तिहत्तर वर्ष के देश में बहत्तर वर्ष का कवि

तिहत्तर वर्ष के देश में बहत्तर वर्ष का कवि

मंगलेश डबराल की समग्र कविता के बारे में जब ख़ुद से सवाल पूछती हूँ कि यह इतनी असरदार क्यों है तो एक जवाब यह मिलता है कि यह कवि निडर और निःशस्त्र होकर ख़ुद पर जीवन का असर पड़ने देता था…

मृतकों का अपना जीवन है

कविता में कभी अच्छा मनुष्य दिख जाता है या कभी अच्छे मनुष्य में कविता दिख जाती है। कभी-कभी एक के भीतर दोनों ही दिख जाते हैं। यही एक बड़ा प्रतिकार है। और अगर यह ऐसा युग है, जब कविता में बुरा मनुष्य भी दिख रहा है तब तो कविता में अच्छा मनुष्य और भी ज़्यादा दिखेगा।

वक़्त की विडम्बना में कविता की तरह

कवि आत्मकथा कम ही लिखते हैं। उनकी जीवनियाँ भी कम ही लिखी जाती हैं। मंगलेश डबराल (1948-2020) ने भी आत्मकथा नहीं लिखी। लेकिन उनके गद्य के आत्मपरक अंश और उनके साक्षात्कारों को एक तरफ़ करके, अगर हम उनकी पूरी ज़िंदगी और जीवन-मूल्यों को जानते-समझते हुए उनके कविता-संसार में प्रवेश करें; तब हम पाएँगे कि मंगलेश डबराल ने आत्मकथा लिखी है।

‘हँसो पर चुटकुलों से बचो, उनमें शब्द हैं’

जो लोग इस भ्रम में पड़े रहते हैं कि वे सुरक्षित हैं क्योंकि वे किसी मान्यता का पक्ष नहीं ले रहे, किसी का विरोध नहीं कर रहे, उनका पक्ष-विपक्ष नहीं है और उनका कोई अपना विचार नहीं है, वे समृद्धि की कल्पना में खोए हुए हैं।

र. स. के लिए

हिंदी साहित्य में दिसम्बर र. स. का महीना है। र. स. यानी रघुवीर सहाय। वह 1929 में 9 दिसम्बर को जन्मे और 1990 में 30 दिसम्बर को नहीं रहे। आज अगर वह सदेह हमारे बीच होते तब नब्बे बरस से अधिक आयु के होते, लेकिन जैसा कि ज़ाहिर है तीस बरस पहले ही उनका देहांत हो गया।

प्यास के भीतर प्यास

विजयदेव नारायण साही के आलोचक-व्यक्तित्व की कहानी यहाँ नहीं, भदोही से सुनी जानी चाहिए। समाजवादी आंदोलन, क़ालीन मज़दूरों के संगठन, सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलनों और शिक्षण-शिविरों के ज़रिए सक्रिय राजनीतिक कर्म की प्रत्यक्षता ने उन्हें ऐसा आत्मविश्वास दिया कि वह आलोचना को राजनीति से स्वायत्त कर सके।

जो हमें प्यारा लगता है

नवीन सागर (1948-2000) हिंदी के अत्यंत महत्त्वपूर्ण कवि-कथाकार हैं। यहाँ प्रस्तुत पत्र उन्होंने अपने पुत्र अनिरुद्ध सागर को 28 अक्टूबर 1996 को भोपाल से लिखा था। अनिरुद्ध उन दिनों (1995-96) दिल्ली में सेरेमिक कलाकार पांडू रंगैया दरोज़ के पास बतौर प्रशिक्षु काम कर रहे थे। अनिरुद्ध अभी दिल्ली में ही रहते हैं और सिरेमिक माध्यम में ही काम कर रहे हैं।

एक बड़ा फ़ुटबॉलर नहीं रहा

यह हमारे एक हिस्से का माराडोना है। ये क़िस्से हमारे एक हिस्से के माराडोना की श्रद्धांजलि के इस्तेमाल के लिए हैं।

‘लेकिन’, ‘शायद’, ‘अगर’ नहीं…

कोई जिया नहीं पकी हुई फसलों की मृत्यु…

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