इक्कीसवीं सदी की स्त्री-कविता : 2
वह दौर जब स्त्री-कवियों के नाम शुरू होते ही समाप्त हो जाते थे, अब विचार का अकादमिक विषय हो चुका है। अब हमारा सामना हिंदी कविता की एक बिल्कुल नई सृष्टि से है, जहाँ एक नई स्त्री है—अपनी बहुसंख्य अभिव्यक्तियों के साथ।
वह दौर जब स्त्री-कवियों के नाम शुरू होते ही समाप्त हो जाते थे, अब विचार का अकादमिक विषय हो चुका है। अब हमारा सामना हिंदी कविता की एक बिल्कुल नई सृष्टि से है, जहाँ एक नई स्त्री है—अपनी बहुसंख्य अभिव्यक्तियों के साथ।
हिंदी में उपस्थित स्त्री-कविता आजकल साहित्य-विमर्श के केंद्र में है। मेरे समीप इस करुणा कलित विमर्श में सुशीला सामद का नाम एक विकल रागिनी की भाँति बज रहा है। यह हाहाकार इस मायने में स्वाभाविक भी है कि सुशीला सामद एक छायावादी कवयित्री हैं, जिन्हें भारत की पहली हिंदी आदिवासी कवयित्री होने का गौरव प्राप्त है।
हिंदी में उपस्थित स्त्री-कविता का यह स्वर्णकाल है। इस संभव-साक्ष्य को पाने के लिए हमारी भाषा बेहद संघर्ष करती रही है। स्त्री कवियों की संख्या का विस्तार अब इस क़दर है कि उन्होंने पूरे काव्य-दृश्य को ही अपनी आभा से आच्छादित किया हुआ है।
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