बिखरने के ठीक पहले
अकेले रहने की आदत किसी नशे की तरह है। आस-पास लोग होते हैं तो अपना स्व छिलके की तरह उघड़ जाता है। फ़िट न हो पाने की कशिश आत्मा को बीमार करती है।
अकेले रहने की आदत किसी नशे की तरह है। आस-पास लोग होते हैं तो अपना स्व छिलके की तरह उघड़ जाता है। फ़िट न हो पाने की कशिश आत्मा को बीमार करती है।
‘‘मनहूसियत का काम मत करो।’’—नानी ने जिन शब्दों में कहा था, उसके पीछे की भावना मैं बरसों खोजता रहा। नहीं मिली। न तो वो क्रोध था, न क्षोभ, न पीड़ा, न सलाह, न तंज़, न हँसी।
शराबियों को एक ‘अस्मितामूलक’ इकाई/क़ौम (आइडेंटिटी) के रूप में देखना चाहिए कि नहीं? सुनने में यह अतिरंजित लग सकता है, लेकिन क्रूर सच्चाइयाँ अक्सर ही अतिरंजित लगती हैं।
गए दिन जैसे गुज़रे हैं उन्हें भयानक कहूँ या उस भयावहता का साक्षात्कार, जिसका एक अंश मुझ-से मुझ-तक होकर गुज़रा है। चोर घात लगाए बैठा था और हम शिकार होने को अभिशप्त थे। जैसे धीरे-धीरे हम उसकी ज़द में समा रहे थे, असंख्य डर हमारे सामने रील की तरह आते जा रहे थे। ज़िंदगी को जैसे किसी ने रिवाइंड बटन पर लगा दिया हो, एक-एक कर दृश्य या तो स्थिर हो रहे थे या पीछे की ओर बढ़ रहे थे।
महामारी के दौरान दो सबसे दृश्य पक्ष—एक संवाहक या कैरियर (जैसे कोविड कैरियर) और दूसरी संवहन पुलिस (जैसे पुलिस) है। ये दोनों एक दूसरे की उपस्थिति सुनिश्चित करते हैं। ये दूसरे से अपना निजी अस्तित्व सुनिश्चित करते हैं।
कला कैलेंडर की चीज़ नहीं है। वह कलाकार की अपनी बहुत निजी चीज़ है। जितनी ही अधिक वह उसकी अपनी निजी है, उतनी ही कालांतर में वह औरों की भी हो सकती है—अगर वह सच्ची है, कला-पक्ष और भाव-पक्ष दोनों ओर से। वह ‘अपने-आप’ प्रकाशित होगी। और कवि के लिए वह सदैव कहीं न कहीं प्रकाशित है—अगर वह सच्ची कला है, पुष्ट कला है।
मुझे बचपन से ही करौली की धर्मशालाओं और अपने शहर की महिला कॉलेजों में कोई ज़्यादा फ़र्क़ समझ में नहीं आया। मुझे लगता रहा कि धर्मशालाओं की तरह ये कॉलेज भी धर्मार्थ ही खुलवा दिए गए थे, जिनसे कोई भी उम्मीद रखना गुनाह-ए-अज़ीम-सा था
कबीर की पिछली जयंती पर कबीरचौरा मठ ने हमेशा की तरह बनारस में एक धड़कता हुआ आयोजन किया था, जिसमें और चीज़ों के अलावा एक सत्र में कुछ अच्छी बातचीत भी हुई। यहाँ प्रस्तुत नोट्स उसी सत्र में लिए गए हैं।
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