फूँक-फूँक कर लिखी गई एक किताब
मुझे होश तब आया जब सामने की गाड़ी में हरकत हुई और दृश्य आगे बढ़ने लग गया। मैं वक़्त में अभी ठहरने ही पाई थी कि जाम घुटनों के बल सरकने लगा। यह धोखा था। पर नहीं भी था।
मुझे होश तब आया जब सामने की गाड़ी में हरकत हुई और दृश्य आगे बढ़ने लग गया। मैं वक़्त में अभी ठहरने ही पाई थी कि जाम घुटनों के बल सरकने लगा। यह धोखा था। पर नहीं भी था।
सम्बन्धों के बिना मानव जीवन कितना शांत और सरल है। लेकिन ऐसी शांति और सरलता किस काम की जिसमें मानव किसी से दो बातें न कह सके। किसी के ऊपर चिल्ला न सके। उससे झगड़ न सके। झापड़ न मार सके या बदले में उससे झापड़ न खा सके। और अगले ही क्षण उसे प्रेम न कर सके।
यह अनुभूतियों का अनात्मवाद है। कोई कल्पनाशील व्यक्ति कैसे कह सकता है कि अनंत और विस्मय से घिरी हुई सब्ज़-ओ-शादाब पृथ्वी एक विराट वृक्ष नहीं है? कहना न होगा कि सृष्टि-वृक्ष की यह उदात्त कल्पना हमारी परंपरा में रही आई है।
भाषा और दृश्य के संबंधों पर विचार करते हुए मुझे एक बार विचित्र क़िस्म की अनुभूति हुई। मुझे लिखे हुए शब्द रेखाचित्र से दिखने लगे। ‘हाथी’ लिखे हुए शब्द में ‘ह’ और ‘थ’ दिखने की बजाय मुझे एक समूचे हाथी का चित्र दिखने लगा। मैंने अपने एक मित्र से पूछा कि भाषा और चित्रकला में क्या भेद है?
हिंदी समाज में किसी बड़े साहित्यकार की मृत्यु के बाद उन्हें कम से कम पाँच पद्धतियों से याद किया जाता है। औपचारिक स्मरण के अलावा बहुत से लोग अत्यंत विनम्र और सदाशय होकर उनकी महानता को याद करते हैं और इसे एक बड़ी क्षति के रूप में देखते हैं।
साल 2019 के आख़िरी महीने में दृश्य में आई कोरोना महामारी ने गत वर्ष सारे संसार को प्रभावित और विचलित किया। साहित्य का संसार भी इस आपदा से अछूता नहीं रहा। संसार की कई भाषाओं में इस दरमियान कोरोना-केंद्रित साहित्य रचा गया।
वीरू सोनकर के पास कविता में घूरकर देखने का ‘हुनर’ भले कम हो, साहस की कमी नहीं है। यह साहस ही इस कवि के लिए कविता में संभावनाएँ और दुर्घटनाएँ लेकर आता है। उसके भीतर का ग़ुस्सा संग्रह की तमाम कविताओं में मद्धम-मुखर दिखाई पड़ेगा।
एक ‘कभी-कभार-सा’ लिखने के मध्य में ही ‘अनुकरण की अधीरता’ पर उनके पाठ का अपना एक तात्पर्य क्यों न तलाश लिया जाए। हम कवि, नागरिक और मनुष्य के कर्तव्य बरतने की कुछ साझा पूर्व-शर्तें अपनी पीठों पर लादे रखें तो ‘कुछ खोजते हुए’ अचानक एक दिन एक किसी जगह पर क्यों नहीं मिल पड़ेंगे?
क्या लिखते हुए हम चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारते हैं? चाहे गद्य हो या कविता—यह प्रश्न आत्ममंथन की माँग करता है। साहित्य में शब्द की ‘सत्ता’ और उसकी ‘संज्ञा’ की बराबर भूमिका होती है।
किम की डुक का सिनेमा सही मायनों में और मुख्यत: वीभत्स रस का सिनेमा है। इस निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए दर्शक को किसी ख़ास सिनेमाई समझ की ज़रूरत नहीं।
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