‘यह दिमाग़ों के कूड़ाघर में तब्दील किए जाने का समय है’

हमें यह उदास स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अँधेरे में लालटेनें हैं। हमसे रास्ते रोशन नहीं होते किसी और के, हम अपनी विपथगामिता पर चौकसी करते चौकीदार भर हैं।

विलग उपस्थिति का ‘कभी-कभार’

एक ‘कभी-कभार-सा’ लिखने के मध्य में ही ‘अनुकरण की अधीरता’ पर उनके पाठ का अपना एक तात्पर्य क्यों न तलाश लिया जाए। हम कवि, नागरिक और मनुष्य के कर्तव्य बरतने की कुछ साझा पूर्व-शर्तें अपनी पीठों पर लादे रखें तो ‘कुछ खोजते हुए’ अचानक एक दिन एक किसी जगह पर क्यों नहीं मिल पड़ेंगे?

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