जनवाद और साहित्य की तिजारत
आप अपने इर्द-गिर्द भी नज़र दौड़ाएँगे तो जनवाद और प्रगतिशीलता के नाम पर ‘अपनी तरक़्क़ी’ करने वाले असंख्य महारथी मिल जाएँगे।
आप अपने इर्द-गिर्द भी नज़र दौड़ाएँगे तो जनवाद और प्रगतिशीलता के नाम पर ‘अपनी तरक़्क़ी’ करने वाले असंख्य महारथी मिल जाएँगे।
हरे प्रकाश की कई कविताओं को पढ़कर कहीं-कहीं मुक्तिबोध और धूमिल की कविताई की याद भी आ जाती है। कुछ कविताओं में धूमिल जैसी ही छीलती-छेदती प्रश्नात्मकता, देश और समाज का गिरहबान पकड़कर उसकी आँखों में आँखें डालने वाला काव्य तेवर, रचनात्मक साहस दिखाई देता है।
‘‘मनहूसियत का काम मत करो।’’—नानी ने जिन शब्दों में कहा था, उसके पीछे की भावना मैं बरसों खोजता रहा। नहीं मिली। न तो वो क्रोध था, न क्षोभ, न पीड़ा, न सलाह, न तंज़, न हँसी।
यह एक बहुत बड़ा भ्रम है कि हिंदी संस्कृत से निकली और उर्दू का जन्म फ़ारसी भाषा से हुआ। सच तो यह है कि ये दोनों ही ज़बानें बोलचाल की मक़ामी ज़ुबान से निकलीं और विकसित होती चली गईं। हिंदी वहाँ से शुरू हुई जहाँ से संस्कृत ख़त्म होती है।
शराबियों को एक ‘अस्मितामूलक’ इकाई/क़ौम (आइडेंटिटी) के रूप में देखना चाहिए कि नहीं? सुनने में यह अतिरंजित लग सकता है, लेकिन क्रूर सच्चाइयाँ अक्सर ही अतिरंजित लगती हैं।
नई कहानी के दौर में पहली बार कहानी-आलोचना को एक गंभीर विषय के रूप में समझा गया। यह नई कहानी का ही दौर था, जब विभिन्न काव्य-आंदोलनों की तरह कहानी की रचना और पाठ की प्रक्रिया पर गंभीर ‘वाद-विवाद और संवाद’ हुआ। नई कहानी के दौर के बाद कहानी-आलोचना एक बार फिर से हाशिए पर चली गई। कमोबेश यह स्थिति आज भी विद्यमान है।
‘हिंदी साहित्य कहाँ से शुरू करें?’ यह प्रश्न कोई भी कर सकता है, बशर्ते वह हिंदी भाषा और उसके साहित्य में दिलचस्पी रखता हो; लेकिन प्राय: यह प्रश्न किशोरों और नवयुवकों की तरफ़ से ही आता है। यहाँ इस प्रश्न का उत्तर कुछ क़दर देने की कोशिश की गई है कि जब भी कोई पूछे : ‘हिंदी साहित्य कहाँ से शुरू करें?’ आप कह सकें : ‘हिंदी साहित्य यहाँ से शुरू करें’ :
उत्तर प्रदेश में एक जगह है बनारस, जिसके इंचार्ज हैं—भगवान शंकर। यहाँ बनारस में भूत भावन भगवान भोलेनाथ ने अपना एक एग्जीक्यूटिव या कहें एक एजेंट छोड़ रखा है, नाम है—पंडित छन्नूलाल मिश्र।
महामारी के दौरान दो सबसे दृश्य पक्ष—एक संवाहक या कैरियर (जैसे कोविड कैरियर) और दूसरी संवहन पुलिस (जैसे पुलिस) है। ये दोनों एक दूसरे की उपस्थिति सुनिश्चित करते हैं। ये दूसरे से अपना निजी अस्तित्व सुनिश्चित करते हैं।
शंख घोष ने अपने नाम के बिल्कुल उलट जाकर अपने कविता-संसार में मौन को प्रमुखता दी है। वह शोर के प्रति निर्विकार और उससे निश्चिंत रहे आए। यह कृत्य उनके लिए एक बेहतर मनुष्य बनने की प्रक्रिया-सा रहा।
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