गांधीजी और उनकी वसीयत

बापू अचानक दिवंगत हो गए—‘राम’ को छोड़कर अंतिम समय और कुछ नहीं कह गए। जिन्हें राजगद्दी लेनी थी, उन्होंने तो ले ली; लेकिन उनके दूसरे सपूत भी इस बीच गले के ज़ोर से सिद्ध करते रहे कि बापू के सच्चे उत्तराधिकारी हमीं हैं। शायद ही कोई राजनीतिक दल इस उत्तराधिकार से बचा हो। अब तक तो ‘राम नाम की लूट है, लूट सके सो लूट’ वाली हालत थी। अंत काल तक पछताने के लिए कोई नहीं रहा। लेकिन आज के अख़बार में जब यह ख़बर मैंने देखी तो दंग रह गया—‘‘सरकार चुनाव-बिल पास करके आगामी चुनाव में गांधीजी के नाम का उपयोग अनैतिक घोषित करने जा रही है।’’

कविता सीढ़ियों नहीं, छलाँगों की राह है

कविता अगर यह व्रत ले ले कि वह केवल शुद्ध होकर जिएगी, तो उस व्रत का प्रभाव कविता के अर्थ पर भी पड़ेगा, कवि की सामाजिक स्थिति पर भी पड़ेगा, साहित्य के प्रयोजन पर भी पड़ेगा।

दो दीमकें लो, एक पंख दो

हमारी भाषा में कहानी ने एक बहुत लंबा सफ़र तय किया है। जो कहानियों के नियमित पाठक हैं, जानते हैं कि पिछले कुछ वर्षों में हिंदी में कहानी का जैसे पुनर्जन्म हुआ है। हिंदी की कहानी अब विश्वस्तरीय है और इतनी विविधता उसमें है कि जो पाना चाहें वह आज की कहानियों में मिल सकता है—कहन का अनूठा अंदाज़, दृश्यों का रचाव, कहानी का नैसर्गिक ताना-बाना, सधा हुआ, संतुलित, निर्दोष शिल्प और इन सबके संग जीवन की एक मर्मी आलोचना।

सत्य की व्याख्या साहित्य की निष्ठा है

मेरे हृदय और मस्तिष्क में भावों और विचारों की जो आधी शताब्दी की अर्जित प्रज्ञा-पूँजी थी, उस सबको मैंने ‘वयं रक्षामः’ में झोंक दिया है। अब मेरे पास कुछ नहीं है। लुटा-पिटा-सा, ठगा-सा श्रांत-क्लांत बैठा हूँ। चाहता हूँ—अब विश्राम मिले। चिर न सही, अचिर ही। परंतु यह हवा में उड़ने का युग है।

‘मुझे सुलझे विचारों ने बार-बार मारा है’

हरिशंकर परसाई (1924–1995) का रचना-संसार समुद्र की तरह है, यह कहते हुए समादृत कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन ने इसमें यह भी जोड़ा है कि यह कभी घटने वाला संसार नहीं है। भारतीय समय में अगस्त का महत्त्व कुछ अविस्मरणीय घटनाओं की वजह से बहुत है। इस महीने में ही भारत स्वतंत्र हुआ और इस महीने में ही स्वतंत्र भारत के एक असली चेहरे हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ और मृत्यु भी। यहाँ हम उनके रचना-संसार से उनकी कहन का एक चयन प्रस्तुत कर रहे हैं :

यह भूमि माता है, मैं पृथिवी का पुत्र हूँ

आज लोक और लेखक के बीच में गहरी खाई बन गई है, उसको किस तरह पाटना चाहिए; इस पर सब साहित्यकारों को पृथक-पृथक और संघ में बैठकर विचार करना आवश्यक है।

एक कवि और कर ही क्या सकता है

एक अलग रास्ता पकड़ने वाले वीरेन डंगवाल (1947–2015) की आज जन्मतिथि है। हिंदी की आठवें दशक की कविता ने स्वयं को कहाँ पर रोका यह समझना हो तो मंगलेश डबराल को पढ़िए और वह कहाँ तक जा सकती थी यह समझना हो तो वीरेन डंगवाल को।

डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूँगा हो जाता है

प्रेमचंद (1880–1936) हिंदी-उर्दू एकता के हामी अप्रतिम भारतीय कथाकार हैं। यहाँ प्रस्तुत हैं उनके वृहत रचना-संसार से चुने गए उद्धरण…

रचना की महानता से ही आलोचना महान होती है

आज भी आलोचना, आलोचना के प्रत्ययों, अवधारणाओं और पारंपरिक भाषा से इतनी जकड़ी हुई है कि वह नई बन ही नहीं सकती।

जीवन का पैसेंजर सफ़र

यह नब्बे के दशक की बात है। 1994-95 के आस-पास की। हम राजस्थान विश्वविद्यालय में पढ़ा करते थे। साहित्य में रुचि रखने वाले हम कुछ दोस्तों का एक समूह जैसा बन गया था। इस समूह को हमने ‘वितान’ नाम दिया था।

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