इच्छाएँ जब विस्तृत हो उठती हैं, आकाश बन जाती हैं
मैं उन दुखों की तरफ़ लौटती रही हूँ जिनके पीछे-पीछे सुख के लौट आने की उम्मीद बँधी होती है। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे समंदर का भार कछुओं ने अपनी पीठ पर उठा रखा हो और मछली के रोने से एक नदी फूट पड़ेगी—सागर में।
By मृगतृष्णा
मार्च 11, 2021