निर्वासितों का जनपद

हिंदी कविता में बहुत से राजकुमार आते हैं। थोड़ी देर स्तुति, संस्तुति, सम्मान के आलोकवृत्त में चमकते हैं। भ्रमवश इस चौंध को अपना आत्मप्रकाश समझ लेते हैं। परंतु हिंदी कविता के पाठक बहुत बेवफ़ा हैं। कुछ दिनों तक यह सब देखते हैं, और कविता न मिलने पर छोड़ जाते हैं।

‘दिव्य क़ैदख़ाने में’ रंजनदास

जीवन स्थितियाँ जितनी त्रासद होती जाती है, ‘फ़ील गुड’ और ‘ऑल इज़ वेल’ का मंत्र-पाठ उतना ही तीव्र होता जाता है। ऐसे में रोंडा बर्न्स, शिव खेड़ा, संदीप माहेश्वरी जैसे महर्षि पैदा होते हैं और ‘लॉ ऑफ़ अट्रेक्शन’ का ज्ञान देते हैं!

‘तथता’ के रास्ते ‘इयत्ता’ की खोज

यह कथा अलग-अलग तरीक़ों से सुनाई जाती रही है। तरह-तरह के विद्वानों ने इस कथा के श्रोत/तों की ओर इशारा किया है, पर हमारे सामने सवाल इस कथा की अनुवांशिकी खोजने का नहीं है। सवाल यह है कि एक कथा कविता में कैसे बदलती है? क्यों बदलती है?

उदासी जिनकी मातृभाषा है

कविताओं का सौंदर्यात्मक उद्भास दुनिया से हमारे नए संबंध-संयोजन को जन्म देता चलता है। अवलोकन बाह्य जगत के साथ अपनी अनुभूतियों और वृत्तियों का भी होता है। बाह्य जगत का अवलोकन फिर भी आसान है, आत्मावलोकन सबसे कठिन है। हम अपनी इच्छाओं की पूर्ति में ही इच्छाओं की सार्थकता समझते हैं।

कविता का आधुनिक रहस्य

यह अनुभूतियों का अनात्मवाद है। कोई कल्पनाशील व्यक्ति कैसे कह सकता है कि अनंत और विस्मय से घिरी हुई सब्ज़-ओ-शादाब पृथ्वी एक विराट वृक्ष नहीं है? कहना न होगा कि सृष्टि-वृक्ष की यह उदात्त कल्पना हमारी परंपरा में रही आई है।

पहचान की ज़मीन पर

वीरू सोनकर के पास कविता में घूरकर देखने का ‘हुनर’ भले कम हो, साहस की कमी नहीं है। यह साहस ही इस कवि के लिए कविता में संभावनाएँ और दुर्घटनाएँ लेकर आता है। उसके भीतर का ग़ुस्सा संग्रह की तमाम कविताओं में मद्धम-मुखर दिखाई पड़ेगा।

पुरुषों की दुनिया में स्त्री

मेरी समझ से हर पाठक की कविता से अपनी विशिष्ट अपेक्षाएँ होती हैं। ये अपेक्षाएँ कई बार बहुत मनोगत और अकथनीय भी हो सकती हैं। मैं आपकी तो नहीं कह सकता, लेकिन अपनी सुना सकता हूँ।

ख़ुशियों के गुप्तचर की दुनिया

इस संग्रह का काव्य-पुरुष यह मानता है कि कवि ईश्वर की कमियों और असमर्थताओं को पूरी करता है। वह कहता है कि ‘जिन सुंदरताओं को रचने में ईश्वर असमर्थ होता है उन्हें कवियों के भरोसे छोड़ देता है’। यह दृश्य या भौतिक दुनिया के बरअक्स, मनुष्य की विशिष्ट फ़ितरत, कल्पना की स्थापना है।

तिहत्तर वर्ष के देश में बहत्तर वर्ष का कवि

तिहत्तर वर्ष के देश में बहत्तर वर्ष का कवि

मंगलेश डबराल की समग्र कविता के बारे में जब ख़ुद से सवाल पूछती हूँ कि यह इतनी असरदार क्यों है तो एक जवाब यह मिलता है कि यह कवि निडर और निःशस्त्र होकर ख़ुद पर जीवन का असर पड़ने देता था…

प्यास के भीतर प्यास

विजयदेव नारायण साही के आलोचक-व्यक्तित्व की कहानी यहाँ नहीं, भदोही से सुनी जानी चाहिए। समाजवादी आंदोलन, क़ालीन मज़दूरों के संगठन, सोशलिस्ट पार्टी के सम्मेलनों और शिक्षण-शिविरों के ज़रिए सक्रिय राजनीतिक कर्म की प्रत्यक्षता ने उन्हें ऐसा आत्मविश्वास दिया कि वह आलोचना को राजनीति से स्वायत्त कर सके।

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