वायरल से कविता का तापमान नापने वालों के लिए

यह पुस्तक विधिवत् लिखी गई पुस्तक नहीं है। यह पिछले छह दशकों से अशोक वाजपेयी के द्वारा कविता के बारे में समय-समय पर जो सोचा-गुना-लिखा गया, उसका पीयूष दईया द्वारा सुरुचि और सावधानी से किया गया संचयन है।

‘भाषा से प्रेम अब कम हुआ है’

इस संसार में—साहित्य और कलाओं के संसार में—एक बहुत सक्रिय और संपन्न आयु जी चुके अशोक वाजपेयी के साक्षात्कारों की हिंदी में कोई कमी नहीं है। वे पुस्तकों के रूप में, संकलनों और पत्रिकाओं में हद से ज़्यादा फैले हुए हैं। बावजूद इसके उनसे बात करने की आकांक्षाएँ बराबर बनी हुई हैं—तमाम असहमतियों के रहते। इस प्रकार के व्यक्तित्व हिंदी के सांस्कृतिक इलाक़े में पहले भी कम ही थे, अब भी कम ही हैं और लगातार कम होते जा रहे हैं।

‘यह दिमाग़ों के कूड़ाघर में तब्दील किए जाने का समय है’

हमें यह उदास स्वीकार कर लेना चाहिए कि हम अँधेरे में लालटेनें हैं। हमसे रास्ते रोशन नहीं होते किसी और के, हम अपनी विपथगामिता पर चौकसी करते चौकीदार भर हैं।

विलग उपस्थिति का ‘कभी-कभार’

एक ‘कभी-कभार-सा’ लिखने के मध्य में ही ‘अनुकरण की अधीरता’ पर उनके पाठ का अपना एक तात्पर्य क्यों न तलाश लिया जाए। हम कवि, नागरिक और मनुष्य के कर्तव्य बरतने की कुछ साझा पूर्व-शर्तें अपनी पीठों पर लादे रखें तो ‘कुछ खोजते हुए’ अचानक एक दिन एक किसी जगह पर क्यों नहीं मिल पड़ेंगे?

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