भाभी कॉम्प्लेक्स और कार्ल मार्क्स
हिंदी साहित्य में भाभी जिस रूप में उतरी है, उसमें सत्य से अधिक सुहावनापन है। आज भी पुरुष की बहुपत्नीक और स्त्री की बहुपति प्रवृत्तियाँ, जो तहज़ीब के नीचे से अब भी रिसती रहती हैं और साहित्यदानों में दिलबस्तगी पैदा करती आई हैं, उन्हीं की छानबीन में कहीं भाभी-प्रॉब्लम का भी संतोष मिल जाएगा। पर चूँकि विवाह का टेकनीक पेचीदा और गुट्ठल हो गया है और आर्थिक उलझन और पेचो-ताब ने ‘परिवार’ को एकबारगी जड़ से हिला दिया है, भाभी वहाँ से निकलकर हिंदी के बुतशिकन लेखकों का ‘टूल’ बन गई है।