उमस भरी जुलाई में एक इलाहाबादी डाकिया
मैं सपने में अक्सर उड़ती हुई चिट्ठियाँ देखता हूँ। वे जादुई ढंग से लहराते हुए हवा में खुलती हैं और कई बार अपने लिखने वालों में बदल जाती है। तब मुझे उनकी तरह तरह की आँखें दिखाई पड़ती हैं। मैंने इन्हीं चिट्ठियों में दुनिया भर की आँखें देख रखी हैं। उनकी गहराई, उनके भीतर के सपने या उदासी, भरोसा या मशीनी सांत्वना, उनकी कोरों पर अटके हुए आँसू, सूखे हुए कीचड़… सब कुछ मैंने इतनी बार और इतनी तरह से देखा है कि अब बेज़ार हो गया हूँ। मेरे भीतर की आग बुझ गई है। उसकी राख मेरी ही पलकों पर गिरती रहती है।