हमारा और उनका नुक़सान

भीगी मिट्टी की मादक ख़ुशबू ने नासिका-द्वार से घ्राणेंद्रिय पर और पक्षियों के कलहनुमा कलशोर ने कानों के परदों के मार्फ़त श्रवणेंद्रिय पर दस्तक देकर सुबह-सुबह हमें नींद-मुक्त किया। रात भर मेह बरसा था और नभ अब भी मेघाच्छादित था।

एक पुरुष की देह को लेकर

बहुत याद करने पर भी और बहुत मूड़ मारने पर भी पिछले दिनों ठीक-ठीक यह याद नहीं आया कि उस दिन हमारे घर में कौन-सा आयोजन था। हाँ, यह ख़ूब याद है कि उसी बरस किसी महीने दादी मरी थीं; पर यह याद नहीं आता कि वह दिन उनका दसवाँ था, तेरहवीं थी, होली थी या बरसी थी…पर उनकी मृत्यु से ही जुड़ा कोई आयोजन था घर में।

लिखने ने मुझे मेरी याददाश्त दी

मेरे नाना लेखक बनना चाहते थे। वह दसवीं तक पढ़े और फिर बैलों की पूँछ उमेठने लगे। उन्होंने एक उपन्यास लिखा, जिसकी कहानी अब उन्हें भी याद नहीं। हमने मिलकर उसे खोजना चाहा, वह नहीं मिला। पता नहीं वह किसी संदूक़ का लोहा बन गया या गृहस्थी की नींव।

एक मूर्ख मेरी ओर

विवेक अपने उदय के बाद जैसे-जैसे परिवर्तित, परिष्कृत और विकसित हुआ; वैसे-वैसे ही अविवेक भी परिवर्तित, परिष्कृत और विकसित हुआ। एक दौर में अज्ञान पर विजय हासिल करते हुए अर्जित की गईं संसार की सबसे बड़ी उपलब्धियों को ध्यान से जाँचने पर ज्ञात होता है कि संसार की सबसे बड़ी मूर्खताएँ भी इन्हीं उपलब्धियों के आस-पास घटी हैं।

दिन के सारे काम रात में गठरी की तरह दिखते हैं

चीज़ें रहस्यमय हो जाएँ तो पूजनीय होने में उन्हें वक़्त नहीं लगता। पूरा शहर एक अबूझ दृश्यजाल में बदल रहा था—रहस्यमय दृश्यजाल जो रिल्के की कविताओं में और थॉमस मान के उपन्यास में मिलता है।

रात्रि की भयावहता में ही रात्रि का सौंदर्य है

कोरोना महामारी के चलते प्रधानमंत्री महोदय ने इक्कीस दिनों तक पूरे राष्ट्र को लॉकडाउन कर दिया है। देश में कोरोना महामारी का संक्रमण फैलने का डर है और देस में भुखमरी का संक्रमण फैलने का।

मलयज की स्त्री-दृष्टि

संसार का बहुत सारा गद्य इस प्रकार प्रारंभ होता रहा है कि उसके पहले वाक्य में ही मौसम और समय प्रकट हो जाएँ। यह गद्य से गुज़र रहे व्यक्तित्व को एक तय प्रभाव में बाँधने का एक बहुत रूढ़ नुस्ख़ा है।

इच्छाएँ जब विस्तृत हो उठती हैं, आकाश बन जाती हैं

मैं उन दुखों की तरफ़ लौटती रही हूँ जिनके पीछे-पीछे सुख के लौट आने की उम्मीद बँधी होती है। यह कुछ ऐसा ही है कि जैसे समंदर का भार कछुओं ने अपनी पीठ पर उठा रखा हो और मछली के रोने से एक नदी फूट पड़ेगी—सागर में।

‘मैं अपने लिखे में हर जगह उपस्थित हूँ’

स्मृति को मैं जीने के अनुभव के ख़ज़ाने की तरह मानता हूँ, आगे की ज़िंदगी ख़र्च करने के लिए इसकी ज़रूरत है। अगर भूलने से काम रुकता है, तो परेशानी होती है। जैसे चावल ख़रीदने घर से निकले, दुकान पहुँचे तो मालूम हुआ जेब में पैसे नहीं हैं। रचनात्मकता में भूलना सहूलत है।

राजनीतिक हस्तक्षेप में उनका विश्वास था

फणीश्वरनाथ रेणु की विचारधारा उनकी भावधारा से बनी थी। उन्हें विचारों से अपने भावजगत की संरचना करने की विवशता नहीं थी। यही कारण था कि वह अमूर्त से सैद्धांतिक सवालों पर बहस नहीं करते थे। उनके विचारों का स्रोत कहीं बाहर—पुस्तकीय ज्ञान में—न था।

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