बनारस : आत्मा में कील की तरह धँसा है

बनारस के छायाकार-पत्रकार जावेद अली की तस्वीरें देख रहा हूँ। गंगा जी बढ़ियाई हुई हैं और मन बनारस में बाढ़ से जूझ रहे लोगों की ओर है, एक बेचैनी है। मन अजीब शै है। दिल्ली में हूँ और मन बनारस में है। यह कभी भी, कहीं भी हो सकता है और अगर कहीं न हों तो अन्यमनस्क होकर जीना दूभर कर सकता है।

ज़िंदगी के दिन देकर ज़िंदा रहने का मोह

मैं सरल से सरल भाषा में अपनी बात कहना-लिखना चाहता हूँ। क्लिष्ट भाषा का प्रयोग करके मुझे अपना पांडित्य सिद्ध नहीं करना और न ही अपने आपको विद्वान ठहराना है। सामान्य से भी सामान्य आदमी उसे पढ़-समझ सके, उसे वह अपनी ही भाषा लगे और उस भाषा से उसे डर, संकोच न हो यही मेरा प्रयास रहता है।

मन एक डिस्ग्राफ़िया ग्रस्त बच्चे की हैंडराइटिंग है

चीज़ों को बुरी तरह टालने की बीमारी पनप गई है। एक पल को कुछ सोचती हूँ, अगले ही पल एक अदृश्य रबर से उसे जल्दबाज़ी से मिटाते हुए बीच में ही छोड़कर दूसरी कोई बात सोचने लगती हूँ। इन दिनों काम है कि लकड़ियों के गट्ठर की तरह सिर पर चढ़ता जा रहा है, एक-पर-एक, इतना काम इकट्ठा हो गया है, जिन्हें निपटाने का रत्ती भर भी मन नहीं होता।

अव्यवस्था और अराजकता

हर व्यक्ति अपने से कमज़ोर व्यक्ति पर अपना रोब, घमंड, ताक़त दिखाकर अपने शक्तिशाली होने के भ्रम-अहं को संतुष्ट करता है। अपने से कमज़ोर के मुक़ाबले अपनी श्रेष्ठता साबित करना, सशक्तता दिखाना न मात्र मानवीय चरित्र है, अपितु प्राणी मात्र का यही चरित्र है।

हिंदी साहित्य के इतिहास के बारे में

आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी के अप्रतिम आलोचक, निबंधकार, साहित्येतिहासकार, कोशकार, अनुवादक, कथाकार और कवि हैं। शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य को जिस तरह प्रस्तुत किया, उस तरह आज तक शायद ही कोई दूसरा कर पाया।

सफ़र में होना क्या होता है?

उस दिन पहाड़ पर बादल तेज़ हवाओं के साथ बह रहे थे। वह बादलों की ओर देखकर शायद कोई प्रार्थना कर रही थी। मैंने कहा, “…सब आसमान की तरफ़ देखकर प्रार्थनाएँ क्यूँ करते हैं?” वह मुस्कुराते हुए बोली, “ताकि प्रार्थनाएँ उड़ सकें।” मैंने पूछा, “वे उड़कर कहाँ जाएँगी?” वह बोली, “अपने सफ़र पर।”

सुनहरा और शोर भरा सौंदर्य

राजूसिंघ आकर मेरी नींद का बेरी बना। दुपहर हो चुकी थी। देर रात तक जागता रहा था, इसलिए बहुत देर तक सोता रहा था। राजूसिंह अपने घर से तसला भर विश्नान लाया था मेरे लिए और उसे जल्द खाकर तालाब में नहाने चलने की हिदायत दे रहा था।

उजाले के लिए

जीवन इतना जटिल कभी नहीं था। अभी तक मन उदास था। अब जीवन उदास लगता है। अंजान दुःख घेरे हुए हैं—जैसे : किसी ने एक जगह खड़ा करके बॉक्स से ढक दिया है, और उस बॉक्स पर बड़ा-सा पत्थर रखकर भूल गया है।

बिखरने के ठीक पहले

अकेले रहने की आदत किसी नशे की तरह है। आस-पास लोग होते हैं तो अपना स्व छिलके की तरह उघड़ जाता है। फ़िट न हो पाने की कशिश आत्मा को बीमार करती है।

प्रेत को शांत करने के लिए

‘‘मनहूसियत का काम मत करो।’’—नानी ने जिन शब्दों में कहा था, उसके पीछे की भावना मैं बरसों खोजता रहा। नहीं मिली। न तो वो क्रोध था, न क्षोभ, न पीड़ा, न सलाह, न तंज़, न हँसी।

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