विचारों में कितनी भी गिरावट हो, गद्य में तरावट होनी चाहिए

अच्छी कहानी वही है दोस्तों जिसके किरदार कुछ अप्रत्याशित काम कर जाएँ। इस प्रसंग से यह सीख मिलती है कि नरेशन अच्छा हो तो झूठी कहानियों में भी जान फूँकी जा सकती है। यह भी कि अगर आपके पास कहानी है तो सबसे पहले कह डालिए।

वक़्त की विडम्बना में कविता की तरह

कवि आत्मकथा कम ही लिखते हैं। उनकी जीवनियाँ भी कम ही लिखी जाती हैं। मंगलेश डबराल (1948-2020) ने भी आत्मकथा नहीं लिखी। लेकिन उनके गद्य के आत्मपरक अंश और उनके साक्षात्कारों को एक तरफ़ करके, अगर हम उनकी पूरी ज़िंदगी और जीवन-मूल्यों को जानते-समझते हुए उनके कविता-संसार में प्रवेश करें; तब हम पाएँगे कि मंगलेश डबराल ने आत्मकथा लिखी है।

‘हँसो पर चुटकुलों से बचो, उनमें शब्द हैं’

जो लोग इस भ्रम में पड़े रहते हैं कि वे सुरक्षित हैं क्योंकि वे किसी मान्यता का पक्ष नहीं ले रहे, किसी का विरोध नहीं कर रहे, उनका पक्ष-विपक्ष नहीं है और उनका कोई अपना विचार नहीं है, वे समृद्धि की कल्पना में खोए हुए हैं।

रोज़-रोज़ मुक्तिबोध

उस कमरे में उस रात गहरी चली खोज में ताखे से झाँकती दिख पड़ती है एक बीड़ी और मैं साथी को आवाज़ लगाता हूँ कि आ गए हैं मुक्तिबोध। हम स्तुति-पाठ करते हैं—‘हम घुटने पर नशा-देवता (मुक्तिबोध ने नाश-देवता लिखा है) बैठ तुझे करते हैं वंदन—तेरे अग्निकणों से जीवन…’

र. स. के लिए

हिंदी साहित्य में दिसम्बर र. स. का महीना है। र. स. यानी रघुवीर सहाय। वह 1929 में 9 दिसम्बर को जन्मे और 1990 में 30 दिसम्बर को नहीं रहे। आज अगर वह सदेह हमारे बीच होते तब नब्बे बरस से अधिक आयु के होते, लेकिन जैसा कि ज़ाहिर है तीस बरस पहले ही उनका देहांत हो गया।

एक उपन्यास जो आज भी बेचैन कर देता है

मैंने क़रीब 17-18 साल की उम्र में जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा था तो हर पन्ने को पलटते हुए एक अजीब-सी बेचैनी मन में उठती जाती थी। गोरखपुर की लाइब्रेरी में बहुत-सी पुरानी दुर्लभ किताबों का ज़ख़ीरा था, जिसमें रेनॉल्ड्स की ‘लंदन रहस्य’ सीरीज़ और मोरिये की ‘रेबेका’ का हिंदी अनुवाद भी मौजूद था।

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