मन एक डिस्ग्राफ़िया ग्रस्त बच्चे की हैंडराइटिंग है

चीज़ों को बुरी तरह टालने की बीमारी पनप गई है। एक पल को कुछ सोचती हूँ, अगले ही पल एक अदृश्य रबर से उसे जल्दबाज़ी से मिटाते हुए बीच में ही छोड़कर दूसरी कोई बात सोचने लगती हूँ। इन दिनों काम है कि लकड़ियों के गट्ठर की तरह सिर पर चढ़ता जा रहा है, एक-पर-एक, इतना काम इकट्ठा हो गया है, जिन्हें निपटाने का रत्ती भर भी मन नहीं होता।

दुश्मनी जम कर करो लेकिन…

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह टिप्पणी मैंने जनवादी लेखक संघ के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उस किताब के संकलनकर्ताओं द्वारा की गई विसंगतियों को लेकर की है। मैंने व्यक्तिगत रूप से अपने विचार व्यक्त किए हैं, न कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में।

माचो दोस्तों के बारे में

उन्होंने समय-समय पर हम पर इतने उपकार किए हैं कि उनकी चर्चा चलने पर हम चुप रहते हैं। हम उनकी तारीफ़ तो कर सकते हैं, बुराई नहीं कर सकते। हम उनकी बुराई करना तो दूर, सुन भी नहीं सकते।

जनवाद और साहित्य की तिजारत

आप अपने इर्द-गिर्द भी नज़र दौड़ाएँगे तो जनवाद और प्रगतिशीलता के नाम पर ‘अपनी तरक़्क़ी’ करने वाले असंख्य महारथी मिल जाएँगे।

कभी-कभी लगता है कि गोविंदा भी कवि है

गोविंदा ऐसा नहीं था, क्योंकि उसका दौर ऐसा नहीं था। आप अपने दौर के असर से बच नहीं सकते। उसकी अच्छाइयाँ आपको गढ़ती हैं और बुराइयाँ भी। यह इस प्रकार होता है कि बहुत सजगताएँ भी इसे बेहद देर से जान पाती हैं।

उजाले के लिए

जीवन इतना जटिल कभी नहीं था। अभी तक मन उदास था। अब जीवन उदास लगता है। अंजान दुःख घेरे हुए हैं—जैसे : किसी ने एक जगह खड़ा करके बॉक्स से ढक दिया है, और उस बॉक्स पर बड़ा-सा पत्थर रखकर भूल गया है।

बिखरने के ठीक पहले

अकेले रहने की आदत किसी नशे की तरह है। आस-पास लोग होते हैं तो अपना स्व छिलके की तरह उघड़ जाता है। फ़िट न हो पाने की कशिश आत्मा को बीमार करती है।

मेरा संपूर्ण जीवन इच्छा का मात्र एक क्षण है

हम नफ़रत करते हुए भी, प्यार करते हैं। हम प्यार करते हुए भी सच को, गंदगी को, अँधेरे को, पाप को भूल नहीं पाते हैं। कविता हमारे लिए भावनाओं का मायाजाल नहीं है। जिनके लिए कविता ऐसी थी, वे लोग बीत चुके हैं।

दूसरी लहर के साये में

आज सुबह चार बजे ही उठ गया। बादल हैं, हल्का-हल्का उजाला हो रहा है। द्वार पर लगे बेल के पेड़ पर किसी चिड़िया ने घोंसला बनाया है। वह चहचहा रही है। उसके बच्चे भी हैं। माँ और शिशुओं की आवाज़ आपस में मिल जाती है। बाईं बाँह में वहाँ हल्का-सा दर्द हो रहा है, जहाँ कल टीका लगा था।

उत्साह में व्यवस्था की परवाह नहीं होती

जब कोई लेखक लिखता है कि ‘वह गली को पड़ोसी नहीं कह सकता’ तब स्पष्ट लगता है कि वह कविता का मुहावरा चुराकर बोल रहा है। जासूस आलोचक के लिए यहाँ काफ़ी मसाला है, वह कहानी के ऐसे मुहावरों की जासूसी करता हुआ असली अपराधी की खोज कर सकता है।

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