐसा लगता है कि मानो इस प्रकार अनावश्यक-सी लगने वाली स्मृतियों का यह वैविध्यपूर्ण रचनात्मक अंकन, दरअसल, जीवन के बहुकेंद्रिक और यथार्थ के बहुआयामी स्वरूप का सहर्ष स्वीकार भी है।
अतः आज जब मंगलेश डबराल स्वयं स्मृतिशेष हो गए हैं, तब उनकी स्मृति को नमन करते हुए हमें स्मृतियों के प्रति उनकी लेखकीय सजगता और सरोकार को विशेष रूप से याद रखना चाहिए।
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