आओ पहल करें

‘पहल’ नहीं रही। हिंदीसाहित्यसंसार में शोक की लहर है। मन मानने को राज़ी नहीं हो रहे हैं कि ‘पहल’ अब नहीं है, क्योंकि वह पहले भी एक बार अपनी राख से पुनर्जीवित हो चुकी है।

लिखने ने मुझे मेरी याददाश्त दी

मेरे नाना लेखक बनना चाहते थे। वह दसवीं तक पढ़े और फिर बैलों की पूँछ उमेठने लगे। उन्होंने एक उपन्यास लिखा, जिसकी कहानी अब उन्हें भी याद नहीं। हमने मिलकर उसे खोजना चाहा, वह नहीं मिला। पता नहीं वह किसी संदूक़ का लोहा बन गया या गृहस्थी की नींव।

हमने चाहा था एक देश

समाज में उत्पन्न त्रुटियों का बड़ा ही वैज्ञानिक विकास हुआ है और इसे समझ लेने पर ही हम अपनी ओर से अपने मानव बंधुओं की मानसिकता को समझने में कामयाब हो सकते हैं, क्योंकि हमारी बुर्जुआ व्यवस्था हमें इस आर्थिक तंगी से निकाल नहीं सकती; इसीलिए इसे कोई हक़ नहीं है कि अपनी राजनैतिक व्यवस्था क़ायम रखे।

दिन के सारे काम रात में गठरी की तरह दिखते हैं

चीज़ें रहस्यमय हो जाएँ तो पूजनीय होने में उन्हें वक़्त नहीं लगता। पूरा शहर एक अबूझ दृश्यजाल में बदल रहा था—रहस्यमय दृश्यजाल जो रिल्के की कविताओं में और थॉमस मान के उपन्यास में मिलता है।

जब सन्नाटा छा गया पाश की कविता से

9 सितंबर 1950 को तलवंडी सलेम, ज़िला जालंधर में जन्मे थे अवतार सिंह संधू। मगर पाश का जन्म हुआ था 1967 के नक्सलबाड़ी के किसान उभार से। खेतों के इस बेटे ने खेतों और कविताओं दोनों जगह अपना लहू और पसीना बहाया था।

मलयज की स्त्री-दृष्टि

संसार का बहुत सारा गद्य इस प्रकार प्रारंभ होता रहा है कि उसके पहले वाक्य में ही मौसम और समय प्रकट हो जाएँ। यह गद्य से गुज़र रहे व्यक्तित्व को एक तय प्रभाव में बाँधने का एक बहुत रूढ़ नुस्ख़ा है।

कविता से वही माँग करें, जो वह दे सकती है

मेरी आधुनिकता की एक चिंता यह है कि उसमें लालमोहर कहाँ है? मेरी बस्ती के आख़िरी छोर पर रहने वाला लालमोहर वह जीती-जागती सचाई है, जिसकी नीरंध्र निरक्षरता और अज्ञान के आगे मुझे अपनी अर्जित आधुनिकता कई बार विडम्बनापूर्ण लगने लगती है।

काग़ज़ केवल शब्द लिखने के लिए नहीं बना है

कम बोलना चाहिए। ऐसा इसलिए कि कविता में बोले जाने की बात को ‘कह’ देने की गुंजाइश बनी रहती हैं।

‘कोई भी कवि जन्म से ही कवि होता है’

कविता में हम तो वही विचार, वही अर्थ, वही भाव लिखते हैं जो हम लिखना चाहते हैं, जो हमारे मन में हैं, जो हमें उस वक़्त जकड़े हुए हैं? लेकिन यह बात सही नहीं है। कोई नादान कवि या पाठक ही ऐसी बात कर सकता है।

सूक्ष्मता से देखना और पहचानना

साहित्यकार को चाहिए कि वह अपने परिवेश को संपूर्णता और ईमानदारी से जिए। वह अपने परिवेश से हार्दिक प्रेम रखे, क्योंकि इसी के द्वारा वह अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ खाद प्राप्त करता है।

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