मैं लेखकों की तरह नहीं लिख सकता
यात्रा का कोई सिरा नहीं होता, जैसे जीवन का—यह बात उस समय और अधिक साफ़ हो जाती है, जब हम उन रास्तों से गुज़रते हैं, जो देहरादून के पहाड़ों के बदन को चीर कर बनाए गए हैं। ये रास्ते पहाड़ों की नस जान पड़ते हैं और उन पर रेंगने वाली दुनिया—उन नसों में दौड़ता ख़ून। यहाँ चारों दिशाएँ एक दिशा की तरफ़ जाती हुई प्रतीत होती हैं। कहीं खड़े हो जाओ तो समूची प्रकृति आपके मुक़ाबले में खड़ी नज़र आती है और मन में कोई आतंक-सा जन्म लेता है—ख़ुद को ‘एलियनेट’ पाने का आतंक।