तिहत्तर वर्ष के देश में बहत्तर वर्ष का कवि

तिहत्तर वर्ष के देश में बहत्तर वर्ष का कवि

मंगलेश डबराल की समग्र कविता के बारे में जब ख़ुद से सवाल पूछती हूँ कि यह इतनी असरदार क्यों है तो एक जवाब यह मिलता है कि यह कवि निडर और निःशस्त्र होकर ख़ुद पर जीवन का असर पड़ने देता था, यह ख़ुद पर पहाड़ का असर होने देता था, मैदान का असर पड़ने देता था, सरकार का असर पड़ने देता था, राग का असर पड़ने देता था, विराग का असर पड़ने देता था, प्रशंसा का असर पड़ने देता था, आलोचना का असर होने देता था, अरुंधति रॉय का असर पड़ने देता था, एकांत का असर होने देता था, यारी-दोस्ती का असर पड़ने देता था। अमूमन इस तरह का खुला जीवन जीने से मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, उसे या तो इस असर को बेअसर करने के लिए अपने अंदर गुप्त झिल्ली बनानी पड़ती है या फिर उस असर का प्रबंधन करना पड़ता है। मंगलेश डबराल ने इसका प्रबंधन कुछ इस तरह किया कि पारदर्शी भाषा में इस असर को विन्यस्त करता यह कविता लिखता चला गया। वह भाषा को भी ख़ुद पर असर करने देता था, इसलिए भाषा उसके हाथों में कुछ नई होकर निखरकर असरदार हो जाती थी।

इस कवि को मालूम होता था कि वह जहाँ जा रहा है, वहाँ दुःख है पर फिर भी वह वहाँ जाने से घबराता नहीं था। वह पेशाबघरों में गुमशुदा के पोस्टर पढ़ता था और यह देखने के लिए कि नए बैंक कितने चालाक हैं, वहाँ खाता भी खुलवा लेता था। वह कवि कभी-कभी देखने में थका और घबराया हुआ लगता था, लेकिन उसके भीतर का कवि बहुत चौकन्ना था। उसका कृशकाय नहीं, कविकाय शरीर बहुत सलीक़े और न्यूनतम जगह में संवेदना को समेटे हुए था। इस कवि के सान्निध्य में मुझे हमेशा ऐसा लगा जैसे तमाम अव्यवस्था के बीच हमेशा व्यवस्था और सुंदरता की संभावना होती है, लेकिन उसे संघर्ष करके खोजना पड़ता है।

क़रीब दस साल पहले जब मैंने हिंदी साहित्य समाज को जानना और पहचानना शुरू किया तो यह समाज हिंदी साहित्य के नामचीन लेखकों और आलोचकों के गिर्द अन्य लेखकों/आलोचकों/पाठकों/प्रोफ़ेसरों के रूप में अनुयायियों द्वारा निर्मित किए गए मठों और मठाधीशों से बहुत आक्रांत था, मठ और मठाधीशों के ख़िलाफ़ सोशल मीडिया पर इन नए-पुराने लिबरल लोगों का विद्रोह तेज़ होता जा रहा था, हिंदी के विवाद-उर्वर प्रदेश में हर दिन किसी मठ या मठाधीश के विरोध में कोई पोस्ट या लेख पढ़ने को मिलता था, ऐसा लगता था हिंदी साहित्य के नवजागरण का इक्कीसवीं सदी का निर्णायक संस्करण अब बस आने-आने को है। कई सिद्धांतों और साझे मंतव्यों के आधार पर होते ये ध्रुवीकरण हिंदी के साहित्यिक गलियारों में रूढ़ हो चुकी हर स्थापना पर सवाल उठा रहे थे, हिंदी का नया-पुराना हर लेखक अब ना-ना करते फ़ेसबुक पर अपना खाता और ख़ेमा खोल रहा था और इस धर्मयुद्ध में अपने बौद्धिक और जन-संपर्क/सामर्थ्य से हस्तक्षेप करने लगा था। हिंदी साहित्य की स्थापनाओं, सिद्धांतों और लोकप्रियताओं पर बातें ठीक से उठनी शुरू ही हुई थीं कि देश में दक्षिणपंथी सरकार सत्तारूढ़ हो गई और मंगलेश डबराल की वैचारिकी वाले लोगों की पीढ़ी की जैसे जान पर बन आई। आज़ादी के बाद यह पहला ऐसा बहुमत प्राप्त राजनैतिक नेतृत्व था जो इस क़दर खुल्लम-खुल्ला भारत की बहुरंगी संस्कृति को केसरिया कर देना चाहता था। देश में अच्छे दिन लाने के हवाले से फैले व्यापक कपट और हिंसा से मंगलेश डबराल जैसे लोगों विकल हो उठे और लगातार इसका विरोध करने लगे। इस बात के उदाहरण में मैं मंगलेश डबराल के साथ हुई दो मुलाकातों के संदर्भ देना चाहती हूँ, पहली वर्ष 2014 में जब हम पटना में ‘भारतीय कविता समारोह’ के आयोजन में मिले, रात को देश भर के अन्य भाषाओँ के कवियों और हिंदी के कवियों की महफ़िल जमी हुई थी, जब मैं वहाँ गई तो मंगलेश जी किसी लेखक से कह रहे थे अब इस देश को दलित पॉलिटिक्स ही बचा सकती है, कमरा लेखकों की सिगरेटों के धुएँ और शराब की गंध से कुछ इस तरह भरा पड़ा था कि मैंने मन में सोचा कि देश को दलित पॉलिटिक्स बचाएगी, लेकिन इस आश्वित्ज़ बनते जा रहे कमरे से हमें कौन बचाएगा। देश कितना बदल चुका था, इसे अगर पाँच साल बाद वर्ष 2019 में चंडीगढ़ में उनकी कविताओं के पंजाबी अनुवाद की किताब के विमोचन के आयोजन पर उनके वक्तव्य और कविताओं के हवाले से बताना हो तो ऐसा लगता था कि कवाफ़ी के ‘वेटिंग फ़ॉर बारबेरियंस’ अब बाक़ायदा देश में पहुँचकर अपने पैर जमा चुके थे, मंगलेश जी अपनी अन्य सभी कविताएँ भूलकर आततायी की पाखंडी विनम्रता और धूर्त मुस्कान के धोखे को उजागर करती आततायी की शनाख़्त करती हुई कविताएँ पढ़ रहे थे।

देश की बदनीयत होती जा रही राजनीति पर मंगलेश जी की टिप्पणी में पत्रकार की प्रखरता और कवि की भावुकता शामिल रहती थी। उनके व्यक्तित्व में शामिल इस कातरता और भावुकता की वजह से नई-पुरानी हस्तियाँ उनके बयानों पर कई बार उनका शिकार भी किया करती थीं। ‘फ़ेसबुक’ हिंदी साहित्य संसार में कोई आम घटना नहीं है, फ़ेसबुक ने न केवल लिखने, पढ़ने, छपने के तरीक़ों में आमूलचूल परिवर्तन किया है; बल्कि लेखकों के आपसी रिश्तों और पाठक और लेखक के परस्पर संबंधों को भी नए तरीक़े से परिभाषित किया है। यह भी कह सकते हैं कि फ़ेसबुक से हिंदी साहित्य संसार में सामाजिकता फ़ेसबुक पूर्व काल से कहीं अधिक लोकतांत्रिक और आक्रामक एक साथ हो गई। हिंदी कविता की युवतर पीढ़ी और कुछ उन्हीं के समकालीन लेखक अगर मंगलेश डबराल की वैचारिक समझ, उनकी कविता के कारण उन्हें देश-विदेश की यात्रा के अवसरों, उनके किए विश्व कविता के अनुवाद और उनकी कविता के अँग्रेज़ी अनुवाद पर सवाल उठाती थी तो यह सिर्फ़ सोशल मीडिया द्वारा उपलब्ध कराई गई जगह का मामला भर नहीं था जिसका लोग लोकतांत्रिक प्रयोग करते रहे, इसमें मंगलेश डबराल की सहमति और संवाद के प्रति उनका आकर्षण भी था कि वह इन आरोपों और कुतर्कों का जवाब लंबे-लंबे कमेंट्स में दिया करते थे जबकि फ़ेसबुक पर आने से पहले भी वह इतनी कार्रवाई कर चुके थे कि यह छींटाकशी और विवाद कवि के रूप में उनकी प्रतिष्ठा को नहीं कम कर सकते थे। या तो यह युवतर कवियो की मंगलेश डबराल से अतिरिक्त अपेक्षा थी कि वह हर समय संतुलित और वरिष्ठोचित व्यवहार करें या फिर सोशल मीडिया की दी गई विस्फोटक आज़ादी कि कई बार युवतर पीढ़ी के लिए इस संवादी कवि की झल्लाहट और निराशापूर्ण इबारत समझ पाना भी कठिन होता था। जो लोग उन्हें सिर्फ़ फ़ेसबुक से ही जानते हैं, वे भी उन्हें कम जानते हैं और जो उन्हें फ़ेसबुक से नहीं जानते हैं, वे भी कम जानते हैं। मैं उनकी समग्र सक्रियता को देखते हुए निश्चित रूप से कह सकती हूँ कि मंगलेश डबराल लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को जीने वाले और इनके लिए खड़े होने वाले उदारमन व्यक्ति थे। इससे हो सकता है कि कोई असहमत भी हो लेकिन मैंने महसूस किया है कि वह अपनी देह और मानसिक उपस्थिति को कुछ इस तरह बरतते थे कि उनकी उपस्थिति किसी को आतंकित नहीं करती थी, बल्कि वह जिससे मिलते थे, उस मिलने वाले के जीवन की किसी अच्छी बात का ज़िक्र करके संवाद में सहज प्रवेश कर लेते थे। हो सकता है पिछली सदी में यह सादगी सामान्य बात रही हो, लेकिन वर्तमान दौर में यह दुर्लभ है; इसलिए जब मुझे कोई ऐसा मनुष्य मिलता है जो अपनी उपस्थिति से आतंकित न करके दूसरे के लिए जगह बनाता हुआ ख़ुद दृश्य के नेपथ्य में जाना चाहता है तो सहसा यह एहसास होता है जैसे जीवन कुछ आसान हो रहा है।

अभी-अभी आज़ाद हुए भारत में मंगलेश डबराल को जो हिंदी विरासत में मिली, उन्होंने उसे एक कवि की तरह सँवारा, अपनी संवेदना और जीवनानुभव से उन्होंने इसे पहले से अधिक साफ़ और सुंदर किया। मंगलेश डबराल की कविता में भारत के मनुष्य का जीवन और उसके संघर्ष के ऐसे ज़िक्र हैं जो हिंदी कविता में लगभग अकल्पनीय थे। मूर्ति-पूजा वाले देश में मंगलेश डबराल अपनी कविता में मनुष्य की ‘तस्वीरों’ से संवाद करते थे और इस देश में अस्पृश्यता के प्राचीन और आधुनिक स्वरूप के विरोध में ‘छुओ’ आदि कविताओं के माध्यम से स्पर्श की पैरवी करते थे। मंगलेश डबराल की कविता प्रगति के नाम पर पसरती अमानुषिकता की पहचान करती है और इसके विरुद्ध अभियान चलाती है। उनकी कविता मनुष्य की आज़ादी को ख़तरे में डालकर फ़ैल रही रौशनी के ख़िलाफ़ मनुष्य के धुँधले जीवन को बचाना चाहती है। उनकी कविता में हिंदी भाषा और हिंदी कविता को नई संवेदना मिली और उस संवेदना को व्यक्त करता हुआ नया विन्यास और शिल्प मिला। मंगलेश डबराल समर्थ कवि थे जिन्होंने उपलब्ध भाषा में ही फेरबदल करके अपना काम नहीं चलाया, बल्कि अपने जीवनानुभव और काव्य-संवेदना के अनुकूल नई भाषा का संधान किया। विनोद कुमार शुक्ल, कुँवर नारायण आदि कवियों के यहाँ और उनके समकालीन कवियों के हाथों हिंदी धीरे-धीरे मुलायम और गृहस्थ हो रही थी। वह भारतीय मनुष्य के जीवन को अभिव्यक्त करने की संभावना खोज रही थी… मंगलेश डबराल के हाथों में आकर जैसे उसे नया मक़ाम हासिल हुआ। मंगलेश डबराल को इस देश में मिला सम्मान और प्रेम और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मिली ख्याति अकारण नहीं है, यह कवि अपनी तमाम चेष्टाओं और सक्रियताओं में इस देश और इस देश के मनुष्य को समझने और बचाने का प्रयास कर रहा था। चूँकि मंगलेश डबराल की कविता का मनुष्य सिर्फ़ भारत का मनुष्य नहीं है, बल्कि विश्व की अन्य सभ्यताओं में भी मनुष्य लगभग वैसा ही जीवन जी रहा है, उसके सुख-दुःख भारत के मनुष्य जैसे हैं, इसलिए मंगलेश डबराल की कविता स्थानीय होकर भी विश्वव्यापी है।

मंगलेश डबराल का जीवन बहत्तर वर्षों का सक्रिय और सृजनात्मक जीवन था। इस लेखक की अनुपस्थिति मामूली अनुपस्थिति नहीं है, बल्कि जैसा कि मेरे मित्र व्योमेश शुक्ल ने मंगलेश जी को याद करते हुए लिखा कि उनकी कविता रोज़ याद आने वाली कविता है, वह रोज़ याद आने वाले कवि हैं। तिहत्तर वर्ष के भारतीय लोकतंत्र में यह बहत्तर वर्ष का कवि था, इस लोकतंत्र के ऊबड़-खाबड़ में, भारत के मनुष्य के सुख-दुःख में यह कवि संलग्न था, भारत की अच्छी-बुरी चीज़ों में डूबा और उन चीज़ों पर टिप्पणियाँ करता यह बहत्तर वर्ष का कवि तिहत्तर वर्ष के लोकतंत्र के भविष्य को किंचित हताशा और अनिवार्य आशा से देख रहा था, इसके देखने में विश्वसनीयता और भावुकता थी, इसीलिए इसके चले जाने से हिंदी के साहित्य समाज को अवरोध और दुःख महसूस हो रहा है कि हिंदी कविता में अब एक ऐसा भविष्य होगा जब हिंदी कविता होगी, हम सभी को घेरे हुए देश होगा, देश के लोकतंत्र का कोई स्वरूप होगा; लेकिन इससे दुखद और क्या होगा कि हिंदी का यह असरदार कवि हमारे साथ नहीं होगा और ये सर्दियाँ हमारे लिए पहले से कहीं अधिक कठोर होंगी।

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