फूँक-फूँक कर लिखी गई एक किताब
ट्रैफ़िक जाम कभी टर्निंग प्वाइंट के क़द का भी हो सकता है! इंजन बंद करके स्टियरिंग पर तिहाई बजाने का वक़्त था जब मेरी नज़र सामने वाली गाड़ी पर पड़ी। ऑटोरिक्शा था। रिक्शे में अंट-शंट किसी उखड़े हुए मजमे का सामान ठुँसा था और पीछे की सीट पर दो लोग बैठे थे। यह परंपरागत बैठना न था। उनके धड़ का हिस्सा अलग ही नहीं, स्पष्टतया अलग था। पर उनके माथे आपस में सटे थे। दोनों की शक्लें अपने-अपने जैसी थीं, पर दोनों पर एक-से भाव का मुलम्मा चढ़ा था। इस साज-सज्जा में वे दोनों हमशक्ल दिखाई दे रहे थे। आँखें उनकी, दोनों की, उसी हद तक ख़ाली थीं, जैसा कि अब वह मंच हो चुका होगा, जहाँ से उनका तंबू-खंभा उखड़ चुका था।
मुझे होश तब आया जब सामने की गाड़ी में हरकत हुई और दृश्य आगे बढ़ने लग गया। मैं वक़्त में अभी ठहरने ही पाई थी कि जाम घुटनों के बल सरकने लगा। यह धोखा था। पर नहीं भी था। क्योंकि उन बातों का तभी कोई अस्तित्व न था। सामने का ऑटोरिक्शा बेतरह डुल रहा था, हुचक रहा था पर उन दोनों के माथे वैसे ही जुड़े थे। वे ख़ाली लोग कौन थे, उनमें कितना सम्मोहन अभी बचा था, और उस मोड़ से आगे मैं उनका पीछा करने वाली थी या वे मेरा… यह सब क़िस्से की ओर ढकेलने का माद्दा रखता है, पर बात अभी एक कवि की—दो कवियों की।
एक
इस पितलाई हुई चीज़ के ज़रिए खींचे गए
दिमाग़ के धुँधलाते अलबम में ज़र्द पड़ते हुए ये चित्र
बिकाऊ नहीं हैं।
दूरबीन, विष्णु खरे
इस बीहड़ क्रूरता के साथ बसे देश में सिर्फ़ तुम्हारे घर के नीचे, अफ़सोस, कभी ट्रैफ़िक जाम नहीं लगता जिसमें फँसा जा सके। वहाँ से ख़याल की तरह गुज़रना होता है।
गुज़रना, व्योमेश शुक्ल
इस वाक़ये के बरअक्स, इन दो कवियों का स्मरण बेवजह नहीं है। मृत्यु की स्मृति और उसकी आशंका का मुलम्मा इन दोनों पर हावी है और उम्र का बड़ा अंतराल होने के बावजूद दोनों मानसिक स्तर पर दरअसल ‘दोस्त’ की हिस्सेदारी से ही जुड़े हैं। ऐसे में एक कवि का दूसरे पर लिखना और वह भी खेलते हुए लिखना, दिलचस्प है।
क्या रखा है सिद्ध करने में
कि जब भी उतरोगे ठीक-ठाक खेल ही लोगे
कवर ड्राइव, विष्णु खरे
किताब की ख़ासियत यह है कि उसे फूँक-फूँक कर धीमे-धीमे पीते हुए लिखा गया है, पर पढ़ने वाला इसे एक हलक़ में पी लेना चाहता है; और इसकी भाषा एवं प्रवाह इसमें भरसक आपकी मदद करते हैं। संस्मरण के हर अध्याय में लगाव का सघन आवरण है, पर तटस्थता की चहलक़दमी भी साफ़-साफ़ दिखाई देती है।
जबकि जितना जो कुछ सहेजा था
उससे निस्पृह होने का वक़्त है
दूरबीन, विष्णु खरे
दो
किताब में विष्णु खरे की 17 कविताएँ शामिल हैं और उन्हें पाठक तक पहुँचाने के लिए व्योमेश शुक्ल ने तलहथी से रास्ता बनाया है। ध्यान रहे कि यह मुसलसल इंसानी हथेली है, जिसकी कई छोटी रेखाएँ, दूसरी प्रभावी रेखाओं का रास्ता काट-कूट देने का माद्दा रखती हैं। ‘नेहरू-गांधी परिवार के साथ मेरे रिश्ते’ के ठीक पहले की टिप्पणी इसका प्रमाण है।
दरअसल, वह राजनीति के जादू को जानते थे, और इसे भी जादू नहीं तो और क्या कहा जाए कि विष्णु खरे—जो मई 14 के उस आयोजन में खुल्लम-खुल्ला कांग्रेस के प्रत्याशी को वोट देने की बात कह रहे थे, अपने जीवन के अंतिम दिनों में आम आदमी पार्टी के नेतृत्व वाली दिल्ली सरकार की हिंदी अकादेमी के उपाध्यक्ष बनाए गए।
इसी अध्याय की शुरुआत में व्योमेश कहते हैं कि वह इस कविता को कुछ तब्दीलियों और बढ़त के साथ दुबारा लिखना चाहते थे, लेकिन ऐसा हो न सका।
संभवतः विष्णु खरे ने जानबूझकर ऐसा किया हो! अगर वैसा होता तो वह मारक ही होता। क्योंकि
हिट के बाद नटराज की तरह एक पैर उठाए रखना अशोभन है
कवर ड्राइव, विष्णु खरे
सहमत, पर कुछ बढ़त और तब्दीली के साथ ‘हिट’ को प्रस्तुत करना संभवतः ज्यादा अशोभन है।
तीन
किताब के जो अध्याय विष्णु खरे की कविता के बग़ैर हैं, जिनमें ‘नीट’ जीवन है, वे भी दरअसल कविता हैं। यह किताब का सबसे प्रबल पक्ष है। गले से ट्रिक की शातिरी में विष्णु खरे एक बच्चे जैसे दिखलाई देते हैं, पर इस तस्वीर पर उनके व्यक्तित्व के साथ व्योमेश शुक्ल के सरल और मोहक अंदाज़-ए-बयाँ का भी दख़ल है। ‘मैंने तुरंत सोचा था कि जल्द से जल्द यह बात भूल जाऊँगा, लेकिन सोचा हुआ कहाँ होता है…’’—अध्याय के कैनवस पर यह वाक्य हस्ताक्षर की हैसियत से मौजूद है।
चार
पिता—विष्णु खरे के लिए एक लिटमस पात्र हैं। वह बार-बार चोरी छिपे अपने खारत्व की जाँच करने उधर टहल लेते हैं।
उसे जहाँ छोड़ा था
कभी-कभी वहाँ जाकर खड़ा हो जाता हूँ
लौटना, विष्णु खरे
मैं आजकल जब लिखता हूँ, मुझे लगता है मेरा बाप लिख रहा है। मेरी हैंडराइटिंग में उनकी रवायत आ गई है। ख़ुद को लिखते हुए देखता हूँ कि वाह! सुंदरलाल जी काम पर लगे हुए हैं। अब हो गया ऐसा। क्या किया जाए?
उन्होंने कुत्ते पाले भी, लेकिन एक बार ऐसा हुआ कि एक कुत्ते को उसकी शरारत की वजह से छोड़ देना पड़ा। विष्णु खरे ख़ुद उसे छोड़ने गए थे। इस बात ने काफ़ी समय तक उनका पीछा किया। बातचीत में उन्होंने इसका ज़िक्र मुझसे किया था। 1986 में हुए इस वाक़ये की रौशनी में मैं उनकी कविता की जासूसी करने लगा।
एक पिता हैं, जो विष्णु खरे की हैंडराइटिंग में सेंधमारी कर रहे हैं और जिन्हें वह बार-बार बेदख़ल कर रहे हैं। दूसरी तरफ़ यह छोटा लैब्रेडोर है, जिसे वे छोड़ आते हैं। यह दो प्रसंग है, या एक ही वाक्य! क्या कुत्ते को छोड़ आना, दरअसल, पिता के साये को दफ़्न कर आना था! और इन दोनों का घालमेल ही उन्हें हॉन्ट करता चला गया।
मेरा एक मैं और भी है—दूसरे शब्दों में, इसी दुनिया में कहीं मेरा similar and another—विष्णु खरे की कविताओं में कई बार आता है।
पाँच
कुछ प्रसंग गुदगुदाते हैं, जिनमें कहीं मेघालय के राज्यपाल की काली टोप की गदबद सजधज है, कहीं हिंदी अकादेमी के उपाध्यक्ष बनने के जवाब में भोथरी कटार चला देने के अंदाज़ का हौसला।
अध्याय-30 इस किताब का उरूज है। यहाँ ध्यान दें कि यह एक कवि का अपने लिए अनिवार्य दूसरे कवि को खोज लेने का खेल भर नहीं है। यह मृत्यु की स्मृति के पैशन में डूबे एक किरदार का मौत के ख़ौफ़ में रहने वाले दूसरे किरदार से साक्षात्कार भी है।
ऑटोरिक्शा उसके बाद कभी नहीं रुका। वह ट्रैफ़िक जाम एक बार खुला तो बेतहाशा खुलता ही चला गया। मेरे लाख हॉर्न बजाने के बावजूद वह ऑटो रेंगता गया और पिछली सीट पर बैठे दो लोगों का माथा जुड़ा ही रहा। मेरे ज़ेहन के स्थिर युग्म पर किताब के अध्याय-30 की छाया है।
मृत्यु से सामना करने की तैयारी के लिए एक इंसान अपने को किस तरह ट्रैफ़िक जाम के हॉर्न में तबाह कर देना चाहता है, इसे पुस्तक के इस हिस्से में महसू किया जा सकता है। अस्पताल के गलियारे में दो कवि एक कार्यक्रम में किसने क्या कहा पर धैर्य से बतियाते, मृत्यु को चकमा दे रहे थे।
छह
विष्णु खरे की पिनक-धुनक के शेड्स तमाम पन्नों पर मौजूद हैं।
विष्णु खरे ने कविता में हमेशा वही कहने की कोशिश की जो उनके बग़ैर न कहा जा पाता। या इस बात से इनकार नहीं कि विष्णु खरे में कुछ तो कम है!!! और यही बात किताब पर भी लागू होती है—कुछ तो कम है।
शायद पाठक को थोड़ा और स्पेस चाहिए था, और भी कुछ जानना रह गया। मैंने देखना अभी शुरू भर किया था कि जाम ख़त्म हो गया… जैसी बात। पर यह ज़रा कम ही दृश्य को ज़्यादा मौज़ू बनाता है। जीवन को भी। किताब को भी। शायद। नहीं! हाँ।
~•~
ये भी पढ़ सकते हैं : विष्णु खरे के साथ साथ दिन │ विष्णु खरे का रचना-संसार