विचारों में कितनी भी गिरावट हो, गद्य में तरावट होनी चाहिए

अच्छी कहानी वही है दोस्तों जिसके किरदार कुछ अप्रत्याशित काम कर जाएँ। इस प्रसंग से यह सीख मिलती है कि नरेशन अच्छा हो तो झूठी कहानियों में भी जान फूँकी जा सकती है। यह भी कि अगर आपके पास कहानी है तो सबसे पहले कह डालिए।

उमस भरी जुलाई में एक इलाहाबादी डाकिया

मैं सपने में अक्सर उड़ती हुई चिट्ठियाँ देखता हूँ। वे जादुई ढंग से लहराते हुए हवा में खुलती हैं और कई बार अपने लिखने वालों में बदल जाती है। तब मुझे उनकी तरह तरह की आँखें दिखाई पड़ती हैं। मैंने इन्हीं चिट्ठियों में दुनिया भर की आँखें देख रखी हैं। उनकी गहराई, उनके भीतर के सपने या उदासी, भरोसा या मशीनी सांत्वना, उनकी कोरों पर अटके हुए आँसू, सूखे हुए कीचड़… सब कुछ मैंने इतनी बार और इतनी तरह से देखा है कि अब बेज़ार हो गया हूँ। मेरे भीतर की आग बुझ गई है। उसकी राख मेरी ही पलकों पर गिरती रहती है।

संतृप्त मनोवेगों का संसार

एक स्त्री के लिए एकांत में लौटना रात्रि में लौटना ही हो सकता है। क्योंकि मर्दाना सूर्य उसके रहस्य का दुश्मन है। इसीलिए महादेवी वर्मा के यहाँ रात्रि की अनगिनत छवियाँ और सुगंधियाँ हैं, लेकिन मध्याह्न खोजे नहीं मिलता। मोनिका को रात्रि भी कैसी चाहिए—चाँदनी जिसमें बरस जाए। ऐसी रात्रि नहीं जो आत्मविस्मरण लाए, ऐसी रात्रि चाहिए जो चाँदनी की तरह बरस जाए, जो उज्ज्वल सौंदर्य की अनुभूति दे, और जिसे वह फूलों की तरह चुन सकें।

मन एक डिस्ग्राफ़िया ग्रस्त बच्चे की हैंडराइटिंग है

चीज़ों को बुरी तरह टालने की बीमारी पनप गई है। एक पल को कुछ सोचती हूँ, अगले ही पल एक अदृश्य रबर से उसे जल्दबाज़ी से मिटाते हुए बीच में ही छोड़कर दूसरी कोई बात सोचने लगती हूँ। इन दिनों काम है कि लकड़ियों के गट्ठर की तरह सिर पर चढ़ता जा रहा है, एक-पर-एक, इतना काम इकट्ठा हो गया है, जिन्हें निपटाने का रत्ती भर भी मन नहीं होता।

‘मुझे सुलझे विचारों ने बार-बार मारा है’

हरिशंकर परसाई (1924–1995) का रचना-संसार समुद्र की तरह है, यह कहते हुए समादृत कथाकार-संपादक ज्ञानरंजन ने इसमें यह भी जोड़ा है कि यह कभी घटने वाला संसार नहीं है। भारतीय समय में अगस्त का महत्त्व कुछ अविस्मरणीय घटनाओं की वजह से बहुत है। इस महीने में ही भारत स्वतंत्र हुआ और इस महीने में ही स्वतंत्र भारत के एक असली चेहरे हरिशंकर परसाई का जन्म हुआ और मृत्यु भी। यहाँ हम उनके रचना-संसार से उनकी कहन का एक चयन प्रस्तुत कर रहे हैं :

दुश्मनी जम कर करो लेकिन…

मैं यह स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि यह टिप्पणी मैंने जनवादी लेखक संघ के ख़िलाफ़ नहीं, बल्कि उस किताब के संकलनकर्ताओं द्वारा की गई विसंगतियों को लेकर की है। मैंने व्यक्तिगत रूप से अपने विचार व्यक्त किए हैं, न कि प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में।

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