यह भूमि माता है, मैं पृथिवी का पुत्र हूँ

आज लोक और लेखक के बीच में गहरी खाई बन गई है, उसको किस तरह पाटना चाहिए; इस पर सब साहित्यकारों को पृथक-पृथक और संघ में बैठकर विचार करना आवश्यक है।

एक कवि और कर ही क्या सकता है

एक अलग रास्ता पकड़ने वाले वीरेन डंगवाल (1947–2015) की आज जन्मतिथि है। हिंदी की आठवें दशक की कविता ने स्वयं को कहाँ पर रोका यह समझना हो तो मंगलेश डबराल को पढ़िए और वह कहाँ तक जा सकती थी यह समझना हो तो वीरेन डंगवाल को।

उर्दू सीखने की तमन्ना है तुम्हें, अभी सीन में RULG के सिवा कुछ भी नहीं

उर्दू समय के साथ-साथ हिन्दवी, ज़बान-ए-हिंद, गुजरी, दक्कनी, ज़बान-ए-दिल्ली, ज़बान-ए-उर्दू-ए-मुअल्ला, हिंदुस्तानी और रेख़्ता जैसे नामों से भी जानी-पहचानी गई। व्याकरण और ध्वनि में हिंदी से बहुत निकटता रखने वाली उर्दू का शब्द-संसार अरबी, फ़ारसी, तुर्की, ब्रज और संस्कृत से समृद्ध हुआ है।

कवि चंदबरदाई और उनका ‘पृथ्वीराज रासो’

इतिहास की तारीख़ के हिसाब से देखा जाए तो कवि चंदबरदाई को हिंदी का पहला कवि और उनकी रचना ‘पृथ्वीराज रासो’ को हिंदी की पहली रचना होने की इज़्ज़त बख़्शी गई है।

हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के अप्रतिम आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि हैं। शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य को जिस तरह प्रस्तुत किया, उस तरह आज तक शायद ही कोई दूसरा कर पाया।

हिंदी का पहला मुसलमान कवि

अब्दुल रहमान के ‘संदेश रासक’ में 12वीं सदी के भारतीय जीवन की एक पूरी तस्वीर दिखती है। वह मुल्तान में पैदा हुए, फिर उत्तर भारत आ गए। अपने काव्य में वह अन्य हिंदुओं की तरह मुल्तान को ‘मलेच्छ देश’ कहते हैं, क्योंकि वहाँ मुसलमानों का क़ब्ज़ा बहुत पहले हो चुका था

पढ़ने-लिखने के वे ज़माने

जहाँ से मुझे अपना बचपन याद आता है, लगभग चार-पाँच साल से, तब से एक बात बहुत शिद्दत से याद आती है कि मुझे पढ़ने का बहुत शौक़ हुआ करता था। कुछ समय तक जब गाँव की पाठशाला में पढ़ता था, पिताजी जब भी गाँव आते तो गीताप्रेस गोरखपुर की कुछ किताबें लिए आते थे, जैसे : ‘सच्चे और ईमानदार बालक’, ‘सत्यकाम जाबाल’, ‘चोखी कहानियाँ’ आदि।

अपभ्रंश का दौर

हिंदी को हमेशा हिंदुस्तानियों से जोड़कर देखा गया है, जिसे बोलने वाले मुसलमान भी थे, हिंदू भी और पारसी भी। इस तरह देखें तो हिंदी का किसी दीन या मज़हब से कुछ लेना-देना नहीं था।

एक मुकम्मल तस्वीर का सफ़र

साल 2019 की फ़्रांसीसी फ़िल्म ‘पोर्ट्रेट ऑफ़ ए लेडी ऑन फ़ायर’ इस सदी की उन चुनिंदा फ़िल्मों में से एक है, जिनका ज़िक्र ज़रूरी है। इस फ़िल्म की सबसे ख़ूबसूरत बात यह है कि आप कोई भी कोण, कोई भी दृश्य या कोई भी स्पॉट उठा लें; यह फ़िल्म ज़ेहन पर चित्रकारी-सा नक़्श उभारती है। इस फ़िल्म को कान फ़िल्म समारोह में 2019 की सर्वश्रेष्ठ पटकथा के सम्मान से नावाज़ा गया। इसके साथ ही सेलीन सियम्मा को यूरोपीय फ़िल्म समारोह में 2019 की सर्वश्रेष्ठ पटकथा लेखक का पुरस्कार दिया गया।

पुरानी उदासियों का पुकारू नाम

एक साहित्यिक मित्र ने अनौपचारिक बातचीत में पूछा कि आप महेश वर्मा के बारे में क्या सोचते हैं? मेरे लिए महेश वर्मा के काव्य-प्रभाव को साफ़-साफ़ बता पाना कठिन था, लेकिन जो चुप लगा जाए वह समीक्षक क्या! मैंने कहा कि मुझे लगता है : पीछे छूट चुकी धुँधली-सी चीज़, वह कुछ भी हो सकती है; छाता हो सकता है, पिता, टार्च या किसी निष्कवच क्षण की कोई नितांत मौलिक परंतु निरर्थक अनुभूति हो सकती है… वह उन्हें अश्रव्य आवाज़ में पुकारती है—हे… महेश! और महेश चौंक पड़ते हैं।

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