मेरी कोई स्त्री नहीं

6 अप्रैल 2020

सियोत से लौट आने के बाद दो दिन से खेत पर ही पड़ा हूँ। यूँ पड़ा रहना मेरे स्वभाव के विपरीत रीति है। गतिशीलता, भटकन (मन और तन दोनों की) और उत्पात में ही मेरी आभा है और मुझे सुभीता है। मैं बहुत देर तक कहीं पड़ा नहीं रह सकता और बहुत देर तक एक जगह खड़ा भी नहीं रह सकता। लेकिन छड़ा रहने का गुण (अवगुण) मैंने ख़ुद विकसित किया है और जड़ा तत्त्व मुझमें स्वभाव-गत है। ऊँटों, घोड़ों पर चढ़े-बैठे हुए मैं महीनों, सालों के लंबे सफ़र भी काठियों पर ही तय करता हुआ मस्ती से जीवन काट सकता हूँ, परंतु खाट या कमरे में पड़ा-पड़ा में एक दिन में ही सड़ने लगता हूँ। प्रवृत्ति और गति ही मेरे जीवन की नियति है, रीति-प्रीति है, मेरी सर्व रिद्धि-सिद्धी है।

लॉकडाउन में खाद्य-सामग्री भरते समय चाय-पत्ती लेना बिसर गया था। आज सुबह से ही मेरे पास चाय-पत्ती ख़त्म हो चुकी है। ग्रामीण किराना व्यापारी सुनार बन गए हैं, चाय-पत्ती तीन-चार-गुना मूल्य पर बेच रहे हैं। आज पीरजी को पाँच गाली देकर मैं बिना चाय-पत्ती ख़रीदे ही लौट आया; सोचा कि चार दिन चाय नहीं पीऊँगा तो मर नहीं जाऊँगा। पर दुपहर तक राजूसिंघ मिलने आ गया, वह अपने घर से कुछ चाय-पत्ती लाकर दे गया।

राजूसिंघ कुछ दिनों से मेरे वहाँ कम आता है। राजूसिंघ का पिता ज्वाहरसिंघ नौकरी से छूटी लेकर हफ़्ते भर के लिए घर को आए थे जोकि मुझे बिल्कुल ही पसंद नहीं करते। उन्हें राजूसिंघ की मुझसे दोस्ती, मिलना-जुलना राज़ नहीं आता। उन्हें लगता है कि राजूसिंघ मेरी संगत में रहकर मेरी तरह ही बिगड़ जाएगा। इसलिए राजूसिंघ ने अपनी शांति और ख़ुशी बनाए रखने के लिए अपने पिता के घर रहते हुए कुछ दिन तक मुझसे, मेरे डेरे से दूरी बनाए रखी थी।

साकरिया गाँव में बहुत कम लोग मेरे दोस्त या हितेच्छु हैं, पर ‘नागा से आघा ख़ासा’ वाली कहावत का ज़िक्र करते हुए सब एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं। उनके मेरे प्रति घृणा के कई सारे कारण होंगे, परंतु मुख्यत: तीन ही कारण हैं। पहला कि मेरा खेत गाँव के निकट है और गाँववालों के ढोर-ढाखर बार-बार खेत में घुसकर फ़सल बर्बाद कर देते हैं। मैं उनके विरूद्ध उचित क़दम उठाता रहता हूँ, इसलिए उनकी नज़र में ज़हर का काँटा बना हुआ हूँ। वे चाहते हैं कि मैं अपना खेत खेड़ना छोड़ दूँ ताकि उनके पशु खुले-आम चर-विचर सके। दूसरा कारण है मेरी जीवनशैली; वे समझ ही नहीं पाते कि एक जवान लड़का अपने परिवार से अलग यूँ बेकाम क्यों भटकता रहता है। मेरा कोई भी काम कर लेना, कहीं भी रह लेना, कहीं भी चले जाना उन्हें विचित्र और संदेहास्पद लगता है। ऊँट पर आवारा वन-वन भटकते रहना और दूर-दूर यात्राएँ करना उनके लिए एक बेकार और बेवक़ूफ़ाना चीज़ है। उन्हें कमाते-धमाते, काम-धंधा करते, शादी-बच्चे करते और गाड़ी-बँगला ख़रीदते पारिवारिक और पारंपरिक युवा पसंद हैं। मुझसे उनके ख़फ़ा रहने का तीसरा कारण मेरा अधार्मिक और अनीश्वरवादी होना है। मुझे वे एक पागल, सिरफिरा, बेवक़ूफ़, बदतमीज़, बिगड़ैल, उपद्रवी, क्रूर, ग़ुस्सैल, घमंडी, कामचोर, आवारा, सनकी, कलंक, धर्मभ्रष्ट, पथभ्रष्ट, पागल और न जाने क्या-क्या समझते रहते हैं।

मेरे बारे में कई सारी अफ़वाहें, आशंकाएँ फैलती रहती हैं जो मुझे अपने कुछ दोस्तों के द्वारा ज्ञात होती रहती हैं। कई लोग मुझे पागल समझते हैं और कई समझते हैं कि मैं किताबें पढ़-पढ़कर पागल हो चुका हूँ। किशोर और नवयुवा लड़के-लड़कियों में किसी ने धारणा बनाई है कि मैं किसी लड़की के प्रेम में असफल होकर अपने को इस तरह नष्ट कर रहा हूँ। किसी को लगता है कि मुझे किसी बुरी प्रेतात्मा ने अपने वश में कर रखा है। कोई दावा करता है कि मैं ईश्वर, देवताओं में विश्वास नहीं करता इसलिए उनका कोप मुझ पर उतरा है और इसलिए उनकी अवज्ञा की सज़ा के तौर पर यूँ भटकते रहने को अभिशापित हूँ। जबकि कुछ सहृदय लोग मानते हैं कि मैं कोई रहस्यमय पीर-फ़क़ीर हूँ। और बाक़ी जो मुझे लेकर ग़लतफ़हमियों, अवधारणाओं की कुछ कसर रहती भी थी तो वह मेरा स्वभाव पूरी कर देता है। मेरा घमंड, ग़ुस्सा और हिंसा उनकी ज़्यादातर मान्यताओं, धारणाओं को पुष्टि करने के लिए बहुत है।

इस तरह की सारी अफ़वाहों, ग़लत धारणाओं के कर्ता-धर्ता तीन लोग हैं। एक वह पाबूजी मंदिर का ओझा भेरजी, दूसरी वह अमीर, युवा-विधवा और तीसरा वह झाड़-फूँक, ऊँट-वैद्यी, दलाली और धतिंगबाज़ी करता मज़ार का मुल्ला मोटामियाँ। क्योंकि तीनों ही कई-बार मुझसे गालियाँ, लातें और हार खा चुके हैं; जिसका रंज निकालने के लिए उन्होंने यह तरीक़ा निकाला है जो मेरे लिए नुक़सानदेह कम और फ़ायदेमंद ज़्यादा है।

कच्छियत की मिली-जुली, साझा संस्कृति के दिन अब गुज़रा ज़माना हो चुके हैं। हमारे गाँवों में अब समाज का स्पष्ट ध्रुवीकरण हो चुका है; एक तरफ़ कट्टर हिंदू हैं और दूसरी तरफ़ कट्टर मुस्लिम। आपका किसी एक धड़े में न होना, दोनों धड़ों से दुश्मनी मोल लेना है। पता नहीं यह धार्मिक कट्टरवाद का ज़हर गाँवों में कब से फैलना शुरू हुआ, पर अब उसकी जड़ें बहुत गहरी पैठी जान पड़ रही हैं। गाँव-गाँव में कोई न कोई कट्टर हिंदू संगठन और मुस्लिम कट्टरपंथी संगठन चल रहा हैं। ऐसे संगठन गाँव के कुछ सबसे निकृष्ट और बदमाश लौंडों को संगठन का कोई पद-वद देकर धार्मिक वैमनस्य को फैलाने का काम करते रहते हैं। ऐसे में मेरे जैसे अधार्मिक और अनीश्वरवादी लोग सबकी आँखों की किरकिरी बने रहते हैं। उनके नज़रिए में ऐसे लोग ग़द्दार, देशद्रोही, काफ़िर, विद्रोही वग़ैरह होते हैं।

ढलती शाम को मैं चूल्हे पर चाय चढ़ाए बैठा था, तब गाँव से मेरे डेरे की ओर चलकर आते ज्वाहरसिंघ को देखा। मैं कुछ कटु-वचन कहने-सुनने के लिए अपने मन को मना रहा था और अपने आपको समझा रहा था कि वह कितने भी कड़वे वचन कह लें, तब भी विचलित हुए बिना शांति और धैर्य बनाए रखना है। याद रखना है कि वह मेरे दोस्त के पिता हैं और उम्र से भी पिता समान हैं, कुछ बुरा-भला कह भी दें तो सुन लेना है और पलटकर कुछ भी कहना-करना नहीं है। वह अपनी बड़ी-सी तोंद को मटकाते हुए आ रहे थे, दूर से किसी मदमस्त चलते भैंसे से लग रहे थे। मैंने अपनी तसल्ली को चाय से भरा और उसे सुड़कने लगा; पतीली में कटोरी भर चाय उनके लिए भी बचा रखी थी। वह आए तो आवकार देकर खाट पर जगह दी और चाय की कटोरी भी थमा दी। चाय सुड़कते हुए वह मेरी फ़सल ख़राब होने की, ऊँट की, खेत में हल चलाने जैसी पूछताछ भरी, ख़बर लेने वाली बातचीत करते रहे। फिर कुछ देर शांत रहकर मुद्दे की बात बताई कि लॉकडाउन के चलते गाँव में कहीं भी शराब नहीं मिल रही; तुम्हारे पास अगर हो तो उसमें से कुछ मुझे दे दो, पियासी आदमी हूँ बिना दारू के रात को खटिया में पड़े-पड़े बदन टूटने लगता है और रात भर नींद नहीं आती; बस, करवटें बदलता रहता हूँ। मैंने अपने पास पड़ी सियोत से पाई खारेक की बची एक तिहाई बॉटल उन्हें थमा दी। शराब पाकर रोमांचित हुए उनके मुख की चमक देखने जैसी थी।

डेरे में खाट पर पड़े पड़े अंग अकड़ाना बहुत हो चुका था, इसलिए तुरंत खब्बड़सिंघ पर पलाण बाँधा और ऊँट पर सवार होकर निकल पड़ा कमा-हमीर के डेरे की ओर। लगाम को हल्का-सा झटका देकर ढीला किया और खब्बड़सिंघ की छाती पर एड़ी क्या मारी कि पवन वेगी के पंख उग आए। देह की पूरी ताक़त को समेटकर उसने अपने पैरों में भर ली। अपने फ़ौलादी पैरों से मिट्टी गूँथता वह पश्चिमी नभ में भागते हुए सूर्य को आज झपट लेने को तत्पर था। उसके तेज़ क़दम ज़मीन पर पड़ते थे कि पीछे मात्र धूल का एक ग़ुबार उठता रह जाता। वह मेरी मनोदशा पढ़ लेने वाला और मेरे मन की गति से चलने वाला मित्र था। क़रीब क़रीब आधे-पौने घंटे में सूर्य को आंब लिया। दस मील का फ़ासला काटकर सूर्यास्त होने से पहले कमा-हमीर के डेरे पर जा धमके थे। खब्बड़सिंघ के मुँह से हल्के से जाग निकल रहे थे पर अब भी उसकी सारी देह थिरक रही थी; मानो वह धरती को आज नाप देना चाहता हो। खड़ा होकर भी आगे जाने को उछल-कूद रहा था, हमीर तुरंत समझ गया कि आज हम दोनों कहीं आखेट खेल आए हैं। उसने सिर्फ़ इतना कहा कि रा, बे-वजह इसे तेज़ मत तगड़ा करो।

साध सूआ ऊँटनियों को दोह रहा था, ढोलर तालाब से जल भर रहा था और झलू खोई हुई ऊँटनी की खोज में गया हुआ था। कमा मुझसे दुआ-सलाम करके अपने पाँच-सात ग्राहकों में व्यस्त हो गया। हमीर ने बताया कि कमा का चिलम-धंधा बहुत बढ़ चुका है, दिन भर में तीन-चार हज़ार तक की कमाई कर लेता है। चिलम का भाव बढ़ाकर पचास रुपया प्रति चिलम कर दिया है और चिलम के तलबगार ग्राहक बढ़कर तीस-चालीस हो गए हैं। मुझे भरोसा तो नहीं हो रहा था, पर कमा ने भी अपनी कमाई की बात पर हामी भरी तब फिर संशय की कोई वजह ही नहीं बची थी। आस-पास के बीसियों गाँवों के राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और आर्थिक गोरख-धंधा चलाते सारे कुनबों के निहायत हरामी और अय्याश लौंडे इन दिनों अपनी बीड़ी-सिगरेट की तलब कमा की चिलम से मिटाने आते थे।

मुझे वहाँ आया देखकर कइयों की ज़बानें गूँगी हो गई और कइयों को काठ मार गया। सब धीरे-धीरे एक एक करके वहाँ से छू होने लगे। कमा ने आकर कहा कि सब तुम्हें देख भड़ककर चले गए। मुझे इस अड्डेबाज़ी के बारे में ज्ञात होता तो यहाँ न आता। कोरोना, सरकार और क़िस्मत द्वारा अनायास ही अपने मित्र को चार पैसे कमाने का अच्छा मौक़ा मिला था जिसे मैं अपनी वजह से चौपट नहीं कराना चाहता था और दूसरा कि मैं उन हरामज़ादों की मनहूस शक्लें भी नहीं देखना चाहता था।

ढोलर द्वारा खारी-भात बनाई गई थी जिसे उदरस्थ करके मैं वापस जाने को हुआ। हमीर और कमा ने वहीं रात रुकने का बड़ा आग्रह किया, पर मैंने जाने की ज़िद की तो उन्होंने अच्छे मित्रों की तरह जाने दिया। मेरा यूँ अचानक दोस्तों के घर जा धमकाना और अचानक वहाँ से चले जाना सामान्य है। ऐसे कई अनुभवों से गुज़र चुकने के बाद अब मेरे ज़्यादातर मित्र न आश्चर्य जताते हैं और न मुझे रोकने का व्यर्थ प्रयास करते हैं। उन्हें पता होता है कि मैं मनमौजी, तुनकमिज़ाज और मुक्त व्यक्ति हूँ जो किसी के रोके रुकने वाला नहीं हूँ और न किसी के कहे जाने वाला हूँ।

खब्बड़सिंघ चाँद की रौशनी के आग़ोश में सोई हुई धरती को हल्के-हल्के पैरों के स्पर्श से सहलाता धीर-गंभीर चाल में चला आ रहा था। कहीं-कहीं झाड़ियों में डरे हुए पंछी पंखों को फड़फड़ाते हुए सुजाक हो जा रहे थे। दूर कहीं एक टिटहरी चीख़ रही थी जिसकी आवाज़ हवा और फ़ासले से छनकर बहुत मद्धम होकर कानों तक पहुँच रही थी। ऊँट पर सवार मैं अपने आपको इस वक़्त आवाज़हीन, आत्महीन और बिल्कुल अकेला महसूस कर रहा था। इस तरह की भावनाओं के पीछे कोई वजह या घटना हो यह भी ज़रूरी नहीं। कई बार बेवजह ही ऐसी भावनाएँ महसूस करता हूँ और अपने आपको अंतहीन, गहरी और अँधेरी खाई में गिरता हुआ पाता हूँ। पर अब तक मेरे लिए गिरना कभी डूबना नहीं हुआ, ग़ोता लगाना ही हुआ है।

मैं अपने डेरे न जाकर रामा के बाड़े चला गया। रामा के ‘ताज़ी’ नस्ल के चीतेनुमा कुत्तों ने आधा मील दूर तक लेने आकर हमारा अपने स्वभावगत अंदाज़ में स्वागत किया। अंततः मुझे और मेरे ऊँट को पहचानकर वह शांत हो गए। रामा अपने मोबाइल पर वीडियो देखते-देखते सो गया था और खटिया पर बेसुध होकर उल्टा लेटा पड़ा था। उसे देखकर एकबारगी लगा कि कहीं मरा हुआ तो नहीं पड़ा है। मोबाइल में पोर्न वीडियो चलकर अटक गया हुआ था। मैंने सोए हुए रामा के पिछवाड़े पर ज़ोर की एक लात जमाई। वह तुंरत हड़बड़ाकर उठा और चिल्लाकर मुझे माँ की गाली दी। चाँदनी के धुँधले उजियारे में मेरी और ऊँट की परछाइयाँ देखकर उसने हमें पहचाना और कहा कि यार तुमने मुझे डरा दिया, मैंने सोचा कोई भूत-प्रेत या शत्रु आ गया। तुमको रात को भी सुख नहीं है?

रामा ने बकरियाँ दोहकर चाय बनाई और फिर अपनी मुझसे नाराज़गी ज़ाहिर की कि तुमने ज्वाहरसिंघ जैसे को दारू दिया पर मुझ जैसे मित्र को नहीं दी। मुझे वह ताने देने लगा कि तुम एक नंबर के स्वार्थी और मूर्ख हो। रामा के साथ यह एक समस्या है कि वह रूठेगा तब बहुत दूर-दूर रहेगा और जब मान जाएगा तो सिर पर आकर बैठ जाएगा। मैंने उसे शांत और राज़ी करने के लिए कहा कि कल-परसों तक तेरे लिए भी कुछ जुटाता हूँ। वह फूलकर कुप्पा हो गया। सोने के लिए रामा ने अपनी खटिया ख़ाली कर दी, पर मैं वहाँ रहना नहीं चाहता था। ऊँट लेकर अपने डेरे चल दिया।

नींद ग़ायब है, अरब सागर के जल से सन्नी शीतल हवा सुख दे रही है और मनोद्वेग को दूर धकेल रही है। तारों से नभ टिमटिमा रहा और कुछ दूर हवा से अठखेलियाँ करता नीम ग़ज़ब का महक रहा है। बाक़ी सब कुछ शांत है, सिर्फ़ हवा और पेड़ों की सरसराहट है। शीतल हवा मचान पर लेटी पड़ी मेरे नग्न देह को हल्के स्पर्श से सहला रही है। नीमोज़र की गँध नस-नस में प्रवेश कर पूरी देह को बहका-बहला रही है। लंबे समय बाद स्पर्श और गंध को महसूस किया था। मैं काम-भावना से भर गया। पर रति-क्रीड़ा किसके साथ खेलता? रात्रि चाँद का पड़खा सेव रही थी, बाक़ी स्त्रियाँ अपने-अपने पुरुषों के अंगों से सटी-लगी हुईं होंगी। मेरी स्त्री कहाँ? मेरी बदनसीबी तो देखिए कि इस मादक रात में भी अकेला हूँ… और इस अफ़सोस के विष को गटक रहा हूँ कि मेरी कोई स्त्री नहीं!

जारी…

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