कमलेश्वर की लिखी एक दुर्लभ फ़िल्म
‘फिर भी’ कैमरे की मदद से रचा गया एक साहित्य है। नई कहानी के ज़रिए जिस तरह भारतीय मध्यवर्गीय जीवन के नए पहलू उद्घाटित हुए थे, वैचारिक खुलेपन को बयार चली थी… उसे काफ़ी हद तक इस फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है।
‘फिर भी’ कैमरे की मदद से रचा गया एक साहित्य है। नई कहानी के ज़रिए जिस तरह भारतीय मध्यवर्गीय जीवन के नए पहलू उद्घाटित हुए थे, वैचारिक खुलेपन को बयार चली थी… उसे काफ़ी हद तक इस फ़िल्म में महसूस किया जा सकता है।
उदय प्रकाश से संवाद एक मुश्किल काम है। उनकी शख़्सियत में ‘अनिश्चितता’ का अंडरटोन है। वह खुलते हैं तो बहुत सहज दिखते हैं, मगर कभी-कभी एक कठिन चुप्पी उन पर हावी हो जाती है।
मैंने क़रीब 17-18 साल की उम्र में जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा था तो हर पन्ने को पलटते हुए एक अजीब-सी बेचैनी मन में उठती जाती थी। गोरखपुर की लाइब्रेरी में बहुत-सी पुरानी दुर्लभ किताबों का ज़ख़ीरा था, जिसमें रेनॉल्ड्स की ‘लंदन रहस्य’ सीरीज़ और मोरिये की ‘रेबेका’ का हिंदी अनुवाद भी मौजूद था।
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